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अफगानिस्तान में अकेले जनवरी माह में ही 3 बड़े हमलों में सैकड़ों लोगों
की जान चली गई। हमलों की प्राथमिक जांच में अभी तक जो निकल के
आया है, उससे यह बात पुष्ट होती है कि इस आतंक की कंटीली झाड़ी की जड़ें पाकिस्तान में हैं
प्रशांत बाजपेई
‘‘अफगानिस्तान में चल रही इस वीभत्स लड़ाई में मानवता की बहुत हानि हुई है। विनाश, यातना और मौतों का आंकड़ा बहुत बड़ा है। विशेष रूप से अफगान सरकार विरोधियों (तालिबान) द्वारा किया जा रहा अवैध आईईडी (विस्फोटक) का अविवेकी इस्तेमाल बेहद डरावना है और इसकी तत्काल रोकथाम की जरूरत है।’’ ये शब्द संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत तादामिची यामामोटो ने काबुल में बैठकर लिखे। बारूद के धमाकों में उड़ते अफगान नागरिकों के चिथड़े और धुएं में घुली जलते मानव मांस की गंध—अफगानिस्तान में ये यह मंजर जगह-जगह देखा जा सकता है।
राजधानी काबुल भी इससे बची नहीं है। जनवरी के जाते-जाते काबुल में तीन बड़े जिहादी हमले हुए हैं। 27 जनवरी को काबुल के सदारत चौक पर तालिबान के आत्मघाती बमबाज ने धमाका कर सौ से ज्यादा जान ले लीं और दो सौ को घायल कर दिया। तालिबान ने बाकायदा इस हमले की जिम्मेदारी भी ली। 21 जनवरी को काबुल के इंटरकॉन्टिनेंटल होटल पर हुए तालिबान के हमले में 43 जान गर्इं। 26/11 के मुंबई हमले की तर्ज पर हुए इस हमले में कलाश्निकोव और आत्मघाती बेल्ट से लैस आतंकियों ने होटल के एक-एक कमरे में घुसकर हत्याएं की थीं। तीसरा हमला काबुल स्थित अफगानिस्तान सैन्य अकादमी पर हुआ, जिसमें इस्लामिक स्टेट के आत्मघाती हमलावरों ने खुद को उड़ाकर 15 जवानों की जान ले ली। तीनों हमलों में एक समानता है। तीनों के तार पाकिस्तान से जुड़ते हैं।
अफगान तालिबान, खूंखार हक्कानी नेटवर्क और अफगानिस्तान में सक्रिय इस्लामिक स्टेट की शाखा, तीनों आईएसआई के बगल-बच्चे हैं। सैन्य अकादमी पर हुए हमले के बाद अफगानिस्तान के राजनयिक मजीद कतर ने कहा कि आतंकियों के पास से जो हथियार मिले हैं, वे पाकिस्तानी सेना ने उन्हें दिए हैं। मजीद ने कहा, ‘‘पाकिस्तानी सेना कश्मीर और अफगानिस्तान में आतंक फैलाने के लिए आतंकियों को शस्त्र देती है। आतंकियों के पास से अंधेरे में इस्तेमाल किये जाने वाले नाइटविजन चश्मे मिले हैं। ऐसे चश्मे सेना के लिए बनाए जाते हैं। पाकिस्तान इन्हें ब्रिटेन से खरीदता है।’’ इंटरकॉन्टिनेंटल होटल पर किये गए हमले पर संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान के स्थायी दूत महमूद सैकल ने ट्वीट किया कि,‘‘काबुल के इंटरकॉन्टिनेंटल होटल पर हमला करने वाले आतंकियों में से एक का पिता अब्दुल कहर, अफगानिस्तान की सुरक्षा एजेंसियों की हिरासत में है। कहर ने बताया है कि उसके बेटे को पाकिस्तान की आईएसआई ने बलूचिस्तान के चमन में प्रशिक्षण दिया था।’’
यह सत्य जगजाहिर है कि अफगानिस्तान में जिहादी आतंक की जो कंटीली झाड़ी फैली हुई है, उसकी जड़ें पाकिस्तान में हैं। दरअसल अफगानिस्तान में हाल में हुए हमले पाक फौज ने डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा उसकी मुश्कें कसने और सैन्य मदद पर रोक लगाने की प्रतिक्रिया में किये हैं। यह ऐसा ब्लैकमेल है जिससे निबटने का रास्ता राष्टÑपति ट्रम्प को खोजना होगा। अफगानिस्तान में पाकिस्तान की हरकतों को देखकर महाभारत में वर्णित राक्षस बकासुर (जिसे भीम ने मारा) की याद आती है, जो एकचक्र के छोटे-से गांव को आतंकित करके रखता है और गांव वालों की जान की सलामती के बदले एक निश्चित अंतराल पर एक व्यक्ति को अपने आहार के लिए मांगता है। अफगानिस्तान में युद्धरत अमेरिकी सेना की आपूर्ति पाकिस्तान के रास्ते होती है, पाकिस्तान अपने नाभिकीय हथियारों के जिहादियों के हाथ में पड़ने के अंतरराष्ट्रीय भय का भी भरपूर दोहन करता है। ये हमले करवाकर पाकिस्तान ने अमेरिका को अप्रत्यक्ष धमकी दी है कि अफगानिस्तान में उसकी कारस्तानियों को सहन नहीं किया गया तो वह हालात को और बिगाड़ने की क्षमता रखता है। पाकिस्तान का सारा दांव इस बात पर टिका है कि अमेरिका दो दशकों से अफगानिस्तान में फंसा हुआ है और अब वहां से निकलना चाहता है। इस प्रकार के संकेत ओबामा के दौर में स्पष्टता के साथ दिए भी गए। अब सबकी नजर डोनाल्ड ट्रम्प पर है। यदि उन्होंने अफगानिस्तान से बाहर निकलने की चिंता छोड़ पलटवार किया तो रावलपिंडी का यह दांव उलटा पड़ सकता है। सितम्बर, 2017 की खबर के अनुसार डोनाल्ड ट्रम्प तीन हजार अतिरिक्त सैनिक अफगानिस्तान भेज रहे हैं।
अफगानिस्तान को अपने आतंकी पंजों में जकड़कर रखने के पीछे पाकिस्तान के अनेक उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है, उत्तर की ओर पहुंच। काबुल पर हमलों की शृंखला के बीच अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने वक्तव्य दिया है कि अफगान इस्लामिक स्टेट के नाम से काम कर रहे आतंकी वास्तव में पाकिस्तान का उत्पाद हैं, जिन्हें मध्य एशिया, रूस और चीन के ऊर्जा क्षेत्रों (तेल-प्राकृतिक गैस भंडार) को लक्ष्य करके गढ़ा गया है। करजई के प्रवक्ता ने खुलासा किया कि इस्लामाबाद ने कई बार (तत्कालीन) राष्ट्रपति करजई से अफगानिस्तान होते हुए तजाकिस्तान जाने का मार्ग मांगा था, जिसे उन्होंने अफगानिस्तान की सुरक्षा के मद्देनजर ठुकरा दिया था। करजई के प्रवक्ता अजमल फैजी ने एक लेख में लिखा कि अफगानिस्तान के मीडिया में कुछ लोग समाचार और प्रोपेगंडा में फर्क नहीं कर पाए, और बहकावे में आ गए। अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट नहीं है, बल्कि इस्लामिक स्टेट के नाम से पाक फौज का ही खेल चल रहा है। फैजी के अनुसार कुछ साल पहले जब, कोई इस्लामिक स्टेट का नाम नहीं जानता था, तब भी, नूरिस्तान, कुनार, लोगार, बदख्शां और दूसरे प्रान्तों में पंजाबी तालिबान और दूसरे आतंकी गुट चेहरे पर नकाब लगाए आतंक फैला रहे थे।
प्रवक्ता ने राष्ट्रपति अशरफ गनी से विदेश नीति में और अधिक सावधानी बरतने का आग्रह करते हुए कहा, ‘‘पाकिस्तानी फौज आतंकवाद को विदेश नीति के औजार के रूप में उपयोग करने की अपनी नीति कभी नहीं छोड़ेगी। पाक फौज की इन गुटों के साथ रणनीतिक साझेदारी है और वे उन्हें अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध जारी रखने में आधार प्रदान करते हैं।’’
अफगानिस्तान में यह आम सोच है कि अमेरिका ने अफगान मुजाहिदीनों का इस्तेमाल रूस के खिलाफ छद्म युद्ध में किया था, इसलिए इन्हें समाप्त करने की नैतिक जिम्मेदारी उसकी है। लेकिन वे ये भी मानते हैं कि अमेरिकी इस कभी न खत्म होने वाली लड़ाई में आकर ‘फंस’ गए हैं और बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह अफगानियों के लिए यह किसी दु:स्वप्न से कम नहीं होगा।
इसके मद्देनजर अफगान सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती अलख जलाए रखने की है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति विश्वमंचों पर इस बात को जोर देकर उठा रहे हैं कि विश्व में लगातार उठ रही नयी समस्याओं के बीच अफगानिस्तान को अकेला छोड़ना विश्वशांति के लिए घातक होगा और यहां तक आकर, हाथ पीछे खींचने से पिछले डेढ़ दशक की कुर्बानियां और प्रयास विफल हो जाएंगे। 9/11 जैसी मिसालों के आधार पर गनी जोर देकर स्थापित कर रहे हैं कि आतंकवाद वैश्विक समस्या है और इससे समग्रता के साथ लड़कर ही निबटा जा सकता है।
अफगानिस्तान में लड़ाई कम होने के स्थान पर और भड़क रही है। पाकिस्तान समर्थित तालिबान और तथाकथित अफगानी इस्लामिक स्टेट गंभीर खतरा बने हुए हैं। हालांकि उनमें इतनी क्षमता नहीं है कि समूचे अफगानिस्तान पर कब्जा जमा सकें, लेकिन उनके पास भीषण हमले जारी रखने और अफगानिस्तान को आने वाले दशकों तक रक्त में भिगोते रहने की पर्याप्त क्षमता है। और भी संभावनाएं हैं, जिन्हें काबुल अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों के सामने पेश कर रहा है। नब्बे के दशक के अंत में, अफगानिस्तान से जब रूसी सेनाएं वापस लौटीं, और अमेरिका भी विजय का गुपचुप जश्न मनाकर अलग बैठ गया था कि सद्दाम हुसैन ने तेल की आग भड़का दी। कुवैत पर अपने अवैध कब्जे के प्रश्न पर, इराक का यह तानाशाह अमेरिका को ललकार रहा था और युद्ध की स्थिति बन गई थी। तब, चंद रोज पहले तक अमेरिका के साथ रहे तालिबान, हिकमतयार, रब्बानी और सय्याफ, सद्दाम हुसैन के साथ जा खड़े हुए। हिकमतयार बगदाद जाकर सद्दाम से मिला, और वादा किया कि उसके मुजाहिदीन सद्दाम की फौजों के साथ मिलकर ‘काफिर’ अमेरिका से लड़ेंगे। हिकमतयार मुस्लिम ब्रदरहुड से प्रभावित है, और अब उसने हिज्ब-ए-इस्लामी नाम से राजनैतिक दल बना लिया है। अफगानी राजनयिक, द्विपक्षीय वार्ताओं में जरूर धीमी आवाज में फुसफुसा रहे होंगे कि अकेले छोड़ दिए जाने की स्थिति में किस प्रकार आतंक के वर्तमान और भूतपूर्व सरगना, पाकिस्तान और दूसरे कट्टरपंथी मुस्लिम देशों की तरफ तेजी से झुक सकते हैं। उधर, अफगानिस्तान की खुश्क मिट्टी में कुछ तत्व ऐसे भी हैं, जो इस आतंक की इस फसल को हरा-भरा रखने में अनजाने ही मददगार होते हैं।
इस बीच, आग लगातार बरस रही है। हर साल सात से आठ हजार अफगानी आतंकी हमलों में मारे जा रहे है। इनमें युवाओं की संख्या अधिक है। बच्चों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार मामलों के हाई कमिश्नर, जाएद राद अल हुसैन के शब्दों में ‘‘किसी रिपोर्ट के आंकड़े, भले ही वो कितने ही भयावाह क्यों न लगें, अफगानिस्तान की मानवीय त्रासदी को वर्णित नहीं कर सकते। ये रपटें, हल्का सा इशारा ही हैं, टूटे परिवारों, अकल्पनीय विषाद और मानवाधिकारों के क्रूर हनन को अपने परिवारों और दोस्तों को गंवाने वाले अनेक अफगान नागरिक मानसिक अवसाद से पीड़ित हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका पर भयंकर चोट पड़ी है। अफगानिस्तान में जारी राष्ट्रीय आपदा को कदापि उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए।’’
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