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खुशहाली का खाका
नरेंद्र मोदी सरकार ने आम बजट 2018-19 में गांव, गरीब और किसानों पर खास जोर दिया है। देश की अर्थव्यवस्था का आधार मानी जाने वाली ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जोर देकर सरकार ने यह जता दिया है कि तमाम चुनौतियों के बावजूद उसकी प्राथमिकता में लोकलुभावन योजनाएं नहीं, बल्कि देश के अर्थ तंत्र को मजबूती प्रदान कर उसे दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार करना है। पहली बार बजट में एक करोड़ परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने का संकल्प लिया गया है। 10 करोड़ गरीब परिवारों यानी 50 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के दायरे में लाना भी खुशहाली की दिशा में एक बड़ा कदम है
आलोक पुराणिक
बजट 2018-19 आने के बाद शेयर बाजार की सेहत भले कुछ पल के लिए डगमगाई हो, पर इसके पीछे कारण मात्र यह है कि यह ‘कॉरपोरेट फ्रेंडली’ या शेयर बाजार मित्र नहीं हैं। यह बजट ‘सूट-बूट वालों का बजट’ है, यह आरोप इस बजट पर किसी ने नहीं लगाया। यानी बजट की दिशा कुछ और है।
राजकोषीय घाटे का लक्ष्य (2019)3.3%
2017 में राजकोषीय घाटे का अनुमान जीडीपी का 3.2% था, पर यह गिरकर 3.5% पहुंचा
राजस्व उगाही
0.5% 2018 में बेहतरी की उम्मीद
5.97लाख करोड़
बुनियादी ढांचे के लिए आवंटित
1लाख करोड़
की रकम विनिवेश के
जरिए जुटाई गई, जबकि लक्ष्य 72,500 करोड़ का था
किसान प्रिय सरकार
बजट में घोषणा की गई कि किसानों को उनकी फसलों की लागत का डेढ़ गुना देने का इंतजाम किया जायेगा। समर्थन मूल्य की शक्ल में यानी फसलों की उपज का समर्थन मूल्य उनकी लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा होगा। इस घोषणा के लिए बजट की जरूरत नहीं थी, पर समझने की बात यह है कि सिर्फ समर्थन मूल्य का मसला नहीं है। समर्थन मूल्य की घोषणा के बाद भी किसानों को अपनी फसलें समर्थन मूल्य से कम में बेचनी पड़ती हैं। इस स्थिति के निराकरण के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने एक और योजना शुरू की है- भावांतर योजना। यानी अगर बाजार मूल्य समर्थन मूल्य से कम होता है, तो उस अंतर की भरपाई मध्य प्रदेश सरकार करती है। समर्थन मूल्य के ऊंचे होने भर से हल नहीं निकलता, इसके लिए भावांतर जैसी योजना भी राज्य सरकारों को लानी होगी। केंद्र की इस बजट घोषणा के बाद सरकार यह बात आसानी से कह सकती है कि यह किसान-प्रिय सरकार है।
हाल में आये आर्थिक सर्वेक्षण में साफ किया गया था कि खेती का विकास साल में बमुश्किल दो प्रतिशत हो रहा है और दूसरी तरफ शेयर बाजार में सेंसेक्स एक साल में 20 प्रतिशत से ऊपर चला गया। मतलब गिरी हुई हालत में भी यानी 6 फरवरी, 2018 को जब सेंसेक्स हाहाकारी तरीके से गिरकर 34,195.94 अंक पर बंद हुआ था, तब भी इसके रिटर्न एक साल में 20 प्रतिशत से ऊपर बैठ रहे थे। साल में 20 प्रतिशत विकास तो हाल के सालों में खेती का भी नहीं हुआ। करीब दो प्रतिशत की विकास दर खेती में होगी 2017-18 में, ऐसा अनुमान आर्थिक सर्वेक्षण में लगाया गया है। खेती साल में दो प्रतिशत की दर से विकास करे और शेयर बाजार 20 प्रतिशत की दर से, यह बात ठीक नहीं है। न यह अर्थव्यवस्था के लिए ठीक है और न शेयर बाजार के लिए। यह लोकतंत्र के हित में नहीं है। इससे यह संदेश जाता है कि कोई तो बहुत ज्यादा कमा रहा है और कोई बिल्कुल भी नहीं कमा पा रहा है। स्टॉक बाजार की एकाएक गिरावट का मतलब यह नहीं है कि सब डूब गया है। शेयर बाजार कृत्रिम तौर पर ऊपर जा रहे हैं, ऐसी चेतावनी पहले भी लगातार दी जाती रही थी।
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के पहले खंड के बॉक्स नौ में भारतीय और अमेरिकी शेयर बाजारों की चढ़ाई की तुलना की गई है। सर्वेक्षण बताता है कि दिसंबर 2015 के मुकाबले अमेरिका का ‘स्टैंडर्ड एंड पुअर इंडेक्स’ 45 प्रतिशत ऊपर जा चुका है और भारतीय सेंसेक्स 46 प्रतिशत ऊपर जा चुका है। आर्थिक सर्वेक्षण चिह्नित करता है कि इस अवधि में अमेरिका की अर्थव्यवस्था की विकास दर ऊपर गई, जबकि भारत की विकास दर नीचे आई। भारत में कंपनियों का कमाई अनुपात सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले लगातार कम हुआ है। अभी यह सिर्फ 3.5 प्रतिशत है, यानी सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के हिसाब से कॉरपोरेट सेक्टर सिर्फ 3.5 प्रतिशत कमा रहा है। अमेरिका में यह 9 प्रतिशत है। अमेरिका में ब्याज की दरें भारत में ब्याज की दरों के मुकाबले कम हैं। सर्वेक्षण का आशय यह था कि इस जबरदस्त तेजी पर सतर्क रहने की जरूरत है। सेंसेक्स कुछ हफ्तों में ही हजार अंक पार कर ले रहा है, उस पर निगाह रखने की जरूरत है।
सेंसेक्स की साल की कमाई 20 प्रतिशत से ऊपर और खेती में मुश्किल से दो प्रतिशत हो, तो अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों को लेकर चर्चा बनी रहेगी। समर्थन मूल्य लागत का 150 प्रतिशत रहे और किसानों को मिल जाये, तो इससे बड़ा आर्थिक सुधार देश में नहीं होगा। यह आर्थिक सुधार 1991 के आर्थिक सुधार से बड़ा सुधार होगा, क्योंकि इससे देश की करीब 65 प्रतिशत आबादी प्रभावित होगी। अगर ऐसा होता है तो कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा उस सुधार से प्रभावित हो रहा है। समूची अर्थव्यवस्था में खेती और इससे जुड़े क्षेत्रों का करीब 17 प्रतिशत योगदान है। लेकिन इस 17 प्रतिशत पर करीब 65 प्रतिशत आबादी टिकी हुई है। यानी खेती पर बहुत बड़ी जनसंख्या का दारोमदार है।
किसानों की दोगुनी कमाई की दिशा में
प्रधानंमत्री नरेंद्र मोदी 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बातें करते हैं। यह आमदनी दोगुनी कैसे होगी? यह सवाल खासा महत्वपूर्ण है। किसानों की आमदनी दोगुनी करने के मसले पर दलवई कमेटी गठित की गई है। आमदनी दोगुनी करने के लिए इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कुछ महत्वपूर्ण कारक चिह्नित किए हैं। वे कारक हैं- एक विकसित विपणन व्यवस्था, जिससे किसानों को नवीनतम जानकारियां मिल सकें। एकीकृत बाजार हो। बेचने के माध्यम अधिक से अधिक हों। यह सब कैसे होगा, इस सवाल का जवाब तलाशना महत्वपूर्ण है। किसान फसल अधिक भी ले, पर उसके भाव न मिलें तो उसकी सफलता एक तरह से नकारात्मक ही साबित होती है। आपूर्ति की अधिकता से वस्तु की मांग गिर जाती है। किसान को उसकी उपज का सही भाव मिले, यह खेती के लिए जरूरी है। फसल अधिक होना कृषि की सफलता है, पर कृषक की सफलता तब है जब उसे अपनी फसल के ठीक-ठाक भाव मिल पायें। किसानों को उनकी लागत का 150 प्रतिशत मिले तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। बजट की यह घोषणा बहुत दूर तक जायेगी। किसान की आमदनी बढ़ती है, तो फायदा सिर्फ उसे ही नहीं होता, बल्कि अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों को होता है। मोटरसाइकिल बनाने वालों की मोटरसाइकिल ज्यादा बिकती हैं, घर बनाने के लिए सीमेंट ज्यादा बिकता है। यात्राएं ज्यादा होती हैं। सबका भला होता है। गांव पर ध्यान 2016-17 के बजट में भी रखा गया था। उस बजट में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के लिए 19,000 करोड़ रखे गये थे। गांवों पर ध्यान देना अच्छा अर्थशास्त्र है।
2016-17 के बजट में ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के लिए 38500 करोड़ रुपये का रिकॉर्ड आवंटन हुआ था। बजट गांव केंद्रित हो रहे हैं। खेती केंद्रित हो रहे हैं। अब जरूरत यह देखने की है, यह सब वहां तक पहुंच रहे हैं या नहीं, जहां पर पहुंचाने के लिए इनकी घोषणा की गई है।
उज्जवला योजना के लाभार्थी
बजट में घोषणा हुई कि विपन्न तबकों में 8 करोड़ महिलाओं को उज्जवला योजना के दायरे में लाया जायेगा। यह बहुत बड़ा आंकड़ा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के मुताबिक, दिसंबर 2017 तक तीन करोड़ से ज्यादा गैस कनेक्शन दिये जा चुके थे। इनमें से 44 प्रतिशत अनुसूचित जाति-जनजाति की महिलाओं को दिये गये। पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 1 मई, 2016 से 30 अप्रैल, 2017 के बीच उज्जवला कनेक्शनधारियों के 79 प्रतिशत सिलेंडर दोबारा लौटे। इसका आशय है कि कनेक्शन न सिर्फ दिये गये हैं, बल्कि उनका इस्तेमाल भी हो रहा है। एक आशंका यह थी कि विपन्न तबके के उपभोक्ता दोबारा सिलेंडर खरीदेंगे या नहीं। यह आशंका पूरी सच साबित नहीं हुई, लेकिन एक संकेत यह भी मिलता है कि अति विपन्न तबके को साल में एक या दो सिलेंडर मुफ्त भी देने की योजना बनाई जा सकती है।
उज्जवला योजना अपने आप में नए तरह के चिंतन का परिणाम है। संपन्न तबके से मुफ्तखोरी छोड़ने की अपील और फिर बंद मुफ्तखोरी से बचे संसाधनों का प्रयोग विपन्न तबके के लिए करना, अपने आप में नवाचार का संकेत है। उज्जवला योजना की सफलता की चर्चा स्वाभाविक तौर पर आर्थिक अखबारों और अंग्रेजी अखबारों में नहीं होगी। इनके पाठक विपन्न वर्ग के लोग नहीं हैं। दरअसल, उज्जवला का वर्ग किसी भी मीडिया का आॅडियंस नहीं है। वह बेआवाज ऐसा आॅडियंस है, जिसके पास राजनीतिक आवाज है वोट की शक्ल में। बाकी उसकी बात को आमतौर पर मीडिया न तो सुनता है और न ही दिखाता है। उज्जवला की सफलता प्रबंधन संस्थानों की केस स्टडी का विषय बननी चाहिए।
ढाई करोड़ नये मरीजोें को लाभ
आमतौर पर बीमाधारी समूहों में तीन से पांच प्रतिशत लोग ही बीमा का फायदा उठाने जाते हैं। लेकिन समझने की बात यह है कि करीब 50 करोड़ लोगों में से अगर पांच प्रतिशत लोगों को भी इलाज के लिए बीमा का लाभ लेने की जरूरत पड़ी, तो करीब ढाई करोड़ विपन्न तबके के लोग अस्पतालों में दाखिल होंगे। अगर ढाई करोड़ नये लोग अस्पतालों में दाखिल हो रहे हैं तो यह देखना बहुत सुखद होगा कि वे पैसे के अभाव में दम न तोड़ें। इसलिए इन लोगों की चिकित्सा व्यवस्थाओं का इंतजाम भी जरूरी है। इसे मोटे तौर पर यूं समझा जा सकता है कि आॅस्ट्रेलिया के आकार का पूरा देश अस्पतालों में दाखिल होने के लिए वित्तीय तौर पर समर्थ हो जायेगा।
स्वास्थ्य की चिंता
यह योजना स्वास्थ्य और जिंदगी बचाने में कामयाब होगी, तो उसका सकारात्मक असर उत्पादकता पर भी पड़ेगा। यह काम आसान नहीं है। आर्थिक तौर पर समर्थ ढाई करोड़ नये मरीजों को संभालने की व्यवस्था बहुत जरूरी है। यह काम राज्यों के सहयोग के बिना संभव नहीं हो पाएगा।
गांवों पर नजर
किसानों के लिए 150 प्रतिशत का समर्थन मूल्य, गरीबों के लिए सेहत संरक्षण योजना, उज्जवला योजना, ये सारी बातें कहीं न कहीं यह साबित करती हैं कि ग्रामीण क्षेत्र की जनता की तरफ मोदी सरकार का ध्यान बहुत ज्यादा है। जैसा किसी भी कुशल राजनेता का होना चाहिए। भारत में मुनाफा भले ही शहरों से आता हो, पर वोट तो गांवों से आता है। इसलिए लोकतंत्र में सिर्फ चमकदार सेंसेक्स काफी नहीं होता। किसानों के चेहरे की चमक ‘शाइनिंग इंडिया’ की असली गारंटी होती है। अगर यह गारंटी नहीं है, तो फिर अर्थशास्त्र और राजनीति के सामने बहुत चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं।
मोदी सरकार ने इस बात को पहले से समझा है और जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव करीब आ रहे हैं, इस समझ को ठोस आर्थिक प्रस्तावों में तब्दील करने की राजनीतिक परिपक्वता भी मोदी सरकार ने दिखाई है। 2014-15 में सस्ते घरों के लिए 4,000 करोड़ रुपये रखे गये थे। मोदी सरकार के मंत्री लगातार गरीब के घर की बात करते रहे हैं। अनायास नहीं है कि आवासीय ऋण के क्षेत्र में लगातार तेजी आ रही है। इसके पीछे एक वजह सस्ते घरों के लिए दी जाने वाली सरकारी सहायता भी है।
2015-16 का बजट मोदी सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ के नाम किया था। ‘मेक इन इंडिया’ से भी भारत में उन लोगों को रोजगार मिलने की संभावनाएं बलवती होती हैं, जिनके पास बहुत उच्च तकनीकी एवं शैक्षणिक योग्यताएं नहीं हैं। इसी साल दिवालिया कानून की चर्चा शुरू हुई, जिसके चलते बाद में कई कंपनियों के चोर प्रवर्तकों की कंपनियों की सेल लगना शुरू हुआ। इसी बजट में स्वच्छ भारत उपकर और स्वच्छ ऊर्जा उपकर की शुरुआत हुई।
2016-17 के बजट में मनरेगा को रिकॉर्ड आवंटन दिया गया था। 2017-18 का बजट किसानों पर केंद्रित रहा। सिंचाई के लिए आवंटन 20,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 40,000 करोड़ रुपये कर दिया गया। लक्ष्य रखा गया कि 2019 तक एक करोड़ परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया जायेगा। इसी बजट में एक लाख पचास हजार ग्रामपंचायतों को हाई स्पीड इंटरनेट सुविधा देने का प्रस्ताव किया गया। इस बजट ने 50 करोड़ रुपये तक के टर्नओवर वाली कंपनियों पर कर दर को घटाकर 25 फीसदी कर दिया।
2018-19 का बजट समर्थन मूल्य की घोषणा को लेकर एक तरह से ग्रामीण केंद्रित बजट ही है। कुल मिलाकर तमाम प्रावधानों में मोदी सरकार ग्रामीण इलाकों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ समाज के वंचित तबकों के लिए काम करती दिखती है। यह काम मुश्किल है, पर असंभव नहीं।
चुनौतियों का सामना
भारत राज्यों में बसता है। तमाम राज्यों के सक्रिय सहयोग के बगैर बहुत सी योजनाओं का क्रियान्वयन संभव नहीं है। अब समय है कि तमाम योजनाओं, प्रावधानों का जमीनी आॅडिट कराया जाए ताकि पता चल सके कि उन योजनाओं का कार्यान्वयन किस हद तक हुआ है, क्योंकि अक्सर देखने में आता है कि योजनाएं बन जाती हैं, लेकिन उन्हें जमीन पर उतरने में दिक्कतें आती हैं। हालांकि यह बात साफ हो गई है कि अर्थव्यवस्था में संसाधनों की दिक्कतें नहीं हैं।
आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक अप्रैल-दिसंबर 2016 के मुकाबले अप्रैल-दिसंबर 2017 की अवधि में बांडों के जरिये और नॉन-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों से जुटाये गये संसाधनों में 43 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। आर्थिक सर्वेक्षण में दिये गये आंकड़ों के मुताबिक, पूरे 2016-17 के बारह महीनों में नये शेयर के जरिये कुल 1,02,946 करोड़ रुपये जुटाये गये थे। वहीं, चालू वित्तीय वर्ष यानी 2017-18 के आठ महीनों में ही इस मद से 1,52,919 करोड़ रुपये जुटा लिये गये हैं। यानी धन की समस्या नहीं है। जिसके पास परियोजना है, विचार है, उसके लिए अर्थव्यवस्था में अनुदान मिल रहा है। चाहे वह नॉन-बैंकिंग ऋण मिल रहा हो या नये शेयरों के आने से। कहने का मतलब यह है कि संसाधनों की कमी से बड़े उद्योग बाधित नहीं हो रहे हैं।
कारोबार का कायाकल्प
करीब 10 करोड़ मुद्रा कर्ज यानी छोटे कारोबारी कर्ज दिये गये। यह सिर्फ कर्ज का आंकड़ा नहीं है। मुद्रा यानी छोटे कारोबारी कर्ज अगर आसानी से कारोबारी को मिलने लगें, तो कारोबार का कायाकल्प हो सकता है। अर्थव्यवस्था में जिस तबके को धन की सबसे ज्यादा जरूरत है, उसे संसाधन आसानी से नहीं मिल पाते। आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि लघु उद्योगों को अपने कारोबार के विस्तार के लिये पर्याप्त पूंजी मिलने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। बैंकों द्वारा दिये गये कर्जों के बारे में उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि नवंबर 2017 तक जितना कर्ज दिया गया, उसमें करीब 83 प्रतिशत बड़े कारोबारियों को ही मिला, जबकि महज 17 प्रतिशत छोटे कारोबारियों को मिला है। जाहिर है, बैंक बड़ी इकाई, बड़े ब्रांड को कर्ज देने में सुरक्षित महसूस करते हैं। हालांकि गारंटी वहां भी नहीं है। विजय माल्या का किंगफिशर बहुत बड़ा ब्रांड था और माल्या बैंकों के दस हजार करोड़ रुपये लेकर उड़ गये।
एक सच्चाई यह भी है कि बैकिंग व्यवस्था में छोटे उद्यमों के प्रति सकारात्मक भाव नहीं है। हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण का दावा है कि दिसंबर 2017 तक छोटे उद्यमों पर केंद्रित प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत 10.01 करोड़ लोगों को कर्ज दिये जा चुके हैं। इनमें 7.6 करोड़ महिलाएं हैं। मुद्रा योजना आंकड़ों के आईने में बहुत कामयाब योजना लग रही है। इसकी जमीनी सच्चाई क्या है, इस पर शोध होना बाकी है। पर मोटे तौर पर समझना यह है कि मुद्रा की बड़ी भूमिका आने वाले समय में दिखेगी, क्योंकि रोजगार का मतलब अब सिर्फ नौकरी नहीं रह गया है।
रोजगार के अवसर
रोजगार देने से आशय किसी फैक्ट्री या दफ्तर में 9 से 5 बजे की नौकरी से है या फिर किसी छोटी सी दुकान पर मिले काम को भी नौकरी मान लिया जायेगा? हाल में श्रम मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, मार्च 2017 में संगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या करीब दो करोड़ दस लाख थी। असंगठित क्षेत्र के मुकाबले संगठित क्षेत्र के रोजगार को थोड़ा बेहतर माने जा सकता है। संगठित क्षेत्र के रोजगार से आशय उन संस्थानों में रोजगार से है, जिनमें दस या दस से ज्यादा लोग काम करते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों में मिलाकर मोटे तौर पर दो करोड़ तीस लाख लोग काम करते हैं। ये दो करोड़ तीस लाख और संगठित क्षेत्र के करीब दो करोड़ दस लाख रोजगार ही ऐसे रोजगार हैं, जहां लोग काम करना चाहते हैं। छोटी दुकान पर काम करने को आम तौर पर नौकरी नहीं माना जाता। ‘सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकॉनोमी’ के एक अनुमान के मुताबिक, करीब चालीस करोड़ लोगों को छोटा-मोटा या कैसा भी रोजगार हासिल है। यानी चालीस करोड़ लोग कुछ न कुछ कर रहे हैं, जिसमें हर तरह के रोजगार शामिल हैं। गौरतलब है कि इस तरह के रोजगार से लोग संतुष्ट नहीं हैं। दरअसल, नौकरियां उस गति से नहीं पैदा हो रही हैं, जिस गति से कामकाजी आबादी बढ़ रही है।
तरह-तरह के अध्ययनों से साफ हुआ है कि रोजगार प्रदान करने की अर्थव्यवस्था की क्षमताएं तेजी से विकसित नहीं हो रही हैं। ऐसी सूरत में यह जरूरी है कि लघु उद्योगों को ठीक-ठाक आधार दिया जाये और ऐसे कारोबारों और कंपनियों को प्रोत्साहन दिया जाये, जो ज्यादा रोजगार देते हैं। ज्यादा रोजगार देने वाली कंपनियों को कर में छूट मिलनी चाहिए क्योंकि उन्हें दूसरी तरह के प्रोत्साहन मिलने चाहिए। जैसे उन्हें रियायती दर पर कर्ज दिये जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। बजट में यह काम ठोस रूप से करना चाहिए। रोजगार बहुत ही महत्वपूर्ण मसला है।
हाल ही में स्टेट बैंक आॅफ इंडिया के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष और इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट, बेंगलुरु के प्रोफेसर पुलक घोष ने रोजगार पर किये गये एक अध्ययन में साफ किया है कि हर साल संगठित क्षेत्र में करीब सत्तर लाख नौकरियां पैदा हो रही हैं, जबकि करीब डेढ़ करोड़ लोग हर साल श्रम जनसंख्या में जुड़ रहे हैं। यानी संगठित क्षेत्र में जितनी नौकरियां दी जा रही हैं, उतनी नौकरियों से दोगुने लोग श्रम जनसंख्या में जुड़ रहे हैं। लेकिन संगठित क्षेत्र का विकास तेज गति से नहीं हो रहा है।
रोजगार का विकास एक अलग मसला है, जबकि संस्थाओं और कंपनियों का विकास अलग मसला है। एचडीएफसी बैंक का शेयर एक साल में करीब 44 प्रतिशत से ज्यादा ऊपर चढ़ चुका है। इसका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है, फिर भी इस बैंक ने अपने कर्मचारियों की तादाद में इजाफा नहीं किया है। इस बैंक ने हजारों कर्मियों की छंटनी की है। एचडीएफसी बैंक अपवाद नहीं है। तकनीक ने रोजगार के भविष्य को और अलग तरह से प्रभावित किया है। हजारों नौजवान बी.टेक. की डिग्री लिये घूम रहे हैं, नौकरी नहीं है। यानी रोजगार का मतलब सिर्फ संगठित क्षेत्र की नौकरी नहीं है। अपना छोटा-मोटा कारोबार भी रोजगार है। यह बात समझ लेने में कोई हर्ज नहीं है। छोटे-मोटे कारोबार के लिए पूंजी बड़ी समस्या होती है। उसे एक हद तक मुद्रा कर्ज दे सकते हैं।
भारत में कई कामों को छोटा मानकर उन्हें अपमानित करने का चलन है। ‘पकौड़ा कारोबार’ का इन दिनों खूब मजाक उड़ाया जा रहा है। यह मजाक उस मानसिकता से आता है, जिस मानसिकता के तहत विरोध दिखाने के लिए नौजवान जूता पॉलिश करते हैं, मानो जूता पॉलिश ही बहुत खराब काम है। समझने की बात यह है कि बाटा जूता कंपनी खरबों रुपये की है। जिस ‘पकौड़ा कारोबार’ को अपमानित किया जा रहा है, लगभग उस कारोबार की कंपनियों के मैकडोनाल्ड और डोमिनो पिज्जा जैसे बड़े ब्रांड हैं। चाय के धंधे का मजाक उड़ाना आसान है। स्टारबक्स की सैकड़ों रुपये की चाय-कॉफी का काम खासा मुनाफे वाला है, इस बात को समझने के लिए अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं है।
काम-धंधा जमाने के साथ जरूरी है कि छोटे कारोबारी ब्रांड निर्माण के हुनर का न्यूनतम प्रशिक्षण भी दिया जाये। स्टारबक्स की ब्रांडेड कॉफी के ढाई सौ रुपये मिलते हैं स्टारबक्स के दुकानदार को। छोटे और मझोले कारोबार, छोटे और मझोले ब्रांड कैसे बनायें, इस विषय पर शोध और प्रशिक्षण होना चाहिए। छोटे कारोबार में बड़ी संभावनाएं हैं, लेकिन इन्हें सच में बदलने के लिए हुनर प्रशिक्षण की बहुत आवश्यकता है।
कह सकते हैं कि बजट सबकी चिंता, सबके बढ़ने की बात करता है और उसका रास्ता सुगम बनाने के लिए प्रधानमंत्री की टीम को पूरा प्रयास करना होगा।
मेरे देश की धरती…
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में कृषि अध्याय की शुरुआत मनोज कुमार की हिट फिल्म उपकार के एक लोकप्रिय गीत से होती है- ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती।’ इसी अध्याय में आगे तुलसीदास की उक्ति है— ‘का बरखा जब कृषि सुखाने’ यानी जब कृषि खत्म ही हो गई तो बारिश का क्या मतलब।
सर्वेक्षण बताता है कि सरकार ने बाजार सुधार से संबंधित कई कदम उठाये हैं, ताकि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिल सके।
इस सिलसिले में अप्रैल 2016 में कृषि के केंद्रीकृत इलेक्ट्रॉनिक बाजार को प्रोत्साहित करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट की शुरुआत हुई थी। इस बात को कुछ समय बाद पूरे दो साल हो जायेंगे। यह शुरुआत अभी आरंभिक चरण में ही है। इस बार बजट में घोषणा की गई है कि 22 हजार ग्रामीण हाटों को उन्नत करके केंद्रीकृत इलेक्ट्रॉनिक बाजार से जोड़ा जायेगा। यह काम हो जाये, तो खेती के एकीकृत बाजार के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण काम हो जायेगा। खेती की बड़ी समस्या यही है कि उसे ठीक बाजार नहीं मिल पाते। अगर बाजार ठीक मिल जाये, तो फिर आमदनी की समस्या अपने आप खत्म हो जायेगी। कृषि बाजारों को इलेक्ट्रॉनिक तरीके से रोकने का काम मुश्किल जरूर है, पर असंभव नहीं है। आईटीसी ने निजी क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक चौपाल जैसे सफल प्रयोग बहुत पहले किये हैं। इस संबंध में निजी सरकारी भागीदारी से कुछ ठोस हो सकता है। लेकिन यह होना ही चाहिए और जल्दी होना चाहिए। देश में 22,000 ग्रामीण हाटों का उन्नत्तिकरण अपने आप में बड़ा आर्थिक सुधार साबित होगा।
खेती के लिए विशेष कदम उठाने की जरूरत है। हाल में आया आर्थिक सर्वेक्षण आगाह करता है कि मौसम में बदलावों के चलते निकट भविष्य में किसानों की आय में गिरावट आ सकती है। सर्वेक्षण आगाह करता है कि अति वृष्टि, कम बारिश होने की आशंकाएं बढ़ रही हैं। सूखे दिनों की संख्या बढ़ रही है। तापमान ऊपर जाने की आशंकाएं बढ़ रही हैं। मतलब मौसम का मिजाज असामान्य हो रहा है। इसके चलते खेती से होने वाली कमाई में औसतन 15 से 18 प्रतिशत की गिरावट दर्ज होने की आशंका है। जिन इलाकों में सिंचाई की व्यवस्था नहीं है, वहां यह गिरावट 20 से 25 प्रतिशत तक हो सकती है।
बजट में घोषणा की गई है कि 1 मई, 2018 तक शत-प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच जायेगी।
बजट 2014-15
सख्त और मजबूत
वित्तीय अनुशासन, स्मार्ट सिटी, रक्षा और बीमा में और अधिक खुलापन, कृषि में विकास दर 4 प्रतिशत तक रखने का लक्ष्य, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का पुनर्पूंजीकरणल्लअरुण जेटली ने क
हा, ‘‘हम अपने साधनों से परे खर्च नहीं कर सकते’’
वित्त वर्ष 2015-16 में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3.6 फीसदी था, अगले 3-4 साल के लिए 7-8 फीसदी के सतत विकास का लक्ष्य तय किया
आयकर में छूट की सीमा 50,000 रु. बढ़ाकर 2.5 लाख की गई। वरिष्ठ नागरिकों के लिए सीमा 3 लाख
रु. तक
नॉन-इक्विटी म्युचुअल फंड पर दीर्घकालिक कैपिटल गेन टैक्स को दोगुना बढ़ाकर 20 फीसदी कर दिया गया। लॉक इन अवधि भी बढ़ाकर तीन लाख कर दी गई
रक्षा और बीमा क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी कर दी गई
देशभर में 100 स्मार्ट सिटी तैयार करने के लिए 7,000 करोड़ रु. की निधि तय की गई
सस्ते मकानों के लिए 4,000 करोड़ रु.
कृषि क्षेत्र में 4 फीसदी की सालाना विकास दर का लक्ष्य
एक साल के लिए पेंशन योजना की पुनर्बहाली
पांच आईआईएम और आईआईटी की घोषणा
नौ हवाई अड्डों पर ई-वीजा
रक्षा खर्च में बढ़ोतरी
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए 11,200 करोड़ रु. की व्यवस्था
बजट 2015-16
मेक इन इंडिया
काले धन के खिलाफ कड़े कदम, अतिरिक्त उपकर, मेक इन इंडिया, कॉरपोरेट टैक्स कम करने, जीएसटी लागू
करने और दिवालिया कानून लाने का वादा
उपलब्धियों का दावा : 100 दिन में 12.5 करोड़ परिवार वित्तीय मुख्यधारा में लाए गए। कोयला खदानों की पारदर्शी नीलामी
चुनौतियां : खेती से आमदनी पर दबाव, बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाना, उत्पादन में कमी, वित्तीय अनुशासन बनाए रखना, ‘हर बूंद से अधिक फसल’ पाने के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के लिए 5,300 करोड़ रु. आवंटित
लघु इकाई विकास और पुनर्वित्त एजेंसी का 20,000 करोड़ रु. के शुरुआती कोष के साथ गठन
दिवालिया कानून
रेल, सड़क और सिंचाई क्षेत्र के लिए करमुक्त इन्फ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड
कॉरपोरेट कर दरों को 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी करने का ऐलान, इसे वित्त वर्ष 2016-17 से लागू
किया गया
युवाओं में रोजगारपरकता बढ़ाने के लिए दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना शुरू
स्चच्छ भारत और स्चच्छ ऊर्जा उपकर का प्रस्ताव
कर चोरी पर कड़े जुर्माने और दंड का प्रस्ताव
बजट 2016-17
गांवों से शहरों तक
बजट में किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुनी करने के वादे को दोहराया गया है। सिंचाई के लिए 20,000 करोड़ रुपये के फंड के साथ ग्रामीण भारत पर ध्यान, बुनियादी ढांचा निर्माण पर जोर
वित्त वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के लिए 19,000 करोड़ रु. का आवंटन, प्राकृतिक आपदाओं के बाद किसानों को कर्ज के जरिए मदद देने के लिए 9 लाख करोड़ रुपये आवंटित
वित्त वर्ष 2016-17 में मनरेगा के लिए अब तक का सबसे अधिक 38,500 करोड़ रुपये आवंटित
राज्यों के रोजगार एक्सचेंज को राष्टÑीय करियर सेवा से जोड़ने का प्रस्ताव
छोटे और मझोले दुकानों को हफ्ते में सातों दिन खुले रहने की छूट
सड़क निर्माण- 55,000 करोड़ रु. सड़क और हाइवे निर्माण के लिए, इसके अतिरिक्त 15,000 करोड़ रु. एनएचएआई को बॉन्ड के जरिए खुद उगाहने को कहा गया। कुल आवंटन 97,000 करोड़ रुपये
कम इस्तेमाल वाले हवाईअड्डों को पुनर्जीवित करने की योजना
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए 25,000
करोड़ रुपये
वित्तीय विवेक पर जोर, वित्त वर्ष 2015-16 के लिए राजकोषीय घाटा लक्ष्य (बीई और आरई) जीडीपी का क्रमश: 3.9 और 3.5 फीसदी तय
* बजट और संशोधित अनुमान, सभी आंकड़े बजटीय अनुमान
बजट 2017-18
भारत प्रथम
बजट का ध्यान कृषि क्षेत्र, युवाओं, बुनियादी ढांचे, विवेकपूर्ण राजकोषीय प्रबंधन और बेहतर कर प्रशासन पर बना रहा
रेलवे बजट को आम बजट के साथ मिला दिया गया
नाबार्ड का फंड बढ़ाकर 40,000 करोड़ रुपये किया गया
मिट्टी की जांच के लिए मिनी लैब की स्थापना का फैसला
सिंचाई के लिए आवंटन 20,000 करोड़ रु. से बढ़ाकर 40,000 करोड़ रु.
2017-18 में कृषि ऋण के लिए लक्ष्य बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रु.
2019 तक 1 करोड़ परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाना
भारत मार्च 2018 तक सौ फीसदी ग्रामीण विद्युतीकरण की राह पर
सस्ती हाउसिंग को बुनियादी ढांचा मानने का प्रस्ताव
बुनियादी ढांचे के लिए 39.6 लाख करोड़ रु. का आवंटन
1.50 लाख ग्राम पंचायतों में हाई स्पीड इंटरनेट
विदेशी निवेश प्रमोशन बोर्ड को खत्म करना
प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत 2.44 लाख करोड़ रु. कर्ज देने का लक्ष्य
50 करोड़ रु. तक के लेन-देन वाली छोटी कंपनियों पर कर घटाकर 25 प्रतिशत करने का प्रस्ताव
हमने ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ को बदल डाला है। नोटबंदी से काले धन पर लगाम लगी है। देश में 7.5 प्रतिशत विकास दर रहने की उम्मीद है। हम जल्द ही दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे।
— अरुण जेटली
केन्द्रीय वित्त मंत्री
इसे मैं पूरी अर्थव्यवस्था के लिए बेहतरीन बजट मानता हूं। इसमें ऐसे ढेरों कदम उठाए गए हैं, जिससे किसानों की आय बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था में नई ऊर्जा पैदा होगी। जब किसानों और ग्रामीणों की आय बढ़ेगी तो बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ेगी। इससे विकास को
बल मिलेगा।
— राजीव कुमार
उपाध्यक्ष, नीति आयोग
राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना
बजट का सबसे चर्चित फैसला है।
इस बार कई छोटे-छोटे प्रावधान किए गए हैं, जो किसानों को प्रोत्साहन देंगे। छोटे एवं मझोले उद्योगों से
लेकर कॉरपोरेट सेक्टर तक,
सबका ख्याल रखा गया है।
— उषा अनंत सुब्रमण्यम
अध्यक्ष, आईबीए
यह व्यापक बजट है। इसमें ऐसे प्रावधान किए गए हैं, जिससे बटाई पर खेती करने वाले किसानों से लेकर 10 करोड़ गरीबों, वरिष्ठ नागरिकों और कुछ अन्य लोगों पर सकारात्मक असर पड़ेगा। कुल मिलाकर बजट में किए गए उपायों से अर्थपूर्ण विकास दर हासिल करने के लिए अच्छी शुरुआत होगी।
— रजनीश कुमार
अध्यक्ष, भारतीय स्टेट बैंक
सेहत संरक्षण योजना
बजट में घोषणा की गई है कि विश्व की सबसे महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य सुरक्षा योजना -मोदी केयर भारत में लागू की जाएगी। स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए दस करोड़ गरीब परिवारों को प्रति परिवार पांच लाख रुपये दिये जायेंगे। यह एक तरह की बीमा योजना है। मोटे तौर पर इस योजना के लाभार्थियों की संख्या 50 करोड़ होगी। 50 करोड़ लोगों को अगर कोई योजना इस मुल्क में फायदा पहुंचा सकती है, तो समझा जाना चाहिए कि वह योजना गेम चेंजर है। वह योजना बहुत विराट राजनीतिक लाभांश की संभावनाओं से युक्त है। अकेले यही योजना ठीक-ठाक परिणाम दे दे, तो भाजपा के लिए इसका बहुत राजनीतिक लाभ संभव है। यह योजना जमीन पर कैसे उतरती है, यह देखना दिलचस्प होगा। यह योजना इस बजट की ही नहीं, बल्कि हाल के सालों के किसी भी बजट की सबसे बड़ी घोषणा मानी जा सकती है। समझा जा सकता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसे मुद्दे हैं, जिनसे जनता का भरोसा और वोट जीता जा सकता है। स्वास्थ्य-देखभाल की व्यवस्था का हाल बहुत ही खराब है।
कई मामलों में तो खालिस लूट का मामला बना हुआ है। हाल के समय में दिल्ली-एनसीआर के कई निजी अस्पतालों में तो लाखों रुपये वसूली के बाद भी मरीज के इलाज में लापरवाही बरते जाने के मामले सामने आये। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 ने चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को दस्तावेजबद्ध किया है। सर्वेक्षण बताता है कि कई डॉक्टरी जांच की दरों का कोई ओर-छोर ही नहीं है। किसी जांच की न्यूनतम और अधिकतम राशि में अतार्किक अंतर है। सर्वेक्षण बताता है कि लिपिड प्रोफाइल टेस्ट 90 रुपये में भी हो रहा है और 7110 रुपये में भी। लीवर फंक्शन टेस्ट 100 रुपये में भी हो रहा है और 2500 रुपये में भी। थायराइड टेस्ट 100 रुपये में भी हो रहा है और 3100 रुपये में भी। कोई हिसाब-किताब नहीं है। गरीब आदमी की तो दूर, अमीर आदमी की भी सुनवाई नहीं है निजी चिकित्सा व्यवस्था में। ऐसे में यह स्वास्थ्य देखभाल योजना बहुत प्रभावी साबित हो सकती है।
देखा जाता है कि कोई बड़ी खतरनाक बीमारी पकड़ ले तो विपन्न तबके की तो क्या कहें, अच्छे-खासे मध्यवर्गीय परिवारों की आर्थिक स्थिति चौपट हो जाती है। विश्व बैंक द्वारा कराये गये एक अध्ययन के मुताबिक 2014 में सेहत पर हुए कुल खर्च का 62.4 प्रतिशत खर्च भारत में लोगों को अपनी जेब से करना पड़ा। अपनी जेब से सेहत पर खर्च करने की वैश्विक औसत 18 प्रतिशत है। इसमें बीमा की बहुत बड़ी भूमिका होती है। सेहत पर खर्च, सेहत की चिंताएं बीमा कराने के बाद बीमा कंपनियों के खाते में चली जाती हैं। भारत में स्वास्थ्य बीमा को लेकर अभी वैसी जागरूकता नहीं है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना पर भी इस सरकार ने जोर दिया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में प्रति परिवार करीब 500-600 रुपये के खर्च पर 30,000 रुपये का कवर मिलता है। लेकिन नई योजना तो एकदम धमाकेदार है। प्रति परिवार करीब 100-1100 रुपये के खर्च पर पांच लाख रुपये तक का कवर मिलेगा यानी पांच लाख रुपये तक के इलाज खर्च का इंतजाम हो जाएगा। नई योजना के दायरे में दस करोड़ परिवार और करीब पचास करोड़ लोग आएंगे। आबादी का करीब चालीस फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य योजना की सुरक्षा में आ जाये तो यह अपने आप में बहुत बड़ा स्वास्थ्य सुधार है। करीब 12,000 करोड़ रुपये का खर्च इस योजना के प्रीमियम के भुगतान के लिए आयेगा, ऐसा अभी अनुमान लगाया गया है। ज्यादा खर्च आ भी जाये, तो संसाधन समस्या नहीं है। स्वास्थ्य और शिक्षा शुल्क को तीन प्रतिशत से बढ़ाकर चार प्रतिशत करने से ही करीब 11,000 करोड़ रुपये की राशि मिल जायेगी। इस योजना में संसाधन का मसला नहीं है। मसला इसके कार्यान्वयन का है।
17.94 लाख रुपये कुल अनुमानित खर्च
4.1% जीडीपी का राजकोषीय घाटा
2.9% राजस्व घाटा
1.3% चालू खाता घाटा (सीएडी)
2.5% जीडीपी का, राजस्व घाटा लाने का लक्ष्य
3.5% वित्त वर्ष 2017 के लिए राजकोषीय घाटे का लक्ष्य
रु.19.78 लाख करोड़ बजट में कुल खर्च
योजनागत/गैर-योजनागत खर्च के वर्गीकरण को 2017-18 से खत्म करने की प्रक्रिया शुरू
5.1% मुद्रास्फीति (सीपीआई)
सीएडी 1.3% जीडीपी का
6.4% रुपये की मजबूती बढ़ी
8-8.5% 2015-16 में जीडीपी वृद्धि का अनुमान
255 अरब डालर विदेशी निवेश बढ़ा, 2014 के बाद, रिकॉर्ड 340 अरब डॉलर पहुंचा
1.44 लाख करोड़ के संसाधन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को हस्तांतरित किए गए
3% 3 साल के लिए प्रस्तावित राजकोषीय घाटा
3.2% जीडीपी का, राजकोषीय घाटे का अनुमान
1.9% राजस्व घाटा
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