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हिन्दी किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं है। इस तथ्य को बार-बार दोहराने से मान लिया गया है कि जैसे बांग्ला या तमिल क्षेत्र हैं, वैसे ही देश में एक अलग हिन्दी क्षेत्र है। हिन्दी को लेकर देश में व्यापक रूप से जो भ्रांतियां फैली हुई हैं, उसका एक कारण यह भी है कि हम हिन्दी की गलत परिभाषा से शुरुआत करते हैं
शंकर शरण
अभी हाल संपन्न हुए जयपुर साहित्य महोत्सव में शशि थरूर ने कहा कि हिन्दी में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बोलने से समझेगा कौन? उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दी सभी भारतीयों की भाषा नहीं है। शशि थरूर जैसे ‘विद्वान’ के मुख से ऐसी बातें उन भारी गलतफहमियों का नतीजा हैं, जो हमारे बौद्धिक वर्ग में घर कर गई हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्होंने इस तथ्य पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया कि भारत में हिन्दी सचमुच किसकी भाषा है?
हिन्दी के बारे में भ्रामक धारणा
इस बीच हिन्दी की स्थिति, भूमिका और उसके क्षेत्र के संदर्भ एक भ्रामक धारणा फैल गई है। केवल बार-बार दोहराने से मान लिया गया है कि जैसे बांग्ला या तमिल क्षेत्र हैं, वैसे ही देश में एक अलग हिन्दी क्षेत्र है। अनेक हिन्दी लेखकों ने भी ‘हिन्दी प्रदेश’ या ‘हिन्दी जाति’ के बारे में जिस निरंतरता से लिखा, उससे ‘हिन्दी क्षेत्र’ को एक रूढ़ सत्य-सा मान लिया गया है। जबकि सचाई यह है कि हिन्दी किसी प्रदेश या क्षेत्र की ही भाषा नहीं है। यह किसी के भी स्वयं परखने की बात है।
बांग्ला, तमिल की तरह भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, अवधी, मागधी, अंगिका, वज्जिका, छत्तीसगढ़ी, कुमाऊंनी, गढ़वाली आदि के क्षेत्र हैं। किंतु हिन्दी का अपना कोई प्रदेश नहीं है। वह पूरे देश का स्वर है या कहीं का नहीं है। दोनों ही बातें अभी भी देखी-परखी जा सकती हैं।
समग्र संस्कृति की संवाहिका
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन (अज्ञेय) के शब्दों में, हिन्दी ‘एक समग्र संस्कृति की संवाहिका’ है। इसीलिए हिन्दी राष्ट्रीय भावनाओं तथा नए विचारों, प्रवृत्तियों को ग्रहण, संश्लेषण कर उन्हें पुन: देश के हर कोने में पहुंचा कर ‘क्लीयरिंग हाऊस’ (समाशोधन गृह) का काम भी करती रही है। अज्ञेय मूलत: पंजाबी थे, किन्तु अपने गहरे, विविध, राष्ट्रव्यापी अवलोकन से उन्होंने भारतीय भाषाओं की स्थिति को सटीक रूप में समझा था। उनके विचार से ‘‘हिन्दी को लेकर देश में व्यापक रूप से जो भ्रांतियां फैली हुई हैं, उसका एक कारण यह भी है कि हम हिन्दी की गलत परिभाषा से आरंभ करते हैं।’’ वस्तुत: जिसे हिन्दी कहा जाता है, वह एक खड़ी बोली है। जैसे अवधी, भोजपुरी, आदि अन्य संबद्ध बोलियां हैं। अत: ‘‘यह अकारण न था कि आधुनिक युग में राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ हिन्दी का समर्थन खड़ी बोली के प्रदेश से न उठकर कलकत्ता और बंबई से आरंभ हुआ था।’’ इस बात पर विचार करें तो हिन्दी का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट होगा।
मनीषियों ने माना राष्ट्रभाषा
राष्ट्रीय आंदोलन में हिन्दी को राष्ट्रीय संपर्क भाषा बनाने के प्रयास कलकत्ता और बंबई से हुए थे, न कि पटना, इलाहाबाद या भोपाल से। बाद में भी इसके लिए सर्वाधिक प्रयत्न एक गुजराती गांधीजी ने किए। मराठी के तिलक महाराज, बांग्ला के रवींद्रनाथ ठाकुर और तमिल के सुब्रह्मण्यम भारती जैसे मनीषियों ने हिन्दी को विकसित करने की अनुशंसा की। साधारण इतिहास भी यही इंगित करता है कि हिन्दी किसी क्षेत्र विशेष की भाषा न थी। इसलिए इसके प्रति किसी क्षेत्र विशेष के लोगों का आग्रह नहीं था। न ही कोई क्षेत्र या प्रांत हिन्दी को किसी ‘पराए’ क्षेत्र की भाषा समझता था। सबको परायापन मात्र अंग्रेजी से महसूस होता था। आज भी वही स्थिति है, भले ही इसे देख कर भी न देखें। जब संविधान सभा में कृष्ण स्वामी अय्यर, गोपाल स्वामी आयंगर, टी.टी. कृष्णामाचारी जैसे दक्षिण भारतीय दिग्गजों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया, तो यह कोई अनोखी बात नहीं समझी गई थी। इस स्वीकृति के पीछे देश-प्रेम और संपूर्ण देश की भावना थी। जैसे ही आप पूरे देश के संपूर्ण जन-गण की भागीदारी व उत्थान की बात सोचते हैं, वैसे ही अंग्रेजी को शासकीय पद से तत्काल अपदस्थ करना अपरिहार्य लगेगा। यह पहला और मूलभूत कदम होगा। यह संपूर्ण परिस्थिति अनुकूल थी जब एक सामान्य निर्णय से अंग्रेजी को शासन-शिक्षा के पद से हटा दिया जाता। पूरा देश इसके लिए मानसिक रूप से तैयार था। इसी कारण अंग्रेजी अखबार मालिकों ने पहले से अपने हिन्दी संस्करण निकालने आरंभ कर दिए थे। वे स्वभाविक मान रहे थे कि अब अंग्रेजी की सत्ता जाने वाली है। सो, संविधान बनते ही 1950 में अंग्रेजी को वैसे ही एक निर्णय से हटाया जा सकता था, जैसे इंग्लैंड में 1650 में फ्रांसीसी को हटाया गया था। ऐसा होता तो यह एक सामान्य, स्वभाविक काम माना गया होता!
भारी पड़ी भूल
किंतु अज्ञान, आलस्य और आत्मघाती उदारता से तब जो एक छोटी-सी भूल (या मूर्खता) की गई, उसने आज पूरे देश के बौद्धिक-शैक्षिक-राजनीतिक जीवन को कैंसर की तरह गिरफ्त में ले लिया है। हमारे राजनेता वह भूल करते हुए कितने भ्रम में थे, इसे हम आज ठीक-ठीक समझ भी नहीं सकते। पर आज न कल, समझना ही होगा कि अंग्रेजी माध्यम पर निर्भरता ने हमें किसी बौद्धिक उपलब्धि की चाह से भी हीन बना दिया है।
अपनी भाषा में काम करने, उसे समृद्ध करने के बदले भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया जाता है, ताकि लोग स्वत: अंग्रेजी-अंग्रेजी की मांग करें। जाने-अनजाने थरूर इसी को हवा दे रहे हैं। यहां अंग्रेजी को स्थाई विशेषाधिकारी स्थिति में रखकर सारी बात होती है। यह संभावना रखने ही नहीं दी जाती कि शासन, उच्च-शिक्षा, शोध आदि के लिए कोई भारतीय भाषा भी हो सकती है! सारी समस्या और मूल बिन्दु यही है। सदियों से गुलाम रहे भारतीयों की हीन मानसिकता के सहारे यह स्थिति बनाए रखी गई है कि वे किसी भारतीय भाषा में काम करने की बजाए एक विदेशी भाषा को स्वीकार करें, ताकि सभी भारतीयों को ‘एक जैसी कठिनाई’ हो। कितना दयनीय, दासोचित तर्क! इसमें छिपा एक झूठा संकेत यह भी रहता है कि किसी भारतीय भाषा को स्थान देने से कुछ भारतीयों को आसानी होगी और दूसरों को कठिनाई। इसी में दूसरी झूठी मान्यता यह है कि हिन्दी किसी क्षेत्र-विशेष की भाषा है। इसीलिए स्वयं विचार करना चाहिए।
हिन्दी क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं
कथित हिन्दी-क्षेत्र एक नितांत दोषपूर्ण धारणा है। वस्तुत: हिन्दी यहां किसी प्रदेश के जीवन के साथ एकात्म बोली नहीं है। जिसे गलती से हिन्दी प्रदेश कहा जाता है, वह कई विशिष्ट भाषाओं का अपना-अपना सहज क्षेत्र है। इस सब को हिन्दी क्षेत्र कहने का भ्रम इसलिए चलता है, क्योंकि ये सभी भाषाएं देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। इस कारण इन सभी भाषाओं को हिन्दी की विविध बोलियां समझ लिया जाता है। किन्तु ध्यान दें, यदि बांग्ला या गुजराती को देवनागरी में लिखें तो वह मैथिली या मागधी जैसी ही हिन्दी के निकट या दूर लगेगी। कितने लोगों ने ध्यान दिया है कि हमारा राष्ट्र-गीत और राष्ट्र-गान दोनों ही बांग्ला गीत और गान हैं? परन्तु देवनागरी में लिखने पर किसी को वह बांग्ला नहीं लगता। वही स्थिति गुजराती, तेलुगु, पंजाबी, कन्नड़ और यहां तक कि उर्दू के साथ भी है। अत: हिन्दी किसी क्षेत्र की विशेष की भाषा नहीं है। वह भारत के सभी भाषा-भाषियों के सम्मिलित योगदान से बनी है। उसकी कोई विशिष्ट या अलग शब्दावली नहीं है। इसीलिए वह पूरे भारत में बोली, समझी जाती है। वह या तो पूरे भारत देश की भाषा है या कहीं की नहीं। यही हिन्दी की पहचान और भूमिका है। वह सभी विवेकवान, देशभक्त भारतीय की भाषा है। यह संयोग नहीं है कि हिन्दी का विरोध करने वाले प्राय: राष्ट्रीय एकता की भी परवाह नहीं करते। या उतनी नहीं करते।
अज्ञेय ने दिया था सुझाव
इसके विपरीत, जो भारत से प्रेम रखने वाले हैं, वे हिन्दी के प्रति कभी दुराग्रह नहीं रखते, क्योंकि चेतन-अवचेतन वे इस सत्य को समझते हैं कि भारत की सांस्कृतिक अस्मिता के साथ जो संबंध संस्कृत का है, कमोबेश वही हिन्दी का भी है। चूंकि इस मूल सत्य को देश के नीतिकारों ने नहीं समझा, इसीलिए हिन्दी तथा परिणामस्वरूप सभी भारतीय भाषाओं के प्रति उपेक्षा ही व्यवहार नीति बन गई। हिन्दी के प्रति सही समझ वस्तुत: सभी भारतीय भाषाओं के सशक्त होने का भी माध्यम बनती। इसके विपरीत अंग्रेजी को विशेष स्थान देकर सभी भारतीय भाषाओं को क्षति पहुंचाई गई। इस अर्थ में भी हिन्दी के जीवन-मरण-स्वास्थ्य से सभी भारतीय भाषाओं का जीवन-मरण-स्वास्थ्य जुड़ा है।
इसीलिए अज्ञेय ने कहा था कि भारत में एक भाषा के बदले एक लिपि, देवनागरी, को स्थापित किया जाए तो भाषा की समस्या अपने आप समाधान ढूंढ लेगी। लेकिन इन महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाकर सभी भारतवासियों को ‘एक जैसी कठिनाई’ की गुलाम मानसिकता का तर्क देकर अंग्रेजी का वर्चस्व स्वीकार किया और करवाया जाता है। इसमें सबसे सरल और प्रत्यक्ष बात भी छिप जाती है। वह यह कि देवनागरी में लिखी कोई भी भारतीय भाषा किसी भारतीय को अंग्रेजी की तुलना में कई गुना सरल और सहज लगेगी। उस पर अधिकार करना किसी के लिए एक-दो वर्ष की ही बात होगी, जो अंग्रेजी के लिए पूरा जीवन लगाकर भी सामान्यत: किसी के लिए कभी संभव नहीं होगा।
दुनिया तो समझ ही लेगी
जहां तक ‘अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिन्दी बोलने से समझेगा कौन?’ वाली बात है, तो उन्हीं मंचों पर रूसी, जापानी, हिब्रू, जर्मन आदि भी बोली जाती हैं। जैसे उन्हें सब समझते हैं, वैसे ही हिन्दी को भी समझते हैं। अर्थात् उसी समय समानान्तर अनुवाद के प्रसारण द्वारा। यह बड़ी मामूली, दशकों पुरानी और सस्ती तकनीक है। किसी भी भाषा को पूरी दुनिया में सब लोग नहीं समझते। इसलिए बात बोलने वाले और बात के महत्व की है। यदि वह महत्वपूर्ण हो, तो दुनिया के कोने-कोने में उसे समझ लिया जाता है। इसीलिए जरूरी यह है कि हम जो बात बोलें, वह सचमुच भारत के हृदय की बात, मौलिक और मूल्यवान हो। ऐसी बात स्वभावत: अपनी भाषा में ही बेहतर बोली जा सकती है! जब हम ऐसा बोलने लगेंगे तो दुनिया हमें उसी तरह सुनेगी, जैसे वह संस्कृत में समस्त ज्ञान को सदियों से जानती, सुनती और गुनती रही है।
भारत की पहचान किससे?
शशि थरूर को यह जांच कर लेनी चाहिए कि दुनिया में आज भी भारत की पहचान यहां की भाषा में रचित उपनिषद्, योगसूत्र, रामायण, नाट्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि से है या अंग्रेजी में लिखित नीरद चौधरी, खुशवन्त सिंह, शोभा डे आदि से? तब यह अधिक स्पष्ट हो जाएगा कि किसी समाज की आंतरिक रचनात्मकता एवं मौलिकता उसकी अपनी भाषा से अनिवार्यत: जुड़ी हुई है। दुनिया में मौलिकता का महत्व है, माध्यम का नहीं। अत: यदि स्वतंत्र भारत में मौलिक चिंतन, लेखन का ह्रास होता गया है तो ठीक उसी कारण से जिसकी थरूर उपेक्षा कर रहे हैं। यहां मौलिक लेखन, चिंतन अंग्रेजी में नहीं हो सकता। कम से कम तब तक, जब तक आॅस्ट्रेलिया, अमेरिका की मूल सभ्यता की तरह भारत सांस्कृतिक रूप से संपूर्णत: नष्ट नहीं हो जाता और अंग्रेजी यहां सब की एकमात्र सामान्य भाषा नहीं बन जाती। उसमें एकाध सदी लगेगी, लेकिन तब तक आम तौर पर भारत अंग्रेजी में कुछ भी क्यों न बोलता रहे, वह वैसी ही पश्चिमी जूठन की जुगाली होगी, जिसकी बाहर कहीं कोई पूछ नहीं हो सकती। आखिर भारत के नेता, प्रोफेसर और बौद्धिक लोग विगत सत्तर साल से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सब कुछ अंग्रेजी में ही बोलते रहे हैं। क्या कहीं, किसी विषय में उन बातों ने कोई छाप छोड़ी है? कहीं उसका कोई संदर्भ लिया जाता है? विगत अनेक दशकों में यूरोप के छोटे-छोटे देशों, जापान, रूस, आदि में अधिक मौलिक लेखन, चिंतन को दुनिया भर में नोट किया गया। उनकी तुलना में भारत का साहित्यिक, वैचारिक अवदान क्या रहा? इसमें सलमान रुश्दी या विक्रम सेठ जैसों को नहीं गिनना चाहिए, क्योंकि मूलत: वे भारत त्याग कर पश्चिम में बस चुके या पूर्ण पश्चिमी हो चुके हैं। उनमें भारत के अवशेष भले हों, उनमें भारतीय समाज नहीं बोलता। सच तो यह है कि जब तक हम अपनी भाषाओं में मूल शिक्षण, लेखन, विमर्श, तमाम बौद्धिक-प्रशासनिक कार्य करने पर नहीं लौटेंगे, हम कभी उन देशों के समकक्ष नहीं हो सकते जो अपनी भाषाओं में मूल कार्य करते हैं। वस्तुत: सांस्कृतिक शक्ति ही मूल शक्ति है, जिसके लिए अपनी भाषा में खड़ा होना अपरिहार्य है। अन्यथा हम अच्छे मैसी साहब, सूटेड-बूटेड गंगादीन या विदेशों में भले सज्जन कर्मचारी ही बने रहेंगे। शशि थरूर जैसे अपवाद इस तथ्य की कारुणिक पुष्टि करते हैं।
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