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सामयिक मुद्दों पर मीडिया के रुख और रुखाई की परतें ख्ांगालता यह स्तंभ समर्पित है विश्व के पहले पत्रकार कहे जाने वाले देवर्षि नारद के नाम। मीडिया में वरिष्ठ पदों पर बैठे, भीतर तक की खबर रखने वाले पत्रकार इस स्तंभ के लिए अज्ञात रहकर योगदान करते हैं और इसके बदले उन्हें किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया जाता।
सांप्रदायिक उन्माद की खबरों पर चटखारे लेने वाले मीडिया का सचाई से मुंह चुराना खतरनाकसीरिया और इराक जैसे देशों से लोगों को गला काटकर मारने की तस्वीरें आती हैं तो मीडिया उन्हें खूब दिखाता है। इससे उसे टीआरपी मिलती है। लेकिन जब वैसा ही अपने ही देश की राजधानी में हुआ तो सबको सांप सूंघ गया। एक मुसलमान लड़की से शादी करने जा रहे युवक अंकित सक्सेना को जिहादी तरीके से कत्ल करने की खबर पर मीडिया का शुतुरमुर्गी चरित्र सामने आ गया। पूरा तंत्र इसे सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए हत्या यानी आॅनर किलिंग साबित करने में जुट गया। न हत्या के तरीके की बात, न हत्यारे की पहचान का जिक्र। इंडियन एक्सप्रेस और एनडीटीवी, जो ऐसे ही दूसरे मामलों में मरने वाले का मजहब बताना नहीं भूलते, उनको भी अचानक पत्रकारिता के ‘मूलभूत नियम’ याद आने लगे। यह सही है कि सांप्रदायिक उन्माद वाली खबरों को दिखाने और छापने में सावधानी बरतनी चाहिए, लेकिन इसे लेकर क्या दोहरे रवैये की छूट दी जा सकती है?
एक हफ्ते पहले ऐसा ही कुछ कासगंज के मामले में हुआ। इस हत्याकांड पर भी मीडिया का दोहरा चरित्र कुछ और खुलकर सामने आया। पड़ोसी जिले के एक अधिकारी की फेसबुक पोस्ट को कुछ चैनलों और अखबारों ने ऐसे छापा मानो वह इस घटना पर बोलने के लिए अधिकृत हो। राज्य सरकार और कासगंज का जिला प्रशासन झूठ बोल रहा है। एक सरकारी अधिकारी की राजनीतिक बयानबाजी को अभिव्यक्ति की आजादी का नाम दिया गया। इसके बाद जब उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (होमगार्ड्स) का एक वीडियो सामने आया जिसमें वे राम मंदिर के लिए शपथ ले रहे हैं तो उसी मीडिया को मिर्ची लग गई। सारे चैनलों ने अधूरा वीडियो दिखाया। वह हिस्सा हटा दिया जिसमें यह बात है कि राम मंदिर का निर्माण कानून के दायरे में रहते हुए हो। मीडिया का यह रवैया हिंदू-मुसलमान जैसे मामलों में ही नहीं, बल्कि हर उस मामले में है जिनमें उससे निष्पक्ष रहने की उम्मीद की जाती है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस विधायक पर एक महिला पत्रकार ने बलात्कार का आरोप लगाया। स्थानीय मीडिया को छोड़ दें तो दिल्ली के चैनलों और अखबारों ने इस खबर को पूरी तरह दबा दिया। अब जरा याद करे चंडीगढ़ में कथित छेड़खानी के उस मामले को, जिसमें प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के बेटे का नाम आया था। तब मीडिया ने आरोपियों से ज्यादा प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री पर सवाल दागे थे।
बीते हफ्ते ही सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवाल से पता चला कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में छह महीने में 433 नवजात शिशुओं की मौत हो चुकी है। सवाल यह कि दिल्ली के मीडिया को पता क्यों नहीं चला? यहां के ज्यादातर अखबार और चैनल विज्ञापनों और निजी लाभ के लालच में अरविंद केजरीवाल के स्तुतिगान में जुटे रहते हैं। सोचिए, गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज की घटना को तूल देने वाला मीडिया दिल्ली के अस्पतालों में मौत पर चुप्पी क्यों साध लेता है?
बजट में किसानों और गरीबों के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की गई तो कई चैनलों और अखबारों ने उसे ‘मध्यम वर्ग विरोधी’ घोषित कर दिया। दरअसल ये मुख्यधारा मीडिया के अभिजात्यवादी चरित्र की निशानी है। गरीबों और किसानों की बातें खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिए की जाती हैं, लेकिन जब उनके हित के लिए कुछ किया जाता है तो भ्रम पैदा करने की कोशिश शुरू हो जाती है। मीडिया ने ऐसा माहौल बनाया मानो आयकर में दो-चार प्रतिशत कटौती हो जाती तो मध्य वर्ग का कल्याण हो जाता। यही वह खैराती मानसिकता है जिसके कारण मीडिया यह साबित करने की कोशिश करता है कि स्वरोजगार का कोई महत्व नहीं है। कांग्रेस के साथ-साथ कई चैनलों और अखबारों ने पकौड़ों के नाम पर छोटा-मोटा काम करके स्वाभिमान के साथ अपने परिवार का भरण-पोषण करने वाले देश के करोड़ों लोगों को अपमानित करने की कोशिश की। गरीबों को स्वास्थ्य बीमा के लिए आयुष्मान भारत घोषणा को लेकर ज्यादातर भ्रम मीडिया के जरिए फैलाए गए। कांग्रेस ने बिना किसी तथ्य के राफेल लड़ाकू विमान सौदे में भ्रष्टाचार का आरोप लगाया तो इंडिया टुडे चैनल ने बहस शुरू कर दी। वह भी तब जब रक्षा मंत्रालय सिलसिलेवार ढंग से सच्चाई सामने ला चुका है। हथियार सौदों में संलिप्तता के तमाम मामलों में गांधी परिवार का नाम तक लेने में डरने वाले मीडिया का यह रूप देखने लायक है जब वह बिना तथ्य और बिना संकोच बार-बार प्रधानमंत्री मोदी का नाम ले रहा है।
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