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कासगंज उत्तर प्रदेश में है। श्रीनगर जम्मू-कश्मीर के कश्मीर में है और मेवात हरियाणा में पड़ता है। आप कहेंगे कि जो बात सब जानते हैं, उसे दोहराने का मतलब! मतलब है! भूगोल के भिन्न होने के बावजूद इन तीन जगहों से पिछले दिनों कुछ ऐसी खबरें आर्इं जिनमें एक असामान्य साझापन है।
पहली खबर कासगंज से जहां गणतंत्र की जयकार लगाते, तिरंगा लहराते युवकों पर मुस्लिम बहुल मुहल्ले में गोलियां चलाई गर्इं। इस इकतरफा गोलीबारी में एक युवक मारा गया।
दूसरी खबर कश्मीर से जहां घाटी के नायब मुफ्ती नासिर-उल-इस्लाम एक समाचार एजेंसी से बात करते हुए फरमाते हैं कि मुसलमानों को अब भारत से अलग हो जाना चाहिए।
तीसरी खबर देश की राजधानी से सिर्फ 80 किमी. दूर मेवात से जहां अनुसूचित जाति के हिन्दुओं को मुस्लिम दबंगों द्वारा इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाते हुए मारा-पीटा गया और मुसलमान न बनने पर गांव छोड़ने की ‘धमकी’ तक दी गई। गौर करने वाली बात यह कि इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को अधकचरे, असंवेदनशील और बेहद आपत्तिजनक तर्कों से ढकने की कोशिशें भी हुर्इं। कासगंज मामले में कहा गया कि तिरंगा यात्रा जान-बूझकर मुस्लिम मुहल्ले से निकाली गई और यहां ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगाए गए!
अजीब बात है—क्या मुस्लिम मुहल्लों में तिरंगा वर्जित है! और क्या यहां ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए चलना इतना जरूरी है कि ऐसा न करने पर किसी के ऊपर हमला किया जा सकता है? कमाल है! जनता को छलनी करने वाला अपराधी कौन था? उसके पास असलहा आया कहां से? इन मुहल्लों में ऐसा और कितना असलहा और अपराध छुपे हो सकते हैं? पर इन गंभीर आपराधिक सूत्रों की जरा चर्चा न करते हुए बात गणतंत्र दिवस का जुलूस निकाल रहे युवकों की गलती बताते हुए मामले को मोड़ने की कोशिश हुई। कुछ प्रशासनिक अधिकारियों और मीडिया के एक धड़े ने यह कोशिश की। हालांकि सूबे में योगी सरकार की सख्ती और तत्परता ने चीजें बिगड़ने नहीं दीं।
कश्मीर में मुसलमानों की बदहाली बताते और अलग देश की जरूरत गिनाते मुफ्ती नासिर का तर्क तो और भी गजब है। उनका कहना है कि ‘‘उस समय सिर्फ 17 करोड़ मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाया ..आज 20 करोड़ मुसलमान दूसरा देश क्यों नहीं बना सकते?’’ यानी बकौल मुफ्ती, भारत में रह रहे मुसलमान सिर्फ मुसलमानों के साथ खुश रह सकते हैं और वे अपनी संख्या कम होने के कारण चुप हैं वरना उन्हें एक न एक दिन तो अलग होना ही है!
मेवात की घटना पर भी शायद कुछ ऐसे ही तर्कों की छतरियां तनतीं, किन्तु चूंकि देहाती इलाके की यह खबर पहले ही दब गई थी, इसलिए उनकी जरूरत ही नहीं पड़ी। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि तीनों घटनाएं सिर्फ खबरें नहीं हैं, इनमें कुछ साझे तत्व हैं। ऐसे तत्व जो आगे चल घटनाक्रमों और जन चर्चाओं को खास दिशा दे सकते हैं। साझेपन की पहली सीढ़ी यह तथ्य है कि घटनाओं के केन्द्र में मुस्लिम उद्दंडता है। इससे ऐसे उन्मत्त हुजूम की छवि उभरती है जो कानून को ठेंगे पर रखता है और गैर मुसलमानों से नफरत की हद तक दूरी और दुर्व्यवहार रखता है।
दूसरी साझा बात यह कि तीनों घटनाओं के केंद्र वे राज्य हैं जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अथवा इसके गठबंधन की सरकारें हैं। तभी कानून और व्यवस्था का प्रश्न उठाते हुए राज्य सरकार और भाजपा आलोचकों के स्वर एक हो जाते हैं। हल्ला ऊंचा उठता है और विपक्षी दलों को भरपूर मौका मिलता है।
घटनाओं का तीसरा साझा और आश्चर्यजनक रूप से भविष्य में दबा पहलू यह भी है कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मुद्दों पर भाजपा विरोध का बवंडर विशुद्ध रूप से कानून-व्यवस्था का मामला बनता जाता है और फिर मुसलमानों के अराजक-उपद्रवी आक्रोश का मीडिया, राजनीति और प्रशासन द्वारा संज्ञान लेने से पहले ही इस उपद्रव को उनकी पिछड़ी स्थिति से जोड़ दिया जाता है।
कानून-व्यस्था के नाम पर इस ऊंचे शोर और बवंडर में असामान्य के सामान्यीकरण यानी इतने पर भी जैसे कुछ हुआ ही नहीं, का एक घातक खेल भी खेला जा रहा है।
कासगंज में उकसावे और लड़ाई में एक युवक की मौत ही तो हुई है!
हरियाणा में अनुसूचित जातियों पर अत्याचार की यह कौन-सी पहली घटना है?
और कश्मीर! वहां तो यह होता ही है!! यानी!! यानी, आप भी क्या बातें लेकर बैठ गए!
यानी, कुछ और बात करिए। क्योंकि, जो यह कर रहे हैं उन्हें तो यह करना ही है। आपका काम है, चुप रहना और अपने काम से काम रखना। आप को चुप करने और छंटे हुए लोगों के आहिस्ता से चुप्पी ओढ़ लेने की यह बिसात करीने से बिछाई गई है। गौर कीजिए- बरेली दंगे के दौरान कई समाचार चैनलों ने तौकीर रजा का नाम खबरपट्टी पर भी यह कहते हुए नहीं चलाया कि ‘इससे सामाजिक सद्भाव बिगड़ता है’, वहीं कासगंज मामले में
मुसलमानों को पीड़ित बताते हुए कई एकतरफा खबरें चलीं! दंगों की रिपोर्टिंग की यह कसौटी कौन-सी है?
रोहित वेमुला पर रोने वालों को मेवात में अनुसूचित जातियों पर ‘इस्लाम’ का हमला नहीं दिखा। गुजरात के ऊना में कथित ‘दलित उत्पीड़न’, की खबर लगते ही दौड़ लगाने वाली बहन जी तक को यह हमला नहीं दिखता! और तो और अखलाक के घर जाकर रुंधे गले से मातमपुर्सी करने वाले ‘सरजी’ को भी यह नहीं दिखता!
मीडिया तो तटस्थ है ना!!
बहन जी आप तो खुद अनुसूचित जाति से हैं ना?
सरजी, आप हरियाणा से ही तो हैं ना?
और कॉमरेड! तुमसे बढ़कर मानवाधिकारों का चैम्पियन और कोई कहां है?
लेकिन विडंबना देखिए.. वास्तव में कोई भी, कहां है? कोई नहीं है!
अजीब सन्नाटा और अंधेरा है!
गरीब, मजलूमों की दर्दमंदी और तमाम प्रगतिशीलता बुक्कल मारे बैठी है! खेल यही है। चंदन की लाश की दहक, मेवात से उठती सिसकियां और घाटी से उठती गुर्राहट बता रही है कि खेल यही है। घटनाएं होंगी, बवंडर होंगे, आंसू भी होंगे लेकिन प्रगतिशील संवेदनशीलता की जगह मक्कार सियासत होगी।
— ‘तिरंगे के लिए गिरी लाश पर न कोई आंसू गिरेगा’ न कोई सवाल उठेगा।
— मुस्लिमों के अलग देश की मांग पर न त्यौरियां चढ़ेंगी, न कोई उंगली उठेगी।
..और मेवात! क्या बात करते हैं!
बाबासाहब ने चाहे जो कहा हो, आज ‘इस्लाम’ ने अनुसूचित जातियों के साथ चाहे जो सुलूक किया हो, मेवात का मातम कोई नहीं मनाएगा, कोई गला नहीं रुंधेगा.. क्योंकि ‘जयभीम और जयमीम’ के नारे रुंधे गले से कैसे लगाए जा सकते हैं? खेल यही है, बिसात यही है।
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