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बिहार के दूसरे सिंचाई आयोग की रिपोर्ट में 1971 से 1987 तक तटबंधों के बार-बार टूटने का उल्लेख नहीं है। बाढ़ पीड़ितों द्वारा पुनर्वास स्वीकारने से इनकार की बात का भी जिक्र नहीं है। रिपोर्ट में केवल एक बार 1991 में कोसी के तटबंध टूटने का उल्लेख है
दिनेश मिश्र
कुछ दिनों से कोसी नदी का सरकारी इतिहास पढ़ रहा था जिसे बिहार के दूसरे सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) में लिखा गया है। नदी पर तटबंधों और बराज निर्माण का काम 1963 में पूरा हुआ था। उसी साल जुलाई में नेपाल के डलवा गांव में कोसी का दाहिना तटबंध टूट गया था। इससे कोई खास नुकसान तो नहीं हुआ, मगर भारत सरकार को नेपाल में राहत कार्य चलाने पड़ गए थे। इस घटना के बारे में आयोग की रिपोर्ट में कोई चर्चा नहीं है। यह तटबंध 1968 में जमालपुर के पास दरभंगा में भी पांच जगहों पर टूटा था। इसके बारे में भी इस रिपोर्ट में कोई चर्चा नहीं है।
1971 में भटनिया के पास छतौनी, लक्ष्मीपुर, लालमनपट्टी, टेढ़ी बाजार, परसाही भटनिया, नरपतपट्टी, बजराही और रुपौली गांवों को घेरता हुआ एक रिंग बांध हुआ करता था जो उस साल टूट गया। इन गांवों के बाशिंदों को घर-द्वार छोड़ कर बाहर तटबंध के कंट्रीसाइड में बसना पड़ा। इन लोगों ने तटबंध के बाहर पुनर्वास लेने से मना कर दिया था और उनकी रक्षा के लिए सरकार को यह रिंग बांध बनाना पड़ा था। इस घटना का जिक्र भी रिपोर्ट में नहीं है।
इसी तरह 1980 में 121-122 किलोमीटर के बीच कोसी का पूर्वी तटबंध बहुअरवा गांव के पास टूट गया था और इस पर भी आयोग की रिपोर्ट मौन है। यहां तक कि 1984 में सहरसा जिले के नवहट्टा के पास हेमपुर गांव में जो तटबंध टूटा और जिस दरार की वजह से लगभग साढ़े चार लाख लोग बेघर हो गए थे और उन्हें सितंबर 1984 से 1985 की मई तक खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजारनी पड़ी थी। इस पर भी आयोग की रिपोर्ट में कोई चर्चा नहीं है। 1987 में गंडौल और समानी के पास सहरसा के महिषी प्रखंड में कोसी का पश्चिमी तटबंध एक बार फिर टूटा, इस पर आयोग की रिपोर्ट खामोशी अख्तियार कर लेती है। रिपोर्ट केवल एक बार 1991 में कोसी तटबंध टूटने की बात स्वीकार करती है। तब कोसी तटबंध नेपाल में जोगिनिया के पास टूटा था। रिपोर्ट कहती है कि तटबंध टूटने की वजह से पानी बाहर नहीं गया, मगर तटबंध की मरम्मत पर जो करोड़ों रुपये खर्च हुए थे, वह तो बताना चाहिए था। तटबंधों का टूटना बड़ी घटना होती है। उस पर इस तरह परदा डालना इंजीनियरों की अगली पीढ़ी को गुमराह करने जैसा है, क्योंकि जब इसे दबा दिया जाता है तो उसके कारणों पर भी परदा पड़ जाता है। चार वर्ष तक इंजीनियरों की टीम के अथक परिश्रम के बाद बनी सात खंडों की रिपोर्ट की यदि यह हालत है तो विभाग की बाकी रिपोर्ट की विश्वसनीयता क्या होगी? इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
निकासी का महत्व सरकार की समझ में आया
कल (9 जनवरी, 2018) के अखबार में खबर थी कि बिहार सरकार अब उन सारी सड़कों में बाढ़ के कारण पड़ी दरारों को पाटने के बजाय वहां पुल बनाने का कार्यक्रम हाथ में लेगी। देर आयद, दुरुस्त आयद। दरअसल, वर्षा के पानी की निकासी अंग्रेजों के जमाने से ही बहस का मुद्दा रही है, जिस पर आज तक किसी ने ध्यान नहीं दिया। किसी भी किसान से पूछिए तो वह यही कहता है कि पहले पानी आता था और चला जाता था। अब आता है मगर जाता नहीं है। पानी की निकासी को लेकर विधानसभा में कितनी बार सरकार की लानत-मलामत हुई और दशकों से हुई, पर कौन सुनता है? इसलिए अगर यह काम शुरू होता है तो प्रशंसनीय है।
सवाल यह उठता है कि इसका आधार वर्ष क्या होगा? यह इसलिए जानना जरूरी है, क्योंकि सरकार ने न जाने कितनी बार हुंकार भरी होगी कि वह बाढ़ में बर्बाद हुए घरों को बनाने के लिए पूरी मदद करेगी। यह बात 1987 में भी कही गई थी, जब लगभग 17 लाख घर बाढ़ में नष्ट हुए थे और उन्हें फिर से बनाना सरकार के लिए नामुमकिन था। मगर बचने की दरिद्रता! मिथिला में कहावत है, ‘बाते क लरू त छोट किया करू?’यानी जब बातों के लड्डू ही परोसने हैं तो छोटे क्यों? हमारा सुझाव है कि 2007 को आधार वर्ष मानिए और उन 1353 पुलों से काम शुरू कीजिए, जो उस साल की बाढ़ में काम आए थे। ग्रामीण सड़कों पर टूटे 829 पुलों की भी चिंता जरूर कीजिए जो उस साल बह गए थे। परेशानी बस इतनी है कि पिछले 11 वर्ष में तटबंधों को ऊंचा और मजबूत करके तथा सारी दरारों को मजबूती से पाट कर पानी की निकासी को रोकने का ही काम हुआ है।
अब उसे नकारने का समय आया है और पानी की निकासी सुधारने का दावा तो कर ही दिया गया है। आगे- आगे देखिए, होता है क्या?
(फेसबुक वॉल से)
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