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बेल्जियम निवासी कॉनराड एल्स्ट प्राच्यतावादी और भारतविद् हैं। विभिन्न आस्थाओं और पंथों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले कॉनराड हिंदू-मुस्लिम संबंधों और भारतीय इतिहास के जानकार हैं। उन्होंने लेविएन के कैथोलिक विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र, चीनी और भारत-ईरानी अध्ययन में स्नातक किया। हालांकि 58 वर्षीय कॉनराड एल्स्ट का जन्म कैथोलिक परिवार में हुआ, लेकिन वे रोमन कैथोलिक मत को खारिज करते हैं और स्वयं को ‘पंथनिरपेक्ष मानवतावादी’ कहते हैं। एक लेखक से इतर वे हिंदुत्व पर अपने अध्ययन के लिए भी जाने जाते हैं। 1988 से 1992 के बीच बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवास के दौरान उन्होंने भारत की सांप्रदायिक समस्या की खोज करते हुए इस पर पहली पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने कहा कि ‘जिस जगह बाबरी मस्जिद था, वहां पहले मंदिर था’।
अपनी पुस्तक kAyodhya and AfterXl में लिखते हैं कि अयोध्या मंदिर आंदोलन ने भारतीय मुसलमानों को समाज और संस्कृति से खुद को जोड़ने का आमंत्रण दिया था। वास्तव में यह राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक अभ्यास था। अपनी दूसरी kNegationism in India: concealing the record of Islaml में कॉनराड ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि भारत में इस्लाम की आलोचना पर पाबंदी है और ‘इंसानियत के खिलाफ किए गए ऐतिहासिक अपराधों’ का उल्लेख करने पर भी पाबंदी है, यह सेंसरशिप के समान है।
ऊपरी तौर पर वे आपको अव्यवस्थित लग सकते हैं, किन्तु एक अध्येता के तौर पर बेहद व्यवस्थित और बेलाग कॉनराड को उनकी तीखी-सच्ची बातों के लिए जाना जाता है। पिछले दिनों भारत आए कॉनराड एल्स्ट से वर्ष प्रतिपदा, राष्ट्रवाद और अयोध्या आदि मुद्दों पर बात की पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने। प्रस्तुत हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश –
आप ऐसे समय भारत में हैं जब हिंदू पंचांग के अनुसार नया वर्ष शुरू हो रहा है। कैसा लग रहा है?
हां, किन्तु प्रतिपदा से पहले ही मैं बेल्जियम लौट रहा हूं। वैसे त्योहारों पर उत्साह तो रहता ही है। मैंने हाल ही में उत्साह के साथ होली में हिस्सा लिया। केसरिया रंग उड़ाया, गीत-संगीत का आनंद लिया। मकर संक्रांति पर पतंगबाजी का भी आनंद लिया। वैसे मैं त्योहार मनाने की बजाय ज्यादा समय पढ़ने और कंप्यूटर के सामने बिताना पसंद करता हूं।
आपने कभी अपना नाम बदलने के बारे में सोचा है, जैसे डॉ. डेविड फ्राली ने वामदेव शास्त्री रख लिया।
नहीं, मैंने यह कभी नहीं सोचा। मैं मानता हूं कि यह कभी नहीं होगा।
आपके नाम का उच्चारण सामान्य भारतीय के लिए थोड़ा मुश्किल है। इस नाम का मतलब क्या होता है?
हां, उच्चारण थोड़ा अलग तो है। इसका मतलब होता है बिना डरे और उन्मुक्तता के साथ सोचने वाला।
आप न्यायालय में लंबित अयोध्या मुद्दे को कैसे देखते हैं?
(थोड़ा रुकते हुए) यह विवाद का विषय तो है। मैंने अपनी किताब ‘अयोध्या एंड आफ्टर’ में यह बात कही है कि जितने भी तथाकथित भ्रष्ट सेक्युलर हैं, वे हमेशा हिंदुओं से सबूत मांगते हैं और हिंदू सबूत दिखाने तथा खुद को सही बताने में समय खराब करते रहे हैं। यह अपने आप में बड़ा हास्यास्पद है। सबूत दिखाने का सिलसिला एकतरफा रहा है। मुसलमानों की तरफ से सबूत देने की बहुत ज्यादा कोशिश नहीं हुई है। बाबर या उसके किसी सेनापति ने वहां ‘मस्जिद’ बनवाई तो जमीन पर कब्जा किया होगा। जंगल में तो बनाई नहीं होगी। ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे पता चले कि उस जमाने में बाबर ने वह जमीन खरीदी या किसी से हासिल करने का कोई प्रयास किया। इसका भी प्रमाण नहीं है कि अयोध्या में मुसलमानों का कोई बहुत पवित्र प्राचीन स्थान रहा हो, लेकिन इस बात के अनगिनत प्रमाण हैं कि अयोध्या नगरी हिंदुओं का पवित्र स्थान रही है, जहां भगवान राम का जन्म हुआ। किंतु इसका सबूत देने की जिम्मेदारी पिछले 70 वर्षों से हिंदू समाज पर ही रही है।
अलबत्ता, इस बात के सबूत जरूर मिलते हैं कि कुछ समय तक वहां पर एक ‘मस्जिद’ रही, जिसमें कुछ मुसलमान नमाज पढ़ने जाते थे। लेकिन विवाद के बाद उस जगह नमाज नहीं पढ़ी गई। इसे समग्र तौर पर देखें तो पाएंगे कि मुसलमानों की चाहत उस जगह नमाज पढ़ने की नहीं है। उनके लिए अयोध्या महत्वपूर्ण स्थान नहीं है, जबकि हिंदुओं के लिए अतुलनीय सम्मान का स्थान है। राम मंदिर विवाद को ऐतिहासिक नजरिए से भी देखें तो पाएंगे कि तथाकथित सेक्युलरों को कई बार हार का सामना करना पड़ा है। उनके तथ्य मुंह के बल गिरे हैं। उसके बावजूद वे लगातार हिंदू समाज के आगे कोई न कोई बखेड़ा खड़ा करते हैं। अगर आप पुरातत्व विभाग की खुदाई व सबूतों को देखेंगे तो ऐतिहासिक तथ्य मिलेंगे, जहां राम मंदिर था। फिर भी तथाकथित सेक्युलर लोग हिंदू समाज से अपेक्षा करते हैं कि वह सबूत पेश करता रहे। वैज्ञानिक तथ्यों और सबूतों पर लड़ाई हारने के बाद ऐसे सेक्युलरों ने नई बहस को जन्म दिया है। अब वे कहते हैं कि ‘पुरानी बातों को भूल जाना चाहिए। आज के जमाने में पुरानी बातों पर विवाद क्यों पैदा किया जाए? अगर बाबर ने कोई गलती की है तो उसकी सजा आज के मुसलमानों को क्यों दी जानी चाहिए? मतलब यथास्थिति रहने दी जाए और उस जगह मंदिर निर्माण की कोशिश नहीं की जाए।’ क्या दुनिया का कोई भी मुसलमान तीर्थाटन के लिए अयोध्या आता है? ना! उनकी रुचि यहां आने में ही नहीं है। पर भारत में सरकारों ने इस तथ्य को दबाने की कोशिश की। संभवत: मुस्लिम तुष्टिीकरण के चलते इस मामले को लटकाए रखा गया। कभी बहुसंख्यकों की भावनाओं का ख्याल रखने की कोशिश नहीं की गई। सेकुलर राजनीति व इस्लामी लामबंदियों की रुचि इस मुकदमे को लटका कर रखने में है।
तो क्या कहा जा सकता है कि यह इस्लामीकरण की एक कोशिश है? हम कह सकते हैं कि इस्लामीकरण भी एक तरह का औपनिवेशिक वाद ही रहा है?
बिल्कुल, पूरी दुनिया में इस्लाम का फैलाव ही जबरदस्ती और जोर के साथ हुआ। यह पूरी दुनिया में खिलाफत यानी खलीफा के शासन को फैलाना चाहता है। इतिहास गवाह है कि मुस्लिम शासकों ने सदियों से हर उस चीज को पाने की कोशिश की, जो उनके अधीन नहीं रही। यह मानसिकता आज भी है।
आपके हिसाब से हिंदुत्व का मतलब क्या है?
हिंदू बहुत सामान्य और बहुत सहज लोग हैं। वहीं, ईसाई खास तरह के अंधविश्वासों पर भरोसा करते हैं, जैसे कि उनका यह भरोसा कि एक व्यक्ति आएगा, सूली पर लटक जाएगा और मरने के बाद जिंदा होकर उनके पापों को नष्ट करेगा। इस्लाम को देखें तो मुसलमान एक अलग विचार के तले जीते हैं। उनका मानना है कि उनका मजहब अंत तक चलेगा और कयामत के दिन सभी लोग फिर से उठ खड़े होंगे और अल्लाह के सामने उनके कर्मों का फैसला होगा। आधुनिक समय में यह अपने आप में बड़ा अजीब है।
हिंदू सामान्य विचार और भाव वाले हैं। वे सबके साथ रहने में भरोसा करते हैं। सर्वधर्म समभाव उनका मूल मंत्र है। यानी आपकी पूजा या उपासना पद्धति अलग भी है तो हिंदू आपके साथ रहने में भरोसा करते हैं। उन्हें इससे कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन इस्लाम और ईसाइयत में यह विचार नहीं मिलता। हालांकि हिंदू धर्म में भी कुछ अव्यवहारिक बातें हैं। जैसे- हिंदुओं का यह भरोसा कि वेदों की रचना भगवान ने की है। वेदों में बैलगाड़ी और रथों का जिक्र है, लेकिन हम जानते हैं कि पाषाण या कांस्य युग में इस तरह की चीज नहीं होती थी। यह सब सभ्यता के विकास के साथ हुआ। तो कहा जा सकता है कि उस जमाने में ऋषि-मुनि या विद्वान लोगों ने वेदों की रचना की थी। कुछ कमियों के बावजूद हिंदू धर्म ज्यादा मानवीय है।
आप हिंदू धर्म की तुलना बाकी पंथों के साथ कैसे करते हैं और हिंदू धर्म को किस रूप में देखते हैं?
बाकी मत—आस्था के लोग हिंदुओं को अपने ‘रिलीजन’ के चश्मे के अनुसार ही देखते हैं। उन लोगों के अपने दृष्टिकोण हैं। रोम के प्रसिद्ध दार्शनिक सेनेका के मुताबिक ‘रिलीजन’ का मतलब है बार-बार पढ़ना। अगर उस तरह की व्याख्या हिंदू धर्म के लिए करें तो कहा जाता है- ‘ध्यान से’ या अंग्रेजी में कहा जाता है ‘यू डू इट रिलीजियसली’। यह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। जापान में भी एक पद्धति है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- ‘पूरे ध्यान के साथ’ काम किया जाए यानी जो चीज बहुत ध्यान से, गौर से और पूरी एकाग्रता के साथ की जाए, वह रिलीजन है। हिंदुओं का ‘धर्म’ इस रिलीजन से अलग और ज्यादा व्यापक है। यह केवल एकाग्रता और सतर्कता से करने की बात नहीं, बल्कि ‘धारण’ करने और तद्नुसार आचरण करने की बात है।
आज दुनिया में नफरत खूब दिखती है। कुछ पंथों के अतिवाद का मुद्दा बार-बार आता है। ऐसे में किस तरह से हिंदू धर्म बाकी नफरत फैलाने वाले मतों पर विजय पा सकता है?
सबसे महत्वपूर्ण काम जो हिंदुओं को करना होगा, वह यह है कि हिंदू खुद पर भरोसा करें। अपने धर्म, अपनी जीवन पद्धति, अपनी शैली पर भरोसा जताएं। पुरानी चीजों, पुरानी बातों को न भूलें। जैसे कि हिंदुस्थान व भारतीय उपमहाद्वीप में ईसाई मिशनरियों द्वारा किए गए कुचक्र को। ईसाई मिशनरियों की भूमिका जगजाहिर है। वे कन्वर्जन करा रहे हैं। जो काम इस्लाम ने तलवार के जोर पर किया, वही काम मिशनरी पैसे और लालच के जोर पर करवा रहे हैं। उससे सावधान होने की जरूरत है, पर दिक्कत यह है कि ज्यादातर हिंदू, ईसाई मिशनरियों की भूमिका, उनके इतिहास, उनके कामों को भूल रहे हैं। एक हिंदू का अपने धर्म को भूलना ही सबसे खतरनाक है। उसके साथ इतिहास में जो हुआ, जो होता रहा है, उसको भूलते जाना, अपने ऊपर हुए अन्याय को भुला देना ज्यादा खतरनाक है। इसके अलावा, हिंदुस्थान की सीमाओं की रक्षा, अपने ऊपर होने वाले सांस्कृतिक हमलों से बचाव, जैसे अंग्रेजियत के अंधानुकरण से हिंदुओं को बचना होगा।
कुछ समय से एक राजनीतिक प्रयास हो रहा है, जिसमें पुरातन, सौम्य हिंदू धर्म तथा इसके विपरीत आक्रामक राजनीतिक हिंदू धर्म, ये दो तरह की बातें दिखाकर फांकें पैदा करने की कोशिश हो रही है। आप हिंदुत्व व हिंदू राष्टÑवाद को कैसे देखते हैं?
आजकल प्रखर हिंदू राष्ट्रवाद की चर्चा जोरों पर है। हालांकि भारत में गांधी वाले हिंदुत्व को कांग्रेस ने चलाने की कोशिश की जो मानो डरपोक, कायर और स्वयं की निंदा करने वाला धर्म रहा। यानी इस्लाम और ईसाइयत को खुश करने में अपनी कमर को हद तक झुका लेना, खुद में खामियां ढूंढना, बाकी मजहबों की बढ़-चढ़कर प्रशंसा करना, इस शैली में शामिल है। हिंदुस्थान में एक बड़ा तबका उन प्रभावशाली हिंदुओं का रहा है जो खुद को सेक्युलर कहते रहे। वे हिंदू धर्म के विरुद्ध काम करते हैं। फिर अचानक उन्हें अपने नाम में हिंदू शब्द की याद आती है, तब वे बड़े गर्व से कहते हैं कि मैं भी हिंदू हूं, पर मैं यह नहीं मानता, वो नहीं मानता। मिसाल के तौर पर शशि थरूर, जो अचानक हिंदू होने का मतलब बताने लगे हैं या राहुल गांधी, जिन्हें अचानक लगा कि वह भी जनेऊधारी हिंदू हैं। अगर इन दोनों के कार्यकलापों को देखेंगे तो पाएंगे कि इनके काम हिंदू धर्म के विरुद्ध रहे हैं। दोनों के क्रियाकलाप निराशावादी और कायरतावादी रहे हैं। हालांकि तकनीकी तौर पर दोनों हिंदू ही हैं।
हिंदू धर्म को सामान्य उत्सवधर्मिता में डूबे रहने और शांत नजरिए से रहने की जरूरत है या इस सोच को बदलने की जरूरत है?
अगर आप हिंदू धर्म के हिसाब से रीति-रिवाजों को थोड़ी शिद्दत और सकारात्मकता से जीते हैं और अपने धर्म या अपनी रीतियों पर शर्मिंदगी नहीं होती है तो मुझे लगता है कि यह अपने आप में काफी है। यह उन तमाम चीजों को दरकिनार करने के लिए काफी है जो हिंदू धर्म को नुकसान और उसका उपहास उड़ाने के लिए काम कर रहे हैं।
आज के संसार में सबसे बड़ा खतरा क्या है?
इस बारे में ज्यादा नहीं कह सकता, पर जलवायु परिवर्तन की पूरी दुनिया में बहुत चर्चा है। जिस तरह से जलस्तर बढ़ रहा है, उससे समुद्र के किनारे बसे कुछ शहरों के लिए खतरा पैदा हुआ है।
क्या वहाबी उन्माद दुनिया के लिए खतरा है? इसका हल क्या है?
मेरा मानना है कि वहाबीकरण का फैलाव एक बड़ी समस्या है। हालांकि अपने जीवनकाल में मैं वहाबीकरण के फैलाव से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ हूं। दुनिया के बहुत से हिस्सों में यह परेशानी का सबब है, लेकिन इसका अंत भी निश्चित है। मैं जब छोटा था, तब देखता था कि बहुत से लोग चर्च जाते हैं, पर अब ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम हो गई है, चर्च खाली हैं। उस जगह का उपयोग व्यवसाय, व्यावसायिक चीजों में किया जा रहा है। मैं यह नहीं कह सकता कि इस्लाम की समस्या कितनी बड़ी है या आने वाली पीढ़ी के लिए यह कितनी बड़ी परेशानी होगी। पर यकीनी तौर पर फिलहाल यह एक समस्या है। इस्लाम से बाहर के लोगों के लिए इसका हल यही है कि वे अपने धर्म के रीति-रिवाजों, अपनी संस्कृति व सभ्यता पर भरोसा करें। दूसरों की नकल न करें, उनसे प्रभावित न हों।
भारत में राजनीति की सेकुलर पालेबंदियों व भाजपा की राजनीति को आप किस तरह से देखते हैं?
मैं भाजपा की राजनीति को बहुत अलग नहीं देखता हूं। भारत में अमेरिका या कहें कि अंग्रेजी का एक विशिष्ट वर्ग चढ़ा हुआ है, जो भारतीय सभ्यता के लिए ठीक नहीं है। श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मैंने भारत में लोगों को काम करते देखा है। उनकी योग्यता व काम की दक्षता से प्रभावित होता हूं। लेकिन ऐसे बहुत से लोग हैं जो अभी भी हिंदू धर्म को पीछे धकेलने, उसका उपहास उड़ाने के लिए बैठे हैं। मुझे लगता है कि ऐसे लोगों की पहचान जरूरी है। मैं योगी आदित्यनाथ से बहुत प्रभावित हुआ हूं। जब मैंने पहली बार उन्हें और उनके पहनावे को देखा, तो लगा कि यह भारत में एक बड़ा बदलाव है। वे योगी हैं, आत्म नियंत्रण उनकी मुख्य खूबी होगी। ऐसे व्यक्ति का राजनीति में आना अपने आप में क्रांतिकारी कदम है। वे हिंदी माध्यम के स्कूल में पढ़े हैं और वे संभवत: अंग्रेजी के प्रति लोगों के झूठे मोह के बीच हिंदी को नए तरीके से बढ़ावा देने, बीच की राह निकालने की कोशिश करें। यह अपने आप में महत्वपूर्ण है। किसी भी देश का विकास उसकी मातृभाषा के विकास में हो सकता है। चीन, जापान, जर्मनी, यूरोप के देशों ने अपनी मातृभाषा में विकास किया है। संभवत: भारत को भी यह राह अपनाने की जरूरत है।
भाजपा के प्रति राजनीतिक माहौल को कैसे देखते हैं?
भाजपा की नीति जैसी भी रही हो, पर उसके प्रति जनता में एक बहुत बड़ा झूठ फैलाया जाता है। यह कांग्रेस, वामपंथी करते हैं। इसमें इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर, गलत बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, उसके लिए हिंदुत्व, संघ, भाजपा को दोषी ठहराना शामिल है।
नव वर्ष प्रतिपदा पर हिंदुओं के लिए आप का संदेश क्या हो सकता है?
नया वर्ष मुबारक हो! उम्मीद करता हूं कि अगले साल भाजपा अपने बूते फिर से सत्ता में लौट कर आए और उन सब कामों को करे, जिन्हें अभी तक नहीं किया गया। विकास की बात तो सब करते थे, फिर लोगों ने भाजपा को ही क्यों चुना? उन सब चीजों को किया जाए जो इस समाज के गौरव को जगाने के लिए, देश के लिए बहुत जरूरी हैं। समाज में सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा में मूलभूत बदलाव हो, उन तमाम कानूनों को लागू कराया जाए जो संविधान में हैं। जैसे-यूनिफॉर्म सिविल कोड। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात बहुत हो चुकी, अब बहुसंख्यकों की बात भी हो। नेहरू और इंदिरा गांधी के विचारों से इतर देश का राजनीतिक पक्ष बहुसंख्यक समाज के लिए कुछ कर सके तो मुझे लगता है, यह बड़ा कदम होगा।
इस्लाम को वैचारिक धरातल पर कैसा पाते हैं? क्या कहीं कोई उलझन है?
भारत के संदर्भ में कहूं तो नहीं लगता कि भारतीय मुस्लिम उलझन में हैं। यह विस्मरण है। हर मुसलमान आज खुद को सईद और शरीफ कहलवाना पसंद करता है! क्यों? इसका मतलब यह हुआ कि वह खुद को मोहम्मद साहब का वंशज कहलाने की चाहत रखता है! यह दुख की बात है, किन्तु वे पुरखों को भूल चुके हैं। यह भी कम चिंता की बात नहीं कि उन्हें इस देश के हिंदुओं की परवाह नहीं है। वे चाहते हैं कि भारत उनके मजहब के हिसाब से चले।
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