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आज दुनिया भर के मुसलमानों को आत्म-चिंतन करने की जरूरत है कि वे कब तक उन्हें अज्ञानी बनाए रखने पर आमादा देवबंदी तालीम के शिंकजे में फंसे रहेंगे? वे चाहें तो बाकी दुनिया के साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा लेकर तरक्की की राह पर आगे बढ़ सकत े हैं
शंकर शरण
पिछले महीने पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख जनरल कमर बाजवा ने कहा कि पाकिस्तान के लोगों को मदरसों की शिक्षा से बाहर निकलकर आगे देखना चाहिए वरना उनका कोई भविष्य नहीं है। नोट करने की बात यह है कि जनरल बाजवा ने ऐसा क्वेटा में मानव संसाधन विकास पर हुए एक सेमिनार में कहा। अर्थात्, उनकी बातें कोई हल्की टिप्पणी नहीं, बल्कि बाकायदा सोचकर रखा गया गंभीर मंतव्य थीं।
गैर-अरब मुस्लिमों को अपने दिलो-दिमाग में अपनी पारंपरिक देसी संस्कृति और उनके ऊपर थोपे गए इस्लामी विश्वासों के बीच संघर्ष झेलना पड़ता है। उन्हें अपनी पारंपरिक भूमि, अपने पुरखों की सभ्यता से मानो अपहृत और कैद कर लिया गया होता है।
—वी. एस. नायपॉल, नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार
बाजवा के अनुसार, अधिकांश मदरसों में जो सीख दी जाती है, उससे पढ़ने वाले बच्चे और युवा आगे चलकर ‘या तो मौलवी बनेंगे या आतंकवादी’। निस्संदेह, केवल इन्हीं दो विकल्पों के उल्लेख का मतलब यह है कि बाजवा के अनुसार आम मदरसों की शिक्षा से मुस्लिम लड़कों का कुछ और विशेष बन पाना अंसभव-सा है। उन्हें जो मजहबी तालीम दी जाती है, उससे वे दुनिया के मुकाबले काफी पीछे रह जाते हैं। उन्हें कोई व्यावहारिक काम नहीं मिल सकता। अत: वे मौलवी बनकर वही मजहबी बातें दोहराने के सिवा कुछ करने लायक नहीं होते। वस्तुत: बाजवा के बयान में कोई एकदम नई बात नहीं है। बल्कि, यदि ऐसे सभी तथ्यों को इकट्ठे कर उन पर विचार करें, तो मुस्लिम समाजों की बुनियादी समस्या के कारण को समझा जा सकता है। वह समस्या है-तंगनजरी, बंददिमागी और घोर अज्ञान। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसी पर उंगली रखते हुए बहुत पहले इस्लाम को ‘क्लोज कॉर्पोरेशन’ यानी ‘बंद निकाय’ की संज्ञा दी थी, कि मुस्लिम लोग मजहबी समझ के सिवा किसी समझ को महत्व नहीं देते। दूसरे शब्दों में, वे स्वयं कूढ़मगजी में बंद हैं।
वस्तुत: जनरल बाजवा ने उस जहालत से निकलने की ही चेतावनी दी है जो मदरसों की मध्युयगीन तालीम से पाकिस्तान, अफगानिस्तान को गत दो पीढ़ियों से बर्बाद कर रही है और बेपनाह संकीर्णता, अज्ञान और हिंसा में डुबो रही है। यह केवल पाकिस्तानी मदरसों की समस्या नहीं, पूरे मुस्लिम विश्व के अच्छे-खासे हिस्से की समस्या है। विभिन्न देशों में करोड़ों मुस्लिम बच्चे मजहबी तालीम के बहाने 1,400 वर्ष पुराने कुछ विशेष दावों, मांगों, निर्देशों, आदेशों और कायदों को पढ़ते-रटते रहते हैं। उसी में बंद होकर अनेक मुस्लिम किशोर और युवा अंधविश्वासी, जिद्दी और मगरूर अहंकारी हो जाते हैं और अपनी सीमित इस्लामी किताबों से बाहर की हर चीज और बात को ‘कुफ्र’, ‘शैतानी’ और ‘काफिरी’ कहकर नाराज होते रहते हैं। तो असली जाहीलियत कहां है? कुछ वक्त पहले एक अमेरिकी आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि पाकिस्तानी मदरसों और सरकारी स्कूलों में भी गैर-मुस्लिमों के बारे में झूठी, विषैली बातें पढ़ाई जाती हैं। सरकारी पाठ्य-पुस्तकें भी गहरी इस्लामी रंगत लिए होती हैं। उनमें विशेषकर हिन्दुओं के प्रति गंदी, अपमानजनक बातें लिखी होती हैं। इससे वहां गैर-मुस्लिमों के प्रति हिंसा और भेदभाव की घटनाएं बढ़ती हैं। वही असहिष्णुता और हिंसा फिर मुसलमानों के विभिन्न फिरकों के बीच भी अपना असर दिखाती है।
इसीलिए, बाजवा की तरह, समय-समय पर कई बार पाकिस्तानी नेताओं, मंत्रियों ने भी माना है कि वहां की शिक्षा में बदलाव करना जरूरी है। कुछ वर्ष पहले खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के शिक्षा मंत्री सरदार हुसैन ने कहा था कि पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या बदले जाने की सख्त जरूरत है। 15 वर्ष पहले खुद तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ और उनके मंत्री मसूद अहमद गाजी ने ऐसे 10,000 मदरसों पर कार्रवाई की बात की थी जो घृणा, हिंसा और आतंकवाद फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं। यदि फिर भी पाकिस्तान में आज भी वही समस्या बनी हुई है, तो समझें कि वह कितनी गहरी है।
अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आने के बाद से पाकिस्तान का देवबंदी विचारधारा वाला हक्कानिया मदरसा बड़ा प्रसिद्ध हो गया था। वहीं से निकले तालिबानों (छात्रों) ने अफगानिस्तानी सत्ता पर कब्जा किया था। तब उसे लेकर यूरोप, अमेरिका में बड़ी उत्सुकता फैली थी। बड़े-बड़े पत्रकार वहां गए और विस्तृत रिपोर्टें लिखीं। उन्होंने पाया कि हक्कानिया में बहुत कम छात्र हैं जो इस्लामी विषयों के सिवा कुछ और पढ़ते हों। वहां विश्व इतिहास या गणित का कोई पाठ्यक्रम नहीं है, न कोई विज्ञान प्रयोगशाला या कंप्यूटर के कमरे। इसीलिए, उससे निकलने वाले छात्र वही बनते हैं, जिसका उल्लेख बाजवा ने किया—मौलवी या आतंकवादी। इसीलिए, हक्कानिया मदरसे को एक ‘जिहाद कारखाने’ की संज्ञा मिली थी।
हक्कानिया ने केवल अपने आकार के लिए ध्यान नहीं खींचा था, बल्कि इसलिए भी कि वहां से बड़े कुख्यात तालिबान और आतंकी निकले हैं। इतनी संख्या में, जितने वे दुनिया के किसी स्कूल, यहां तक कि अफगानिस्तान के भी किसी स्कूल से नहीं निकले। तालिबान दुनियाभर में इस्लामी कानून की कठोर व्याख्या, स्त्रियों के प्रति क्रूरता और जिहादी आतंकवाद के प्रति दुराग्रह के लिए जाने जाते हैं। उन्हें अंतहीन जिहाद की अवधारणा में गहरा विश्वास है।
वे दुनिया को काले और सफेद में बंटी देखते हैं, जिसमें इस्लाम अकेले दुनिया के सारे काफिरों के विरुद्ध खड़ा है। इन काफिरों में ईसाई, यहूदी और विशेषकर हिन्दू शामिल हैं। अनेक पाकिस्तानियों की तरह वहां के मौलवी अध्यापकों को पक्का विश्वास है कि अमेरिका की नीतियां एक यहूदी-हिन्दू षड्यंत्र से निर्देशित हो रही हैं।
पाकिस्तान में इस बात का इतना प्रचार किया गया है कि कट्टर इस्लामपंथियों से सहानुभूति रखने वाले पाकिस्तानी खुफिया सेवा के एक पूर्व-प्रमुख हामिद गुल ने एक अमेरिकी पत्रकार जेफरी गोल्डबर्ग को कहा था कि इस्रायल समर्थक लॉबी ही पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी नीति का निर्धारण करती है। भारत के ब्राह्मणों का उल्लेख करते हुए गुल ने यह भी कहा था कि ‘यहूदियों और ब्राह्मणों में बहुत कुछ समान है।’ जब पत्रकार ने पूछा, ‘जैसे?’ तो उसने शाइलॉक की तरह हाथ मलते हुए उत्तर दिया, ‘सूदखोरी’। कल्पना कीजिए, ब्राह्मणों को सूदखोर कहने वाली सीख पाकिस्तान के सर्वोच्च शासकीय स्तर तक पहुंची हुई है! पाकिस्तान में कोई 10,000 मदरसों में लगभग दस लाख छात्र पढ़ रहे हैं जहां उग्रवादी इस्लाम ही मुख्य विषय है। कुछ उन मुजाहिदीन संगठनों द्वारा चलाए जा रहे हैं जो कश्मीर में भारत के विरुद्ध जिहाद छेड़े हुए हैं।
हक्कानिया की तरह कराची का बिनौरी मदरसा भी देवबंदी विचारधारा की पैदाइश है, जो उतना ही कुख्यात हुआ। याद रहे, मूल देवबंदी मदरसा ‘दार-उल-उलूम’ उत्तर प्रदेश में है, दिल्ली से केवल डेढ़ सौ किलोमीटर दूर। इस मदरसे के भारतीय मुस्लिम छात्र भी बुद्ध प्रतिमाएं तोड़ने वाले, औरतों पर जुल्म ढाने वाले, संगीत-कला को पूरी तरह आपराधिक कार्य बताने वाले मूढ़, क्रूर तालिबान को गर्व से अपना हमराह मानते रहे हैं। यानी, जहां-जहां ऐसे मदरसे, वहां-वहां जहालत का वही हाल देखा जा सकता है! इसलिए, बाजवा की चेतावनी पर भारतीय मुसलमानों को भी ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए। विशेषकर उन धारणाओं पर जो ऐसे मदरसों की बुनियादी बातें सीख रही हैं। उन सीखों से जिहादी आतंकवाद तक पहुंचना बस कुछ ही कदम दूर रह जाता है। तो वे कौन-सी शिक्षाएं और विश्वास हैं जो उन्हें निर्दोष इनसानों की क्रूर हत्या करने को उचित समझना सिखाते हैं?
एक अर्थ में उनका दर्शन ईसाई मिशनरी कन्वर्जन करने वालों और माओवादी उग्रपंथियों जैसा ही रहा है। संक्षेप में, वैसे मदरसों के मौलवियों और छात्रों के विश्वास कुछ इस प्रकार हैं-1. इस दुनिया का सत्य एकदम सरल है; 2. वह सत्य एक ही व्यक्ति, पैगम्बर मुहम्मद को मिला था; 3. उस सत्य को एक ही किताब, कुरान में जमा कर दिया गया; 4. उसका एक-एक शब्द पत्थर की लकीर है; 5. उस पर संदेह करने वाला शैतान (या यहूदी, हिन्दू, आदि) का एजेंट है; 6. उसमें लिखी बातों के सिवा सब बातें बेकार हैं; 7. उस किताब को समझना बड़ा कठिन है; 8. इसलिए मुसलमानों को उलेमा की मदद लेना जरूरी है; 9. जब उन बातों को दुनिया में सब स्वीकार कर लेंगे तो पूरा अमन-चैन हो जाएगा; 10. पर जब तक उसे सभी नहीं मानते तो झगड़ा बना रहेगा; 11.अत: तमाम मुसलमानों का कर्तव्य है कि दुनिया को मुसलमान बनाएं; 12. इन बातों की सच्चाई इतनी पक्की है कि जो इन्हें नहीं मानता वह शैतान या काफिरों का एजेंट है; 13. वैसे लोगों को रास्ते से हटाना जरूरी है, क्योंकि वे अमन की राह का रोड़ा हैं; 14. इसलिए इस महान लक्ष्य के लिए जो भी संभव हो, करना चाहिए।
मोटे तौर पर, यही बातें मदरसों की सीख की बुनियाद हैं, जिन्हें आत्मसात कर लेने वाले या तो यही सब दोहराने, सिखाने वाले मौलवी बन सकते हैं या फिर आतंकवादी जो इन्हीं बातों को थोपने के लिए मंसूबे, षड्यंत्र और खून-खराबे में लग सकते हैं। इसका प्रमाण यह है कि तमाम जिहादियों, आतंकवादियों, इस्लामिक स्टेट के मुरीदों की मानसिकता का अध्ययन करने पर लगभग कुल यही चौदह मूल अंधविश्वास मिलेंगे। उनकी अन्य बातें भी इन्हीं की व्युत्पत्ति हैं। सोचें, यह सब ज्ञान है या अज्ञान?
ऐसी विचित्र आस्था, अंधविश्वास या जहालत के बिना मासूम, निर्दोष लोगों की हत्या करना, उनका समर्थन, उस पर फख्र करना और करते रहना बिल्कुल असंभव है। कच्ची उम्र के लड़कों को कुछ झूठे-सच्चे, अतिरंजित तथ्यों के साथ ऐसे दैवी उद्देश्यों का पाठ पढ़ाकर ही समर्पित आतंकवादियों में बदला जा सकता है। उन्हें प्रशिक्षित करने वाले मदरसों के पाठ्यक्रम, आतंकवादियों की घोषणाओं, मुहावरों, पकड़े गए या मृत आतंकवादियों की डायरियों, पत्रों, संदेशों से इसे सैकड़ों बार देखा जा चुका है।
अत: अधिकांश मदरसों की शिक्षा की सीमाएं सिद्धांत और व्यवहार दोनों में देखी जा चुकी हैं। उन पर विवेकशील मुसलमानों को खुद सोचना चाहिए। यह ठीक है कि ऐसा करने में उन्हें काफी क्लेश होता है। आत्मसंघर्ष करना पड़ता है। किन्तु वे इससे बचकर कितने दिन रहेंगे?
प्रसिद्ध लेखक वी. एस. नायपॉल ने कहा था कि गैर-अरब मुस्लिमों को अपने दिलो-दिमाग में अपनी पारंपरिक देसी संस्कृति और उनके ऊपर थोपे गए इस्लामी विश्वासों के बीच संघर्ष झेलना पड़ता है। उन्हें अपनी पारंपरिक भूमि, अपने पुरखों की सभ्यता से मानो अपहृत और कैद कर लिया गया होता है। हालांकि यह बात स्वयं अरब मुस्लिमों के लिए भी उतनी ही सच है। मुहम्मद के पैगम्बर होने के दावे से पहले अरब की भी एक बहु-विध, समृद्ध संस्कृति थी। आखिर, अभी-अभी सऊदी युवराज सलमान ने ही कहा है कि उस जमाने में अरब में स्त्री न्यायाधीश भी हुआ करती थी। इस संकेत से भी इस्लाम से पहले का अरब अज्ञानी की बजाय उन्नत दिखाई पड़ता है। तब की तुलना में अरब समाज की क्रमश: सांस्कृतिक गिरावट स्पष्ट दिखती है। शायद इसी को छिपाने के लिए सपाट घोषणा की जाती है कि इस्लाम से पहले जो भी था, अज्ञान से भरा था। किन्तु सचाई इसके उलट है। इसकी परख के लिए इस्लाम-पूर्व अरब की सांस्कृतिक विशेषताओं, मूल्यों की तुलना उन विशेषताओं, मूल्यों से करनी चाहिए जो इस्लाम ने उन पर बलपूर्वक लादीं। तब पता चलेगा कि असली अज्ञानता कहां है, उसकी पहचान कैसे होनी चाहिए।
इसके लिए मुसलमानों को अपने विवेक से संपूर्ण सिद्धांत, इतिहास और हालात पर सोचना चाहिए। अपने विचारों, विश्वासों, रिवाजों पर एक चिन्तनशील, मानवीय दृष्टि डालकर उसकी विवेचना करनी चाहिए। इस्लाम ने अपने अनुयायियों को या मानवता को आज तक क्या दिया और क्या छीना है। उसकी कुल उपलब्धि क्या रही है, व्यक्ति और समाज के लिए। साथ ही, अन्य पंथ-परंपराओं, ज्ञान-भंडार और सभ्यता-संस्कृति की तुलना में उसकी उपलब्धियां कहां ठहरती हैं। यह विवेचन मुसलमानों को स्वयं करना होगा। कोई दूसरा उनके लिए यह नहीं कर सकता।
इस पृष्ठभूमि में बाजवा की बातों को वास्तविक गंभीर अर्थ को समझा जा सकता है। मदरसों की शिक्षा इस्लाम-केंद्रित है। जबकि मुस्लिम बच्चों का संकीर्ण मदरसों से बाहर संपूर्ण दुनिया में उपलब्ध महान पुस्तकों, विचारों, ज्ञान-भंडार से परिचय होना चाहिए। पाकिस्तान, अफगानिस्तान में चाहे इसमें विविध कठिनाई हो, लेकिन भारत जैसे देश में तो ऐसा करना आसान है। क्या यहां के मुस्लिम ये सारी बातें नहीं समझ सकते? केवल मदरसों की इस्लामी तालीम तक सीमित रहने वाले तालिबान कितने योग्य बनते हैं, क्या सोचते हैं, क्या करते हैं, क्या देते हैं; तथा सारी दुनिया के विशाल ज्ञान-भंडार से सीखने-पढ़ने वाले मुस्लिम कितने योग्य बनते हैं, इसकी तुलना तो मुसलमानों को करनी ही होगी। तभी वे आगे का मार्ग ढूंढ सकते हैं।
उन्हें इस कार्य के लिए प्रेरित करना और सहायता देनी चाहिए। आखिर पाकिस्तान भारत का ही वह भाग है जो एकछत्र इस्लामी शासन चलाने के लिए ही अलग हुआ था। उस का जो कुफल हुआ, उसी की झलक पूरी दुनिया को गत तीन दशक से लगातार मिल रही है। आखिर, प्रकारांतर से जनरल बाजवा उसी पर माथापच्ची करने और सोचने के लिए कह रहे हैं। अत: उनकी चेतावनी केवल पाकिस्तानी मुसलमान ही नहीं, उन भारतीय मुसलमानों पर भी स्वत: लागू होती है जो सच्चे ज्ञान, विज्ञान और भारत तथा दुनिया के अनमोल साहित्य भंडार के बजाए मदरसों की शिक्षा को ही प्रमुखता देते हैं। ऐसा मानने वालों को दिगभ्रमित समझते हुए उन्हें उस शिक्षा से जोड़ने में मदद करनी चाहिए जो भारतीय ज्ञान-परंपरा से लेकर आॅक्सफोर्ड, म्यूनिख और हार्वर्ड तक प्रतिष्ठित रही है। तभी उन मूल्यों के प्रति मुस्लिम बच्चों, युवाओं में गंभीरता आएगी जिनके प्रति उन्हें हिकारत रखना सिखाया जाता है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि यदि मुसलमानों को केवल मौलवी और आतंकवादी बनने के विकल्प से निकलना है तो उन्हें इस्लामी दायरे से बाहर स्वतंत्र चिंतन की ओर उन्मुख होना होगा। इसके बिना उन का कोई भविष्य नहीं है। यह हितैषी बातें हैं, जिन्हें उनको पूर्वाग्रह रहित होकर जांचना-परखना होगा।
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