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इतिहास के पन्नों से, पाञ्चजन्य वर्ष: 14 अंक: 13 3 अक्तूबर ,1960
हड़ताल में साम्यवादियों की शक्ति बहुत ही कम लगी थी। केवल एक कैमरामैन ‘रैडब्रिजने’, जो शायद जर्मनी से भेजा गया था, उसी के द्वारा मनगढ़ंत समाचारों और चित्रों ने इस हड़ताल को, उनके हित में सफल बना दिया था।
साम्यवादियों द्वारा संगठित ‘कैमरामैन दल’ का भण्डा-फोड़ सर्वप्रथम चैकोस्लोवाकिया के प्रमुख समाचार-पत्र के संपादक श्री ‘‘विलेमनोवी’’ ने किया था। इसी के परिणामस्वरूप बेचारे संपादक को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े, एक रात साम्यवादियों ने उसकी हत्या कर डाली। कुछ भी सही यह सब संदेह मात्र ही थे, तथ्यों से इनका कोई वास्ता नहीं था। यह भी सत्य ही है कि इन सन्देहों के पीछे अपने मन की कोई शरारत नहीं थी। इसलिए संदेहों के शूल ने जैसे ही विस्मूर्ति की परतों को कुरेदा वैसे ही कुछ प्रामाणिक तथ्य भी सामने आए बिना न रह सके। जैसे पहली जून को प्रमुख समाचार पत्रों में छपा- ‘‘भारतीय अधिकारियों का जो दल, भारत-चीन सीमा संबंधी वार्ता केलिए पेकिंग जाने वाला है, वह अपने साथ जो-जो अहम (समस्या मूलक) कामजात और नक्शे ले जाने वाला है, वे देहरादून सर्वे आॅफिस में सुरक्षित रखे हैं।’’ तीन जून का समाचार है कि पेकिंग जाते हुए कलकत्ता हवाई अड्डे पर चाय पीते समय भारतीय अधिकारियों की फाइल के कुछ कागजात गुम हो गए हैं। इन दोनों समाचारों के बाद क्या यह अनुमान लगाना गलत हो सकता है कि प्रथम समाचार के आधार पर ही, फाइलों से कागजात गुम हुए हैं और संभवत: उन कागजों में भी वे दस्तावेज नहीं हैं जिनकी उन्हें खोज थी और अंत में इन्हीं दस्तावेजों को प्राप्त करने या नष्ट करने की गरज से ही सर्वे आफिस देहरादून पर बिजली गिर पड़ी हो तो आश्चर्य की कोई बात नहीं है? यह कार्य तो साधारण है। पाठकबंधु जानते होंगे कि अमेरिका की 28 वर्षीय युवती इथल ने अपने छोटे भाई ग्रीनग्लास द्वारा एलामास में बनने वाले कांच के विशेष लेंस से चित्र से उससे संबंधित प्राविाधिक बातों को किस ढंग से उड़ाया था। रूसी कार्यालय मास्को तक भेजकर साम्यवाद के प्रति अपनी आस्था को प्रकट किया था। इस कार्य को पूरा करने के लिए इथल ने अपनी छोटी बहन को संकट में डाला, बहनोई को जेल भेजा और पति को बर्बाद किया परंतु अपने मार्ग से तनिक नहीं हटी।
इस भण्डार-कक्ष के समाप्त हो जाने पर देरहादून सर्वे के प्रधान अधिकारी श्री गंभीर सिंह ने एक प्रेस विज्ञप्ति देते हुए कहा कि इस भण्डार-कक्ष में न जरूरी कागजात थे और न ही नक्शे। कुछ सामान जैसे कागज, कुछ पैट्रोल आदि की ही हानि हुई है। एक ओर लोग इस विज्ञप्ति को पढ़ रहे थे और दूसरी ओर सुन रहे थे कि सर्वे के चित्र कक्ष में भी आग लग गयी है। क्या यह भी वैसी ही बात नहीं हुई जैसी अमेरिका के बरमिंघम हाऊस के एटम बम विभाग में घटी थी? फूक्स नाम का जर्मन युवक-युवावस्था से साम्यवादी बन चुका था, जर्मनी से इंग्लैंड पहुंचा, फ्रांस हार चुका था, जर्मनी द्वारा इग्लैंड पर आक्रमण का भय बन चुका था। एक रात वरमिंघम हाऊस के एक भाग में ऐसी ही घटना घटी जिसका उद्देश्य एटम बम के प्राविधिक निर्देशों को नष्ट करना था।
दूसरों को पीड़ा देना अधर्म, सुख देना धर्म
जिस सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच अर्थात् समाज के व्यवहार में परस्पर अनुकूलता होगी वहां व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसका सम्मान सुरक्षित होगा। व्यक्ति स्वतंत्र है, इस बात के लिए कि वह दूसरों के लिए अनुकूल किस प्रकार बन सकेगा? अपने जीवन में दूसरों के लिए अनुकूल बनने के भाव में स्वयं सक्षम और समर्थ होना आवश्यक होता है। अनुकूल वही हो सकता है, जिसकी अपनी सत्ता हो। अनुकूल होने में दूसरों पर अवलम्बित होना नहीं है। अवलम्बन में दीनता और स्वार्थ है। परतंत्रता का भाव नहीं है। दूसरों के प्रति अनुकूल आचरण करने की स्वतंत्रता है। यानी परस्पर अनुकूल बनने में अपना पुरुषार्थ प्रकट होता है। इस प्रकार व्यक्ति में निहित शक्तियों का अधिकारिक उपयोग कर दूसरों का भला करने की भावना में सतत् विकसित होने का अवसर मिलता है।
परस्परानुकूलता में जो पुरुषार्थ प्रकट होता है, वह साधारण बात नहीं है। यही समाज की धारणा-शक्ति है जिसे हमारे यहां धर्म कहा गया है। यानी कर्तव्य का महत्व आ उपस्थित हुआ। हमारे वे सभी कार्य जो समाज की धारणा के लिए हों ‘धर्म’ ही वह सबसे बड़ा पुरुषार्थ है जिस पर समाज के अन्य सभी पुरषार्थ टिके हैं। व्यक्ति और समाज दोनों के परस्पर संबंधों में स्वतंत्रता की कड़ी बैठाने वाला यह धर्म है। इसीलिए धर्म की व्याख्या करते हुए महाभारतकार ने सार बात बताई कि भाई, धर्म कितना ही गूढ़ हो, परंतु यह सामान्य सी चीज है कि दूसरों को पीड़ा पहुंचाना अधर्म है और दूसरों को आनंद पहुंचाना धर्म है। यही धर्म है कि हम आपस में अनुकूल बनें। वही व्यवहार, आचरण, चेष्टा, प्रयत्न, चिन्तन, व्यवस्था श्रेष्ठ है जो परस्परानुकूल हो। हम सबका विचार लेकर कार्य करें और सभी इस प्रकार व्यवहार करें तो सुख की वर्षा अवश्य होगी।
परस्परानुकूलता पर आधारित यह व्यवहार-चक्र न केवल सुखद वरन चैतन्यपूर्ण भी रहता है। इसमें न बोध की मजबूरी और न मजदूरी की मांग। इसमें न दूसरों के सामने हाथ पसारने की दीनता और न ही अपनी शक्ति स्वतंत्रता-सत्ता को केवल अपने ही लिए बचाए रखने का लालच। इसमें स्वयं अधिकारिक उपयोगी होने की सात्विक चाह है। यही विशालता है। कहा गया है कि संकुचितता में दु:ख और विशालता में सुख है। यह मेरा नहीं, समाज का है।
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (पाञ्चजन्य, 23, जनवरी,1994, पृष्ठ 41 से)
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