|
‘एक देश, एक चुनाव’ की कल्पना को साकार करना उतना आसान नहीं है, पर यदि ऐसा होता है तो देश की अनेक समस्याएं समाप्त हो जाएंगी
देवराज सिंह
हमारे संविधान निर्माता जानते थे कि लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से धन एवं अन्य संसाधनों की बर्बादी होगी और राष्टÑ का विकास अवरुद्ध होगा। इसलिए उन्होंने चुनाव एक साथ कराने पर जोर दिया और वैसा हुआ भी। प्रारंभ में 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए। लेकिन अचानक कांग्रेस में आंतरिक कलह की वजह से 1969 में लोकसभा भंग करा कर चुनाव हुए। यहीं से एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया टूटी। इसके साथ ही कांग्रेस ने अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कर अनेक राज्य सरकारो को गिराने की कुप्रथा भी शुरू की। इस कारण आए दिन चुनाव होने लगे। इन चुनावों के कारण कई तरह के नुकसान हो रहे हैं। पहला, धन का अनावश्यक खर्च होता है। दूसरा, सरकारी योजनाओं में देरी होती है। तीसरा, चुनाव में सरकारी तंत्रों को झोंक देने से कुछ दिनों तक सरकारी कार्य ठप हो जाते हैं। इससे अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा होने लगती हैं।
पहले लोकसभा चुनाव के समय प्रति मतदाता 60 पैसा खर्च आया था। अब इसमें 2,000 प्रतिशत तक की वृद्धि हो चुकी है। 1952 के आम चुनाव में सरकार के खजाने से 10 करोड़, 45 लाख रुपए खर्च हुए थे। उस समय के हिसाब से यह भी बहुत बड़ी राशि थी। 2004 के आम चुनाव में 1,114 करोड़ रुपए, 2009 में 1, 483 करोड़ रुपए और 2014 में यह खर्च लगभग 3,600 करोड़ रुपए को पार कर गया था।
एक अध्ययन के अनुसार राज्य की विधानसभा के चुनावों पर लोकसभा चुनाव से लगभग 10 गुना अधिक धन खर्च होता है। चुनावों में सरकारी खजाने से तो जो खर्च होता है, वह होता ही है। प्रत्याशाी भी अनाप-शनाप खर्च करते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रत्याशी 3,00000 करोड़ से भी ज्यादा की राशि खर्च कर देते हैं। यह दुनिया के कई देशों के राष्टÑीय बजट से भी अधिक है।
चुनावी विशेषज्ञों का मानना है कि अगर चुनाव एक साथ कराए जाएं तो 2,00000 करोड़ रु. की राशि बचाई जा सकती है। इससे गरीब कल्याण के लिए अनेक कार्य हो सकते हैं। जब चुनावों में धन का ज्यादा से ज्यादा उपयोग होने लगता है तो उसके नकारात्मक प्रभाव समाज के साथ-साथ चुनाव पर भी पड़ने लगते हैं। जैसे भ्रष्टाचार और अपराध का बढ़ना। इस कार्य में लगभग सभी दल एक जैसे दिखते हैं। चुनाव आचार संहिता 45 दिन की होती है। इसके लागू होते ही कोई नई सरकारी योजना नहीं बन सकती और न ही कोई नया सरकारी काम शुरू हो सकता है। इससे अंदाज लगा सकते हैं कि देश का कितना समय बर्बाद होता है।
चुनाव में धन ज्यादा खर्च होने से आम आदमी तो चुनाव लड़ने की हिम्मत भी नहीं कर सकता है, वहीं दूसरी ओर पैसे वाले धन के बल पर राजनीति में पैठ बना लेते हैं। ऐसे लोगों से राजनीतिक शुचिता की उम्मीद कैसे की जा सकती है?यदि एक देश, एक चुनाव का विचार साकार होता है तो देश के लिए अच्छा
ही होगा।
टिप्पणियाँ