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चंदन की हत्या के बाद साफ हो गया कि हिंदुओं की हत्या पर सेकुलर मीडिया कानून के नहीं, दागियों के साथ
भारतीय मीडिया के एक बड़े वर्ग का रवैया हिंदुओं के प्रति शत्रुतापूर्ण है, जो छिपे तौर पर हमेशा चलता रहता है, पर उत्तर प्रदेश के कासगंज में 20 वर्षीय युवक चंदन गुप्ता की हत्या के बाद उसका यह रूप खुलकर सामने आ गया। संदेश साफ है कि हिंदुओं की हत्याएं होंगी तो सेकुलर मीडिया कानून का नहीं, देवियों का साथ देगा। गणतंत्र दिवस के दिन जब यह खबर आई तो मृतक का नाम देखकर ही ज्यादातर समूहों ने इसे महत्वपूर्ण मानने से इनकार कर दिया। कुछ तथाकथित बड़े चैनलों ने तो खबर ही नहीं दिखाई। जिन्होंने दिखाई उन्होंने भी यही बताया कि कासगंज में दो गुटों के झगड़े में एक युवक की मौत हो गई। ‘दो गुटों के झगड़े’ की भाषा सुनते ही लोग समझ जाते हैं कि हमलावर कौन होगा व पीड़ित कौन। सोशल मीडिया पर लोगों ने पूछना शुरू किया कि ‘दूसरा गुट’ कौन था, जिसने तिरंगा लेकर जा रहे नौजवानों पर गोली चलाई? ट्रेन में सीट के झगड़े में भी कोई मुसलमान मर जाए तो मीडिया आरोपी का मजहब बताना नहीं भूलती। यह बताया जाता है कि वह इसलिए मारा गया, क्योंकि मुसलमान था। इंडियन एक्सप्रेस, न्यूज18, इंडिया टुडे, एबीपी न्यूज ने कहा कि तिरंगा यात्रा ‘अवैध’ थी। दरअसल मीडिया ने जिलाधिकारी से पूछा कि क्या प्रशासन से तिरंगा यात्रा की अनुमति ली गई थी। इस पर उनका जवाब था- नहीं। चैनलों ने इसे अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ दिया। लोग पूछ रहे हैं कि क्या 26 जनवरी को तिरंगा फहराने के लिए भी अनुमति लेनी पड़ेगी?
जिहादी पत्रकार खबरों में यह खेल सोची-समझी साजिश के तहत करते हैं। तिरंगा यात्रा को ‘अवैध’ लिखने के पीछे मंशा होती है कि लोग वैध-अवैध में ही उलझे रहें। असली हत्यारों, उनके मकसद पर ध्यान न जाए। ज्यादातर चैनलों ने उस जगह को दिखाया जहां से झगड़ा शुरू हुआ। लेकिन यह कैसे हुआ इसे बताने के बजाय पूरी ताकत यह समझाने पर लगाई कि मुसलमान भी वहां तिरंगा फहरा रहे थे। चैनलों ने प्रायोजित बयान दिखाए ताकि किसी तरह साबित किया जा सके कि तिरंगा यात्रा निकालकर चंदन गुप्ता और उसके देशभक्त साथियों ने बहुत बड़ी गलती की थी। एबीपी न्यूज व एनडीटीवी यह बताने में व्यस्त रहे कि मुस्लिम वर्ग झंडा फहराने वाला था। किसी ने नहीं पूछा कि एक तिराहे को पूरी तरह बंद करके 10 बजे के बाद झंडा फहराने और उस रास्ते से किसी दूसरे को न जाने देने की जिद के पीछे क्या मंशा थी?
आजतक चैनल ने आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता की तरह काम करने वाले रिपोर्टर को कासगंज भेजा। बेहद शातिर तरीके से चुन-चुनकर उन बयानों को दिखाया ताकि चंदन व उसके साथियों को दोषी साबित किया जा सके। अपराध यह कि उसने ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का नारा लगाया। जहां हत्याकांड पर भ्रम फैलाया जा रहा था, वहीं यह साबित करने की कोशिश थी कि मुसलमान भी हिंसा का शिकार हुए हैं। इसके लिए कुछ फर्जी पीड़ितों को सामने लाया गया। पुलिस ने सफाई दी कि आंख पर चोट वाले जिस व्यक्ति को हिंदुओं की हिंसा का पीड़ित बताया जा रहा है वह सड़क दुर्घटना में घायल हुआ। पर मीडिया ने झूठ का जाल बुनना जारी रखा। हालांकि रिपब्लिक टीवी ने कासगंज की सचाई व सेकुलर मीडिया के दोहरे रवैये पर अच्छा कार्यक्रम किया। पत्रकारों का बड़ा तबका सेकुलरवाद के नाम पर इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा देता है। ये लोग खुद को प्रगतिशील बताते हैं, पर संकुचित जातीय सोच से आगे कभी बढ़ नहीं पाए। तभी उन्हें महान संगीतकार इल्लयाराजा को पद्म विभूषण दिए जाने में भी उनकी ‘दलित’ पहचान याद आती है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को इस बारे में अपनी खबर पर माफी मांगनी पड़ी।
चैनलों ने लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। शुरुआत राहुल गांधी के नए संस्करण के ‘लॉन्च’ के साथ हुई है। उन्हें गंभीर राजनेता साबित करने के लिए कांग्रेस प्रायोजित मीडिया ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। 26 जनवरी की परेड में प्रोटोकॉल के मुताबिक राहुल को छठी लाइन में बैठाने पर कांग्रेस से ज्यादा कुछ पत्रकारों को ठेस पहुंची। राहुल ने विमान में एक यात्री का सामान उतारने में मदद की तो सभी चैनलों व अखबारों में खबर आ गई। यह करोड़ों रुपये का असर है जो हर चुनाव से पहले कांग्रेस के ‘शहजादे’ की छवि चमकाने को देश-विदेश की कंपनियों पर खर्च किए जाते हैं।
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