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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कॉमरेड छात्र और शिक्षक अनिवार्य उपस्थिति की जरूरी शर्त का विरोध कर परिसर में अशांति का वातावरण कायम कर रहे। कहीं यह विरोध राजनीतिक पूर्वाग्रह या फिर देश के विभिन्न विवि परिसरों को अशांत करने का नया तरीका तो नहीं?
शान कश्यप
आप किसी कॉलेज और विश्वविद्यालय में नियमित छात्र के रूप में दाखिला लें। फिर अनिवार्य उपस्थिति का विरोध करें। उपस्थिति के पक्ष में तर्क देने वाले शिक्षकों से खुलेआम बदसलूकी करें। बिना किसी सुरक्षा घेरे वाली जगह में सौ लोगों की भीड़ इकट्ठी कर लें और फिर उसे ‘स्प्रिंग’ और ‘औक्युपाई’ मूवमेंट का नाम दें। ऐसी घटनाएं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ही संभव हैं। फरवरी, 2016 में जेएनयू परिसर में किए गए उपद्रव के बाद विवि. के वामपंथी छात्र इस बार अनिवार्य उपस्थिति का विरोध करने निकल आए हैं। दरअसल अभी तक जेएनयू कमोबेश ‘मुक्त विश्वविद्यालय’ की तरह कार्य कर रहा था, जहां कक्षा में छात्रों की उपस्थिति को लेकर नियम मौजूद नहीं थे। लेकिन जब वर्तमान जेएनयू प्रशासन ने इस तरफ कदम उठाते हुए अनिवार्य उपस्थिति के नियम को अधिसूचित किया तो इसे विवि के वामपंथी खेमे ने एक ‘षड्यंत्र’ करार दिया। यह खेमा उपस्थिति की ‘अनिवार्यता’ को विवि पर हमला बता रहा है। कक्षाएं नहीं चलने दी जा रही हैं। वामपंथी सदस्यों वाला छात्र संगठन छात्रों को कक्षाओं का बॉयकाट करने के लिए उकसा रहा है।
प्रतिरोध या षड्यंत्र
विवि. में अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर डॉ. धनञ्जय सिंह ने अनिवार्य उपस्थिति की जरूरत पर बल देते हुए एक समाचार पत्र में लेख लिखा। लेकिन यह मत वाम विचारधारा से अलग था सो विवि. के छात्रों ने सोशल मीडिया पर डॉ. सिंह के लिए अभद्रपूर्ण भाषा का प्रयोग किया। लेकिन इसमें ऐसे भी छात्र थे जो उनके विचार से सहमत थे। इस पूरे मामले पर डॉ. धनञ्जय सिंह कहते हैं,‘‘किसी भी समाज, विशेषकर विश्वविद्यालय में प्रतिरोध बहुत जरूरी है क्योंकि उससे विचारों का विकास होता है। लेकिन कक्षा में अनिवार्य उपस्थिति के मामले में विश्वविद्यालयों के कुछ छात्र और शिक्षक अपने स्वार्थ को साधने के लिए सर्कुलर का विरोध कर रहे हैं। यह प्रतिरोध नहीं, बल्कि कक्षा से अनुपस्थित रहने की पुरानी आदत को बचाए रखने की अविवेकी और व्यग्र प्रतिक्रिया है।’’ वे बताते हैं, ‘‘उच्च न्यायालय की अवज्ञा करते हुए विरोधी छात्र जिस तरह से परिसर के प्रशासनिक खंड में एकत्र हुए और वहां तोड़फोड़ की, वह दुखद है।’’ उल्लेखनीय है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने जेएनयू के प्रशासनिक भवन के सौ मीटर के घेरे में किसी भी जमावड़े पर रोक लगा दी थी। विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने विरोध प्रदर्शन कर रहे छात्रों को अधिसूचना जारी कर इस ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया।
- राजनीतिक बयानवाजी
अंग्रेजी विभाग के एक छात्र ने नाम न छापने की शर्त पर बताया,‘‘मेरे विभाग और कई और विभागों में भी कक्षा में आने अनिवार्यता प्रमुख विषय है। इसलिए कक्षा में न जाने की बात करने वालों का तर्क उचित नहीं है।’’ वे बताते हैं कि जेएनयू कई तरह के मंसूबों से लैस दिल्ली में रहने वाले छात्रों के लिए एक सस्ता रिहाइशी परिसर बन जाता है। कई छात्र कभी कक्षा में न जाकर सिविल सेवा की तैयारी या ‘एक्टिविज्म’ में लगे रहते हैं। भाषा स्कूल के ही पूर्व छात्र शांतनु भारद्वाज कहते हैं, ‘‘उपस्थिति की अनिवार्यता न होने की वजह से स्नातक में ‘फॉरेन लैंग्वेज’ के लिए आने वाले छात्र कक्षा में बहुत कम जाते हैं। वे सिर्फ परीक्षा देने और टर्म पेपर जमा करने जाते हैं। बाकी के समय वे क्या करते हैं, किसी को कुछ नहीं पता।’’ - अनिवार्यता’ से समस्या क्यों?
इस पूरे प्रकरण में जिस उपस्थिति की अनिवार्यता पर बखेड़ा खड़ा किया जा रहा है, उस पर विवि. के कुछ प्रोफेसरों का कहना है कि यह विवाद का कोई विषय है ही नहीं। प्राध्यापक मकरंद परांजपे उपस्थिति की शर्त को ‘अनिवार्यता’ न मानकर ‘आवश्यकता’ मानते हैं। उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा, ‘‘छात्र इस बात पर जरूर बहस कर सकते हंै कि कक्षा में उपस्थिति की सीमा 75 फीसद हो या 60 फीसद। लेकिन यह कहना कि कक्षा में उपस्थित न रहना उनका ‘अधिकार’ है, यह बिल्कुल उचित नहीं।’’ वे सवाल के लहजे में पूछते हैं,‘‘ अगर जेएनयू में प्रवेश पाने के लिए छात्र कड़ी मेहनत करते हैं, तो फिर प्रवेश पाने के बाद क्लास में आने में कैसी आपत्ति?’’
स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज की शोध छात्रा अनुपमा तिवारी के अनुसार, ‘‘उपस्थिति के नियमों में शोध छात्रों को शामिल करना ठीक नहीं है। उन्हें अध्ययन के अलावा अन्य कई काम करने होते हैं, जिसमें पार्ट-टाइम नौकरी भी शामिल है। साथ ही जिस तरह से यह नियम शोध छात्र को सुपरवाइजर के अधीन करता है, उससे कई छात्रों को राजनीतिक कारणों से सुपरवाइजर द्वारा उत्पन्न की जाने वाली अड़चनों का भी सामना करना पड़ेगा।’’
एक और छात्र पीयूष चन्दन भी इस तर्क का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार शोधार्थियों को इस नियम से बाहर रखना चाहिए था। उल्लेखनीय है कि अन्य डिग्री पाठ्यक्रमों के अलावा शोध पाठ्यक्रमों में भी 75 फीसद अनिवार्य उपस्थिति की शर्त लागू हो रही है। लेकिन इसका मतलब यह है कि इसमें 25 फीसद समय छोड़ा गया है। साथ ही दिन के दो से चार घंटे ही कक्षा के लिए हैं। शोधार्थियों के लिए उनके पाठ्यक्रम का काम बस एक साल के लिए होता है। इसमें 15 दिन का स्वास्थ्य अवकाश भी है। शोधार्थियों के लिए सेमिनार, सम्मेलन और ‘फील्ड ट्रिप’ के लिए ‘लीव आॅफ एब्सेंस’ की समुचित व्यवस्था है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब ऐसी व्यवस्था काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में कार्यान्वित है, तो फिर जेएनयू के शोधार्थियों को इसमें इतनी समस्या क्यों हो रही है?
ज्ञातव्य है कि देश के कई अन्य विश्वविद्यालयों में अनिवार्य उपस्थिति की आवश्यकता पहले से ही रेखांकित है। नियमित डिग्री कार्यक्रमों में यह तार्किक भी है। कक्षा में उपस्थिति ही उसे ‘मुक्त विश्वविद्यालय’ की व्यवस्था से अलग करती है। विवि. के छात्र रहे और वर्तमान में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक हितेंद्र पटेल कहते हैं, ‘‘जेएनयू में कभी भी अनिवार्य उपस्थिति नहीं रही। लेकिन जब यूजीसी के नियमों की बात हो तो कोई कारण नहीं कि यह जेएनयू में मान्य न हो।’’ वे बताते हैं, ‘‘कुछ लोग अनिवार्य उपस्थिति के मामले में नियंत्रण की गंध पा रहे हैं। इसलिए वे इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति को बाध्यता मानने के खिलाफ हूं। क्योंकि आज अधिकतर विश्वविद्यालयों में कक्षा में उपस्थिति का प्रतिशत तय है। ऐसे में जेएनयू में इसे लागू करने में क्या आपत्ति? अगर जेएनयू को इसमें विशेष छूट मिले तो इसका कोई आधार तो होना चाहिए। पूरे विवि. के छात्र भी अगर इस आदेश को मानने पर एकमत नहीं हैं तब भी यह प्रश्न अनुत्तरित रहेगा कि जेएनयू और अन्य किसी भी विश्वविद्यालय में यह अंतर क्यों रखा जाए?’’ - सकारात्मक पहल पर दें ध्यान
फरवरी, 2016 में विवि. में हुई घटना के बाद सोशल मीडिया पर जेएनयू को बंद कर देने की मुहिम चलाई गई थी। स्वाभाविक था कि आम लोगों में जेएनयू के छात्रों को लेकर बहुत रोष था। लेकिन इसके दूसरे पक्ष पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में महज कुछ सौ वामपंथी कार्यकर्ता और छात्र नहीं हैं। इस विवि. में लगभग सात हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं। ऐसे में बाकी के छात्रों की देशभक्ति पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। वे सभी सकारात्मक पहल में विश्वास रखते हैं। - एक फैसला, कई प्रतिक्रियाएं
कई लोग इस मसले को राजनीतिक चश्मे से न देखकर तथ्यपरक और विवि. के नियम के तहत देखने पर बल दे रहे हैं। डॉ. सविता झा खान विवि. की पूर्व छात्रा हैं। अभी वे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। वे इस मामले पर कहती हैं,‘‘जेएनयू में कक्षा और शिक्षण की संरचनाएं ऐसी रही हैं कि वहां कभी अनिवार्य उपस्थिति जैसी युक्ति की जरूरत नहीं पड़ी। यहां के शिक्षक और छात्र हमेशा कक्षा से परे पढ़ते-पढ़ाते रहे। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जेएनयू भी उच्च शिक्षा की एक वृहद् संरचना के अधीन है। अगर कोई नियम किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में लागू है तो वह जेएनयू में क्यों नहीं होना चहिये?’’ दूसरी ओर विवि. के छात्र संगठन इस मसले पर आर-पार की लड़ाई में सामने आते दिख रहे हैं। छात्रों को व्हाट्सएप से संदेश भेजे जा रहे हैं कि छात्र संगठन लगातार अनिवार्य उपस्थिति के फैसले को वापस लेने के लिए प्रशासन को मजबूर करेगा। हाल में ही 10 फरवरी को परिसर के गंगा ढाबे से एक मानव शृंखला बनाकर प्रशासन का विरोध किया गया। जेएनयू शिक्षक संघ ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि संघ उपस्थिति से सम्बंधित लागू किये गए नए नियमों में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को न अपनाये जाने पर विरोध जाहिर करता है। उपस्थिति के मुद्दे पर विरोध और अध्ययन के साथ-साथ चलने के लिए अध्यापक बाहर खुले में अध्यापन करवाएं तथा आवश्यकता पड़ने पर अवकाश के दिन भी पढ़ायें। शिक्षक संघ के सदस्यों ने अध्यापकों से इन कक्षाओं को आयोजित करने में सहयोग की अपील की है।
अजीब विरोधाभास है। एक तरफ शिक्षक संघ खुले में और अवकाश के दिन भी कक्षा लेने की हिमायत कर रहा है तो दूसरी ओर छात्रों के कक्षा में न जाने की वकालत भी कर रहा है। जबकि इस पूरे मामले पर जेएनयू प्रशासन की ओर से रजिस्ट्रार डॉ. प्रमोद कुमार का कहना है कि विवि. ने पिछले दिनों एक अपील जारी करके प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों के गैर-कानूनी तरीकों की भर्त्सना की है। उन्होंने कहा, ‘‘प्रशासनिक खंड में किसी भी प्रदर्शन पर उच्च न्यायालय ने रोक लगा रखी है। नियमानुसार परिसर में प्रदर्शन साबरमती छात्रावास के लॉन पर किया जा सकता है। साथ ही शोध छात्रों को यह याद रखना चाहिए कि यूजीसी के नियमों के अनुसार शोध छात्रों के लिए उपस्थिति पहले से ही अनिवार्य है। साथ ही शोधार्थियों के लिए सालाना 30 दिन के अवकाश का प्रावधान है तथा सभी अकादमिक गतिविधियों के लिए भी अवकाश की समुचित व्यवस्था लागू है। ऐसे में छात्र पहले ही अकादमिक कलैंडर का मूल्यवान समय गवां चुके हैं। वे कक्षा में वापस लौटें और छात्रों के बीच गलत सूचनाएं न दें। ’’ जेएनयू में उत्पात मचाने वाले अक्सर यह भूल जाते हैं कि उनकी फंडिंग विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से होती है और उसके नियमों को मानना जरूरी है। इसके बावजूद यूजीसी के नियमों को ताक पर रखकर छात्रों द्वारा विवि. के वातावरण को अशांत करना क्या दर्शाता है? यह देखने वाली बात होगी कि इस विवाद में छात्रों की विजय होती है या फिर विवि यूजीसी के बनाए नियमों पर कायम रहता है।‘‘परिषद लोकतांत्रिक ढंग से छात्रहित की लड़ाई लड़ रही’’
- जवाहर लाल नेहरू विवि. में अनिवार्य उपस्थिति के मद्दे पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, जेएनयू इकाई के अध्यक्ष विजय कुमार से पाञ्चजन्य की बातचीत के प्रमुख अंश:-
आप जेएनयू के अंदर माहौल बदलने की बात करते हैं तो वामपंथी छात्र संगठन माहौल बिगड़ने की बात करते हैं। अनिवार्य उपस्थिति के मुद्दे पर आप के और वामपंथी छात्र संगठनों के रुख में क्या अंतर है?
- देखिए, अगर इस मुदद्े पर अंतर की बात करें तो हम जो चाहते हैं, वे भी वही चाहते हैं। लेकिन हमारे और उनके विरोध का तरीका अलग-अलग है। उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को ताक पर रखकर प्रशासनिक भवन को घेराव किया। जबकि परिषद लोकतांत्रिक ढंग से जेएनयू प्रशासन के आगे छात्रों की मांगों को रखने का काम कर रही है। इस मुद्दे पर हम छात्रों की समस्याओं और उनके हित की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि वामपंथी खेमा हर बार की तरह इस मुद्दे को भी केन्द्र सरकार से जोड़कर अपनी राजनीति चमल्ल अनिवार्य उपस्थित को लेकर विवि. का माहौल खराब है। आपके अनुसार इसका हल क्या है?
मेरे अनुसार इस मुदद्े का हल यह है कि शोध छात्रों का सुपरवाइजर से महीने में 2-3 बार मिलना तय कर दें। अगर छात्र इस दौरान कुछ लापरवाही बरतता है तो आप उस पर तय प्रशासनिक कार्रवाई करें। दूसरा यह कि जिन छात्रों की उपस्थिति ज्यादा है, उनको कुछ अलग से नबंर देने का भी प्रावधान जेएनयू प्रशासन कर सकता है। इससे छात्रों में अनिवार्य उपस्थिति के प्रति आग्रह बढ़ेगा।
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