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केरल में एक हिंदू युवक मधु की हत्या जिहादी और वामपंथी तत्वों ने कर दी। मधु गरीब था, वोट बैंक का हिस्सा नहीं था। शायद इसलिए सेकुलरों ने उसकी हत्या के विरुद्ध जबान नहीं खोली
तरुण विजय
केरल में हिंदू जनजातीय युवा मधु की दर्दनाक शोकान्तिका पर पूरे देश में गुस्सा और आक्रोश फैलना चाहिए था। वह उस भारत का एक दु:खद चित्र उकेर गया, जो भूख, बदहाली, उपेक्षा और निर्ममता का शिकार होता आया है। मधु 30 वर्षीय था। केरल के अट्टाप्पाडी जनजातीय क्षेत्र में अपनी मां के साथ रहता था। वे कौन थे, जिन्होंने मधु पर चोरी का आरोप लगाया? क्या चोरी की थी उसने? कहते हैं—खाना चुराया था शायद।
यह लिखना भी कठिन है कि जब अबू बकर, उबेद, शमसुद्दीन, नजीब, अब्दुल करीम, अनीश, संजीव आदि- वे सोलह जो बाद में पकड़े गए, जब अकेले, निहत्थे, भूख से कमजोर मधु को बर्बरता से पीट रहे थे तो मधु क्या सोच रहा होगा। उसका अपराध क्या सिर्फ हिंदू जनजातीय होना या भूखा होना था, अकेला-कमजोर होना था? वे ‘बहादुर’ लोग मधु के हाथ बांधकर उसके साथ ‘सेल्फी’ ले रहे थे- क्या उन्हें मनुष्य कहा जा सकता है? उनका जो भी होगा, सो होगा, लेकिन मधु को तड़पा-तड़पाकर मारने वाले भारतीयों की पाशविकता ने कुछ मूलभूत प्रश्नों को पुन: उभारा है।
इस देश में गरीब, जनजातीय और अनूसूचित जाति का होने पर इतने अधिक अत्याचार तथा आघात क्यों सहने पड़ते हैं? जब मैं वनवासी कल्याण आश्रम में काम करता था, तो जनजातीय गांवों में गरीब मजदूरों को दिन की भूख भुलाने के लिए कुछ ककड़ी किस्म की सब्जी और सस्ता-पीली-काली पत्ती का तंबाकू या खैनी खाकर काम करते देख आहत होता था। उनके लिए जो जनजातीय विकास की योजनाएं सरकार देती थी-उसका बहुत कम लाभ उन तक पहुंचता था। बिचौलिए या स्वयं जनजातीय समाज से राजनेता बने लोग वे सब डकार जाते थे। उद्योगपतियों को जनजातीय क्षेत्र के विकास के लिए सस्ती जमीन, करों में 25-25 वर्ष की छूट जैसे आकर्षक उपहार दिए जाते हैं-पर जनजातीय भारतीय उन उद्योगों में या तो दिहाड़ी मजदूर बनकर रह जाता है या झुग्गी-झोंपड़ी का निवासी एक अकुशल कामगार। जनजातीय क्षेत्रों में जो अधिकारी भेजे जाते हैं, वे इसे ‘सजा’ मानते हैं- जिन नेताओं को जनजातीय क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी दी जाती है-वे सोचते हैं-उन्हें उपेक्षा का शिकार बनाजा जा रहा है। सबसे ज्यादा ढिलाई, धीमा काम, भ्रष्टाचार, संवेदनहीन बाबूगिरी उन विभागों में पाई जाती है जहां जनजातीय समाज की जरूरतों से सरोकार पड़ता है। उन क्षेत्रों में अच्छे-सुपर स्पेशियेलिटी वाले अस्पताल, बेहतर डाक्टर कहां जाते हैं? वे जाएंगे मेट्रोपोलिटन शहरों के पांच सितारा होटलनुमा अस्पतालों में जहां सुविधा ज्यादा, वेतन आकर्षक, बच्चों के स्कूल भव्य और रहने का मकान अच्छा है। ये जनजातीय पूरे भारत की जनसंख्या के प्राय: आठ प्रतिशत से ज्यादा हैं। लेकिन देश का 98 प्रतिशत आतंकवाद, विद्रोह अराजक-हिंसाचार, बीमारियां, इन जानजातीय क्षेत्रों में ही केंद्रित हैं। विदेशी धन और विदेशी मन के लोगों का इन क्षेत्रों में भयानक विस्तार है। नक्सली, माओवादी, एन.एस.सी.एन., पी.एल.ए., उल्फा अन्य कम्युनिस्ट विचारधारा के संगठन इन क्षेत्रों में सक्रिय हैं। जनजातीय समाज के गरीब, बेहद गरीब और उनके अमीर, बेहद अमीर हैं। उनका महान इतिहास, उनकी सांस्कृतिक विरासत हमारे किसी मुख्य पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं। 1981 में पाञ्चजन्य ने उनके साहित्य, वीरता, स्वातंत्र्य समर में योगदान पर वीर-वनवासी अंक निकाला था, जो काफी लोकप्रिय हुआ। पर शेष मीडिया के लिए जनजातीय समाज का न तो राष्ट्रीय मुख्यधारा से, न धर्म से कोई नाता होता है।
हां, बाईचुंग भूटिया या मेरी कॉम जैसी जनजातीय विभूतियां जब क्षितिज पर चमकें तो कुछ ध्यान दिया जाता है। पर क्या उनके जैसे महान नायक एवं अन्य प्रमुख प्रभावशाली जनजातीय नेता अपने समाज की दर्दनाक स्थिति पर कोई प्रभावी, निर्णायक भूमिका निभा पाते हैं? उत्तर निराशाजनक ही है। वे सामान्यत: अपनी दुनिया में रहते हैं। केरल में मधु की दर्दनाक हत्या पर कौन, कहां कितना बोला, यह देखना हत्या जितना ही वेदनाजनक है। कुल मिलाकर मधु को असमय, अकाल मृत्यु का शिकार बनाया जाना राजनीतिक पक्ष-विपक्ष, आरोप-प्रत्यारोप, नारेबाजी के शोर में डूब गया। उसकी बूढ़ी मां का दर्द किसकी आंखों में बहा? क्योंकि वह बड़ा आदमी, धनी-चुनावी रणनीति का महत्वपूर्ण हिंसा या वोट बैंक नहीं था। क्योंकि वह उस समाज से था, जिसके लोग प्रेस कांफ्रेंस करने की कुशलता से अनभिज्ञ हैं और जो मानवाधिकार, अनूसूचित जनजाति अत्याचार निरोधक कानून, पुलिस की कार्यवाही आदि से परिचित नहीं। ऐसे समाज के लिए वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन जब आगे आते हैं तो कितने कार्यकर्ता सामने आते हैं? जितने चाहिए, उतने तो नहीं, लेकिन फिर भी संपूर्ण देश के अलग-अलग भागों से डॉक्टर, इंजीनियर, लेखक आदि अन्य शिक्षित युवक-युवतियां यदि आज भी शहरों का आकर्षण छोड़ सुदूर वनक्षेत्रों में नि:स्वार्थ भाव से जनजातीय विकास के लिए निकले हैं तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं।
इस जनजातीय समाज पर चारों ओर से हमले होते हैं। भूख, बदहाली के अलावा ईसाई कन्वर्जन, कम्युनिस्ट हिंसा तथा चर्च समर्थित संगठनों द्वारा उन्हें भारत के विरुद्ध लड़ने वाले गुटों में शामिल करना बड़ी चुनौतियां हैं। केवल उत्तर पूर्वाञ्चल ही नहीं, जहां अभी तक अपनी प्राचीन जनजातीय सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रखे रहने वाला अरुणाचल भी 30 प्रतिशत ईसाई हो गया है, बल्कि बस्तर, ओडिशा, आंध्र एवं केरल के नीलगिरी जैसे क्षेत्र विकास-हीनता के बादलों से घिरे अपनी भाषा-आस्था और पहचान खोते जा रहे हैं। दुर्भाग्य से उनके लिए उपयोग होने वाले शब्दों में भी सावधानी बरतना बंद हो गया है। कभी जनजातीय शब्द ही मान्य था-संविधान में यही शब्द है। अटल जी ने जनजातीय कल्याण मंत्रालय बनाया था, आदिवासी कल्याण मंत्रालय नहीं। पर आज अच्छे-खासे सुसंस्कृत अधिकारी और नेता ‘आदिवासी’ शब्द का उपयोग करते हैं।
मधु की हत्या पर
सोशल मीडिया में प्रतिक्रिया
अब असहिष्णु ब्रिगेड कहां है? कथित वामपंथी, पुरस्कार वापसी गुट और प्रकाश राज जैसे सेकुलर कहां हैं? इस मुद्दे पर अब ये लोग चुप क्यों हैं? क्योंकि यहां वोट बैंक की राजनीति नहीं की जा सकती।
—सौरिश मुखर्जी@ेी_२ङ्म४१्र२ँ
मधु की हत्या से मैं बहुत दु:खी हूं। केरल को यह क्या हो गया है? ऐसी बर्बरता और अमानवीयता? मुख्यमंत्री जी, आपने हत्यारों की निंदा की, लेकिन देखिए कैसे ‘भगवान का अपना राज्य’ विकृत होकर अराजकता और बर्बरता में तब्दील हो गया है। शर्मनाक!
—मकरंद आर. परांजपे@टं‘१ंल्लढिं१ंल्ल२स्री
झुंड में कुत्ते और इनसान एक जैसे होते हैं। वे जंगली, क्रूर और अप्रत्याशित हैं। माफ करना मधु, हम न तो तुम्हें खिला सके और न ही हमारा विकास हमें मनुष्य बना सका।
—आर. कृष्णराज@‘१्र२ँं४३ँङ्म१
भाऊराव देवरस, सुदर्शन जी, रामभाऊ गोडबोले, भास्कर राव प्रभृत्ति विचारक बहुत कठोरता से ‘आदिवासी’ शब्द के प्रयोग को रोकते थे। यह शब्द विघटनकारी, समाज विघातक एवं संविधान विरोधी है। पर जैसे मधु पर शारीरिक हमला होना जनजातीय समाज की शोकांतिका बना, वैसे ही जनजातियों पर भाषायी कदाचार का हमला आम बात हो गई है। किसी अस्वाभाविक मृत्यु का राष्ट्रीय खबर बनना आपके धन, प्रभाव, जाति और ग्लैमर पर निर्भर करता है। मधु के पास यह सब कुछ नहीं था। उसके पास भारत था, भारत का मन था, भारत की माटी की गंध थी। वह भारत का भविष्य था। उस भविष्य को यदि हम बचा पाए# तो फिर सब बड़ी योजनाएं सार्थक मानी जाएंगी। तब तक सिर्फ वेदना को धूमिल न होने दें। ल्ल
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