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वर्ष: 14 अंक: 14
10 अक्तूबर ,1960
जीवन-पद्धति आज भी मार्गदर्शन कर सकती है
—पं. दीनदयाल उपाध्याय
हमें तो अपनी प्रकृति, अपनी जीवन रचना के लिए परानुकरण की आवश्यकता नहीं है। हमें अपनी प्रकृति, अपनी प्रतिभा एवं अपनी ही परंपरा का विचार करके अपनी जीवन रचना करनी पड़ेगी, क्योंकि हमारा राष्ट्र कोई संघ उत्पन्न राष्ट्र नहीं है, हमारा सहस्रों वर्षों का इतिहास है, हमारी स्वयं की और जीवन-पद्धति है जो आज भी हमारा मार्गदर्शन कर सकती है पर हां, यह बात अवश्य है कि हजारों वर्षों के इतिहास में हमारे यहां जो जीवन-पद्धति चली है, उसको हम आज वैसा का वैसा लेकर नहीं चल सकते-क्योंकि कुछ न कुछ युग का भी विचार करना पड़ेगा। यदि हम आज अपनी प्राचीन जीवन पद्धति को उसके असली रूप में अपनाना चाहें तो हम नहीं कर सकते हैं। परंतु हमारी जीवन-पद्धति के पीछे जो तत्व हैं, हम उनको भुलाकर काम नहीं चला सकते-हमें उनके मूल रूप पर विचार कर, उन्हें युगानुकूल बनाकर ग्रहण करना होगा।
जब हम तात्विक भूमिका के आधार पर खड़े होते हैं तो हमारे सामने कुछ प्रश्न उठते हैं-जैसे मनुष्य क्यों पैदा होता है? उसका लक्ष्य क्या होगा? उसे क्या करना चाहिए? हम जब भी किसी चीज का विचार करते हैं तो उसका विचार हमें इस आधार पर करना चाहिए कि यह हमें किसलिए चाहिए?
जिसे रेलगाड़ी से जाना है उसे तो उन्हीं साधनों का विचार करना पड़ेगा जो उसकी यात्रा में आवश्यक हैं परन्तु जो कहीं जाने वाला नहीं और यदि वह यात्रा के लिए आवश्यक वस्तुएं जुटाने का प्रयास करेगा तो यह ठीक नहीं होगा। इसी तरह हमारी जीवन की यात्रा है। यह यात्रा कहां से प्रारंभ होगी? कहां पर समाप्त होगी? इस पर विचार करने पर हम कुछ बातें देखते हैं। मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा में कुछ चीजें करता है, कुछ नहीं करता। जो सुखकारक नहीं वह नहीं करता है, अब प्रश्न उठता है कि ‘सुख’ है क्या? व्यावहारिक रूप से इसका विवेचन करने के लिए एक दूसरा प्रश्न उठता है कि यह सुख किसका? तो हम कहेंगे कि इन्द्रिय का सुख? पर इतना कह देना पर्याप्त नहीं है।
अन्तरराष्ट्रीय घटना-चक्र
तटस्थ राष्ट्रों के नये ‘गुटों’ का प्रादुर्भाव, आइक-ख्रु श्वचेव-सम्मेलन का प्रयास
रूसी प्रधानमंत्री के दांव-पेंच-तटस्थ राष्ट्रों को आकर्षित करने का प्रयास डॉ. सुकर्ण जल्दबादी कर रहे हैं
पिछले सप्ताह हमने अन्तरराष्ट्रीय जगत में तटस्थ राष्ट्रों के एक तृतीय गुट के विकास के संबंध में कुछ संभावना प्रकट की थी। विगत एक सप्ताह में इस ‘तटस्थ गुट’ की विद्यमानता एवं महत्व प्रकट हो गया है। यद्यपि इस तटस्थ गुट के लोग परस्पर किसी भी सैनिक संधि या समझौते से बंधे हुए नहीं हैं, किन्तु राष्ट्र संघ के इस अधिवेशन में इसने एक महत्वपूर्ण ‘पार्ट’ अदा किया है।
हिन्देशिया, भारत, घाना, संयुक्त अरब गणराज्य और यूरोस्लाविया से संयुक्त इन तटस्थ देशों के एक प्रस्ताव उपस्थित किया है, जिसने विश्व की समस्याओं के समानाधानार्थ चार बड़ों की वार्ता के स्थान पर सुझाव दिया गया है कि अमरीकी राष्ट्रपति श्री आइसनहोवर तथा रूसी प्रधानमंत्री श्री ख्रुश्चेव परस्पर वार्ता करें और समस्याओं के हल का कोई मार्ग ढूंढे। यद्यपि इस प्रस्ताव का अभी तक किसी भी राष्ट्राध्यक्ष ने विरोध नहीं किया है किन्तु फिर भी यह स्वीकार किया जाएगा, यह संभावना कम ही दिखती है। कारण ब्रिटेन एवं फ्रांस इस प्रकार से वार्ता से पृथक हो जाएंगे और इस स्थिति को स्वीकार कर यदि अमेरिका वार्ता करेगा तो इसका सीधा तात्पर्य ब्रिटेन एवं फ्रांस को नष्ट करना होगा। हम समझते हैं कि आज जब पश्चिमी शक्तियों में अधिक घनिष्ठता एवं मतभेद कम होने की संभावना है उस समय अमेरिका पहले से ही जर्जरित नाटो-राष्ट्रों में मतभेद और बढ़ाने की बेवकूफी नहीं करेगा।
दूसरी ओर श्री ख्रुश्वचेव ने भी अभी तक अपनी प्रक्रिया इस पर प्रकट नहीं की है जबकि साधारणत: वे किसी भी प्रश्न पर बहुत शीघ्र निर्णय दे देते हैं। किन्तु अस्वीकृत न होकर अधिकारिक प्राप्त करने की एवं अमरीका और पश्चिमी जगत को बदनाम करने की लालसा काम कर रही है। यह बात सर्वविदित है कि श्री ख्रुश्चेव न्यूयार्क समझौता करने के लिए नहीं तो कूटनीतिक विजय प्राप्त करने के लिए गए हैं। वे संभवत: इस बात की बाट जोह रहे हैं कि यदि पश्चिमी देश इसे अस्वीकार कर देंगे तो वे इसे स्वीकार कर पश्चिमी देशों को बदनाम कर सकेंगे और यदि वे स्वीकार करते हैं (जिसकी संभावना नहीं है) तो वे अमेरिका द्वारा जासूसी के लिए जाने एवं तत्संबंधी उड़ानों के लिए माफी मांगने की शर्त रखकर प्रस्ताव पर पीछे से वार करते रहेंगे। अभी तक की जो घटनाएं हैं वे इसी प्रकार की हैं। विगत दो सप्ताह में भी नि:शस्त्रीकरण विषयक प्रस्ताव पर रूस ने अपने प्रस्ताव में एक नई बात रखी कि नि:शस्त्रीकरण वार्ता में तटस्थ देशों के प्रतिनिधि के रूप में भारत, घाना, हिन्देशिया, संयुक्त अरब गणराज्य और मैक्सिको के प्रतिनिधियों को भी मान्यता मिलनी चाहिए। स्पष्ट है कि इस प्रस्ताव के पीछे इन राष्ट्रों की वास्तव में उनका उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने से बढ़कर ख्रुश्चेव का इन देशों को सहानुभूति प्राप्त करना है।
आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण होना चाहिए
राजनीतिक शक्ति का प्रजा में विकेंद्रीकरण करके जिस प्रकार शासन की संस्था का निर्माण किया जाता है, उसी प्रकार आर्थिक शक्ति का भी प्रजा में विकेंद्रीकरण करके अर्थव्यवस्था का निर्माण एवं संचालन होना चाहिए। राजनीतिक प्रजातंत्र में व्यक्ति की अपनी रचनात्मक क्षमता को व्यक्त होने का पूरा अवसर मिलता है। ठीक उसी प्रकार आर्थिक प्रजातंत्र में भी व्यक्ति की क्षमता को कुचलकर रख देने का नहीं; अपितु उसको व्यक्त होने का पूरा अवसर प्रत्येक
अवस्था में मिलना चाहिए। राजनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को जिस प्रकार तानाशाही नष्ट करती है, उसी प्रकार अर्थनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को भारी पैमाने पर किया औद्योगीकीकरण नष्ट करता है। इसलिए तानाशाही की भांति ऐसा औद्योगीकीकरण भी वर्जनीय है।—पं. दीनदयाल उपाध्याय (कर्तृत्व एवं विचार)
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