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सामयिक मुद्दों पर मीडिया के रुख और रुखाई की परतें ख्ांगालता यह स्तंभ समर्पित है विश्व के पहले पत्रकार कहे जाने वाले देवर्षि नारद के नाम। मीडिया में वरिष्ठ पदों पर बैठे, भीतर तक की खबर रखने वाले पत्रकार इस स्तंभ के लिए अज्ञात रहकर योगदान करते हैं और इसके बदले उन्हें किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया जाता।
मीडिया समाज को बांटने और देश को कमजोर करने वाली ताकतों को बढ़ावा देने में खर्च कर रहा ताकत
सीबीआई अदालत के जज बृज गोपाल लोया की मौत में भले ही कुछ संदिग्ध न हो, परिवार ने कोई शक न जताया हो, पर यह मामला अब उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। सिर्फ इसलिए कि कुछ नक्सली मीडिया संस्थान, पत्रकार और वकील ऐसा चाहते थे। कांग्रेस विपक्ष में है, पर वह पूरे तंत्र पर दबाव बनाकर एक निराधार मुद्दा खड़ा कर सकती है। मीडिया में बैठे कांग्रेस के समर्पित संपादक इस मुद्दे पर लंबी-लंबी बहस शुरू कर चुके हैं। पूरी कोशिश है कि लोगों को भरोसा हो जाए कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है। कांग्रेस प्रायोजित मीडिया का यह तरीका बहुत पुराना है। इसी तरह वे सोहराबुद्दीन व इशरत जैसे न जाने कितने फर्जी मुद्दे खड़े कर चुके हैं। लेकिन नेशनल हेराल्ड घोटाले में सोनिया और राहुल गांधी की भूमिका का पदार्फाश होने पर यही मीडिया चुप्पी साध लेता है। यह तक नहीं बताते कि मामला 5000 करोड़ रुपये के गबन का है। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जब अदालत में सोनिया-राहुल पर 414 करोड़ रुपये जुर्माने के दस्तावेज पेश किए तो ज्यादातर चैनलों, अखबारों को सांप सूंघ गया। रिपब्लिक व कुछ अंग्रेजी चैनलों ने खबरें दिखाईं, पर अधिकतर हिंदी मीडिया ने ऐसे आंख बंद कर ली, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
गोतस्करों की मौत पर हंगामा मचाने वाला मीडिया केरल और बंगाल में हो रही हत्याओं पर मौन है। केरल में विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता की बर्बर हत्या की खबर कथित राष्ट्रीय मीडिया ने बताई, पर यह तथ्य छिपा गए कि आरोपी इस्लामी कट्टरपंथी पीएफआई के सदस्य हैं व उन्हें सत्ताधारी वामदलों का शह प्राप्त है। इसी तरह बंगाल के बांकुड़ा में भाजपा दफ्तर पर ममता बनर्जी की पार्टी के गुंडों के हमले की खबर कथित राष्ट्रीय मीडिया ने
गायब कर दी। हावड़ा में कट्टरपंथियों ने सरस्वती पूजा का पंडाल जला दिया, पर छिटपुट खबरें आर्इं। बीते वर्ष इसी जगह स्कूल में सरस्वती पूजा की मांग कर रही लड़कियों पर ममता सरकार ने लाठीचार्ज कराया था। कोई भी कल्पना कर सकता है कि ऐसी घटना भाजपा शासित प्रदेश में होती तो मीडिया का क्या बर्ताव होगा।
दलितों से जुड़े समाचार भी मीडिया के लिए पक्षपात का मौका होते हैं। उदाहण के लिए मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के गांव में दलित युवक की पिटाई की खबर इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता के पहले पन्ने पर छपी है, जबकि आरोपियों की पहचान भी नहीं है। हरियाणा के मेवात में 3000 मुसलमानों के गांव में बसे 7 दलित परिवारों पर अत्याचारों की बात अंदर के पन्नों पर भी नहीं आती। मीडिया भाजपा शासित प्रदेशों के रोजमर्रा के कामों पर भी विवाद खड़ा करने में जुटा है। उत्तर प्रदेश में सरकारी भवनों के रंग-रोगन के लिए चूने और गेरू का प्रयोग हमेशा से होता रहा है, चूंकि वहां भाजपा की सरकार है तो मीडिया को गेरू रंग में ‘भगवाकरण’ का खतरा दिख रहा है। आजतक व दूसरे चैनलों के लिए यह शाम की बहस का मुद्दा बन गया। उच्च न्यायालय के आदेश पर धर्मस्थलों से लाउडस्पीकर हटाने की कार्रवाई पर भी मीडिया विवाद करने की कोशिश में है। सपा सरकार के दौरान जब सिर्फ मंदिरों के लाउडस्पीकर उतरवाए जा रहे थे तब यही मीडिया कान में तेल डाले था। बेंगलुरु के पास उलसूर में एक चर्च में आतिशबाजी से 12 वर्षीय लड़के की मौत हो गई। कर्नाटक भाजपा शासित प्रांत नहीं है और हादसा चर्च में हुआ, इसलिए मीडिया के लिए यह खबर नहीं थी। हैरानी है कि दिवाली के विरुद्ध अभियान चलाने वाला मीडिया ऐसा ही अभियान चर्च के आयोजनों के विरुद्ध क्यों नहीं करता?
हिस्ट्री चैनल ने सर्जिकल स्ट्राइक पर अच्छी डॉक्यूमेंट्री फिल्म दिखाई। देश की सैन्य ताकत एवं पराक्रम पर शक जताने वाले राजनीतिक दलों व उनके पिछलग्गू पत्रकारों के लिए यह फिल्म करारा तमाचा है। ऐसी शोधपरक डॉक्यूमेंट्री कोई भी समाचार चैनल बना सकता था, पर शायद राजनीतिक निष्ठा व खास तरह की हीन भावना के कारण ज्यादातर ऐसा सोच भी नहीं पाते। मीडिया की नकारात्मकता इतनी बढ़ चुकी है कि उसे समाज में हो रहे अच्छे काम व बदलाव दिखाई नहीं देते।
मीडिया समाज को बांटने और देश को कमजोर करने वाली ताकतों को बढ़ावा देने में ही अपनी पूरी ताकत खर्च कर रहा है। तभी तो जब मंजू नामक महिला कुली को सम्मानित करने के लिए राष्ट्रपति भवन में बुलाया गया तो मीडिया ने उसकी अनदेखी की।
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