|
हम डिजिटल युग में हैं, सबकुछ आॅनलाइन है। सुख-दुख, हंसी-ठहाका, भावनाएं-संवेदनाएं, सबकुछ लाइक, कमेंट और फॉरवर्ड तक सीमित।
सोशल मीडिया के माध्यम से सब एक-दूसरे से जुड़े हैं, लेकिन इस जुड़ाव में पहले जैसा जुड़ाव, अपनत्व नहीं है। हंसी के लिए भी डेटा पैक की मोहताजगी से पहले हम उत्सवी थे। हर त्योहार पर एक-दूसरे से मिलते थे, घर जाते थे। आते तो अब भी हैं, लेकिन फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और ह्वाट्सएप पर। अब हम उत्सवी नहीं रहे। रिश्तों की गरमाहट मोबाइल के वाइब्रेशन मोड की थरथराहट में सिमटती जा रही है। सवाल है- क्या हम हंसी-ठिठोली भी भूल गए?
हम दुनिया के सबसे पुराने हंसोड़, हम जिनके पुरखों ने स्मित हास्य से अट्टहास तक की सीढ़ियां गिनते हुए हंसी के बारीक भेद बताए, हम जिन्होंने हंसी के दर्शन और विज्ञान को समझते हुए इसे नवरस में स्थान दिया। तो आज क्या हुआ! हम यानी हंसी के हरकारे, क्या अपनी हंसी खोते जा रहे हैं!
इस प्रश्न का उत्तर तलाशते हुए फागुन की बयारों में, होली की आहट पर हमने हंसी की इसी विरासत, विज्ञान और दर्शन की त्रिआयामी पड़ताल करने की कोशिश की है।
आइए, पढ़िए और पढ़ते-पढ़ते जरा हंसिए भी क्योंकि इस दुनिया में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हंस सकता है। आइए, हमारे साथ ठहाके लगाइये और उस आनंद को अनुभव कीजिऐ जो सत् चित है, जो एक पल में थकन झाड़ देता है, डिप्रेशन दूर कर देता है.. हंसिए, क्योंकि होली है। हंसिए, क्योंकि हंसना जरूरी है।
टिप्पणियाँ