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संत रविदास या रैदास एक ऐसे संत के रूप में सदा याद किए जाते रहेंगे जिन्होंने समाज में समरसता का भाव भर कर उसे एक सूत्र में पिरोने के लिए अपना जीवन लगाया था। उनके दिए सूत्र आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि आज भी जाति के नाम पर विद्वेष फैलाने वाले तत्व राजनीतिक बाने में सक्रिय हैं
पूनम नेगी
भारत में मजहबी मतान्तरण के विरोध में स्वर मुखर करने वाले भक्तिकालीन संतों में संत रविदास या रैदास की गणना प्रमुखता से होती है। उन्होंने आततायी विदेशी मुगलिया शासक सिकंदर लोधी के आतंक व अनैतिक आचरण के खिलाफ न सिर्फ आवाज उठाई वरन् जबरन मतान्तरित किये गये लोगों की स्वधर्म-वापसी भी करायी। मध्ययुग के दिशाभ्रमित समाज को उचित दिशा देने वाले इस महान संत का समूचा जीवन ऐसे तमाम अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्य को सच्चा मार्ग अपनाने को प्रेरित करते हैं। अपने संदेशों और काव्य रचनाओं के जरिये उन्होंने मानव को जीवनयापन की जो विधियां सिखाईं, वे आज भी उतनी ही सामयिक-प्रासंगिक हैं जितनी तब थीं।
माघी पूर्णिमा के दिन काशी के मडुआडीह गांव में रघु व करमाबाई के पुत्र के रूप में जन्मी इस विभूति ने जीवनयापन के लिए अपने पैतृक चर्मकार्य को चुना, मगर अपनी अनूठी विद्वता के आधार पर उन्होंने जिस समतामूलक समाज की परिकल्पना की; वह अपने आपमें क्रान्तिकारी है। वे सामाजिक समानता तथा समरसता के लिए सतत् जनजागरण करते रहे। संत कबीर के समसामयिक व उनके गुरुभाई रैदास ने ‘जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’ उक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाया था। हमारी सामाजिक व्यवस्था मूलत: मध्यकालीन भक्ति आंदोलन से उपजे दया, प्रेम, करुणा, क्षमा, धैर्य, सौहार्द, समानता, विश्व-बंधुत्व और सत्यशीलता जैसे चारित्रिक गुणों पर ही आधारित है।
संत रैदास के समय देश में आततायी मुस्लिम शासक सिकंदर लोधी का शासन था। हिन्दू दमन के शिकार थे। संत रैदास ने समाज में लोधी का आतंक देखा, देखा कि लोधी डरा-धमकाकर या प्रलोभन देकर हिंदुओं का जबरन मतान्तरण करा रहा था। हिन्दुओं पर तीर्थ यात्रा, शव दाह करने, विवाह करने पर नाजायज कर लगाये जा रहे थे। इससे हिन्दू समाज त्राहि-त्राहि कर उठा था। इन ज्यादतियों को देख संत रैदास का मन कराह उठा और उन्होंने इन धर्म विरोधी गतिविधियों के सामने भयाक्रांत भारतीय जनता को झुकने से रोका। उन्होंने मतान्तरण को रोकने का बीड़ा उठाया बल्कि उस
कठिन दौर में मतान्तरितों की स्वधर्म-वापसी भी कराई।
उन्होंने जो उपदेश दिये, वे समूचे मानव समाज के कल्याण व भलाई के लिए दिये। उनकी चाहत एक ऐसे समाज की थी जिसमें राग, द्वेष, ईर्ष्या, दुख व कुटिलता का कोई स्थान न हो। उन्होंने घृणा और सामाजिक प्रताड़ना के बीच टकराहट और भेदभाव मिटाकर प्रेम तथा एकता का संदेश दिया। रैदास ऐसे आदर्श समाज की परिकल्पना करते हैं जिसमें बाहरी आडम्बर व कुरीतियां न हों, जहां जाति-पाति का भेद न हो।
जातिवादी व्यवस्था के पोषकों के कुटिल कुचक्र को पहचानकर उन्होंने मानव एकता की स्थापना पर बल दिया। उनका मानना था कि जातिवादी व्यवस्था को दूर किए बिना देश व समाज की उन्नति असम्भव है। ओछे कर्म और परम्परागत जाति व्यवस्था को नकारते हुए उन्होंने कहा था कि मानव एक जाति है, मानव को पशुवत् जीवन जीने के लिए बाध्य करना कुकर्म है। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को नकारते हुए उन्होंने कर्म प्रधान संविधान को अपने जीवन में सार्थक किया और सामाजिक परम्परागत ढांचे को ध्वस्त किया।
संत रैदास के समय में समाज में आर्थिक विषमता काफी ज्यादा थी। इस समस्या के निवारण के लिए उन्होंने जिस तरह श्रम को महत्व देकर आत्मनिर्भरता की बात कही, वह उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है। गरीबी, बेकारी और बदहाली से मुक्ति के लिए उनका श्रम व स्वावलंबन का दर्शन आज भी अत्यन्त कारगर है। उन्हें यह बात बखूबी पता थी कि सामाजिक एकता तभी आ सकती है जब सभी के पास अपना घर हो, पहनने के लिये कपड़े हों तथा खाने के लिए पर्याप्त अन्न हों-
ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़े सब सम बसें, रविदास रहै प्रसन्न।।
वैचारिक क्रान्ति के प्रणेता संत रैदास जीवनदृष्टि से परिपूर्ण वैज्ञानिक थे। वे सभी की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता देखते थे। उनके अनुसार शासन ऐसा होना चाहिए जिसमें किसी को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो। उनका मानना था कि पराधीनता से देश, समाज और व्यक्ति की सोच संकुचित हो जाती है और संकुचित विचारधारा वाला व्यक्ति बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय की अवधारणा को व्यावहारिक रूप प्रदान नहीं कर सकता।
उनका मानना था कि ईश्वर भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार जरूरी है। उन्होंने अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ विनम्र व्यवहार करने व शिष्टता का विकास करने पर बल दिया-
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
आशय यह है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में उसी तरह सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। रैदास कहते हैं काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और ईर्ष्या मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं जो मनुष्य के चरित्र व आचरण दोनों को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं। इसलिए इनसे हमेशा दूर ही रहना चाहिए। संत रैदास ने अपने जीवन को इन पांच शत्रुओं से सदैव दूर रखा और लोगों को भी इनसे दूर रहने की प्रेरणा दी। कहते हैं कि एक बार एक साधु उनके पास गया। उनके विनम्र स्वभाव व भगवद्भक्ति से प्रसन्न होकर उसने उनकी दरिद्रता मिटाने की मंशा से उन्हें एक पारस पत्थर देकर कहा है कि इसके स्पर्श से लोहा सोने में बदल जाता है। कुछ समय बाद वह साधु पुन: उनके पास लौटा तो उनको पूर्ववत् गरीबी की अवस्था में देखकर उसने हैरानी से पारस पत्थर के बारे में पूछा तो रैदास जी ने उत्तर दिया कि वह उसी जगह रखा है, जहां आप रख गये थे। जरा विचार कीजिए! एक ओर निर्लिप्तता की ऐसी उत्कृष्ट स्थिति और दूसरी ओर आज का हमारा समाज जो लोभ, मोह के दलदल में धंसता ही जा रहा है। भ्रष्टाचार, अनाचार जैसी स्थितियां समाज में चहुंओर व्याप्त हैं। संत रैदास अपने समय से बहुत आगे की सोच रखते थे। अपनी क्रान्तिकारी वैचारिक अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तथा युगबोध की मार्मिक अभिव्यक्ति के कारण उनका धर्म-दर्शन लगभग 600 वर्ष बाद आज भी पूर्ण प्रासंगिक है। ल्ल
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