|
विश्व की आर्थिक नीतियों को दिशा दिखाने वाले विश्व आर्थिक मंच की बैठक का उद्घाटन करते हुए दावोस में मोदी ने दुनिया को नए भारत के उदय का स्पष्ट आभास कराया
डॉ़ अश्विनी महाजन
विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम) दुनिया का एक सबसे बड़ा आर्थिक मंच है। दो दशकों के बाद भारत के किसी प्रधानमंत्री ने इस मंच में भाग लिया था। और तब एक तरह से इतिहास ही रच गया जब प्रारंभिक सत्र का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया। उन्होंने उद्घाटन भाषण दिया। विश्व आर्थिक मंच के संस्थापक प्रो. क्लॉस श्वेब के आमंत्रण पर इसकी वार्षिक बैठक में प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमंडल के 6 सहयोगियों और 100 से भी अधिक कारोबारी प्रमुखों एवं अन्य महत्वपूर्ण लोगों के साथ शामिल हुए थे। गौरतलब है कि पिछले साल 2017 में इस बैठक में चीन के राष्टÑपति ने प्रारंभिक सत्र में उद्घाटन भाषण दिया था। स्पष्ट है कि वैश्विक आर्थिक जगत में भारत की बढ़ती ताकत का सम्मान करते हुए उसके प्रधानमंत्री को इसके लिए आमंत्रित
किया गया।
भारतीय जनता पार्टी के महामंत्री राममाधव ने अमेरिकी की पत्रिका वॉलस्ट्रीट जर्नल को दिये साक्षात्कार में एक महत्वपूर्ण बात कही कि आज हम इस सम्मेलन में केवल एक सहभागी के नाते नहीं, बल्कि एक ह्यस्टेक होल्डरह्ण यानी भागीदार के नाते जा रहे हैं। दुनिया में हो रहे परिर्वतनों के मद्देनजर भारत मात्र एक दर्शक की भूमिका में नहीं रहेगा।
संस्कार की शक्ति
अपने ओजपूर्ण भाषण में प्रधानमंत्री ने जहां एक ओर दुनिया के सामने उत्पन्न चुनौतियों के संदर्भ में भारत का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, वहीं दुनिया में स्वयं को शक्तिशाली मानने वाले बड़े राष्टÑों, खासतौर पर अमेरिका और चीन को भी अपनी भाषा में संकेत दिए। यह सही है कि प्रधानमंत्री ने दुनिया के कारोबारी प्रमुखों को भारत में आकर व्यवसाय करने हेतु प्रेरित किया, लेकिन साथ ही दुनियाभर को अपनी छवि के अनुरूप एक ह्यस्टेट्समैनह्ण के रूप में संदेश भी दिया। इस सम्मेलन का विषय था ह्यविघटित विश्व में साझे भविष्य का निर्माणह्ण।
विषय के अनुरूप प्रधानमंत्री ने वर्तमान विश्व में विघटन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला, यह कहते हुए कि मानवीय संबंधों में दरार सबसे ज्यादा खतरनाक है। उन्होंने राष्टÑों के अंदर और अंतरराष्टÑीय स्तर पर आ रही इन दरारों को रेखांकित किया। यही नहीं, उन्होंने वर्तमान और भविष्य के संबंधों में आ रही दरारों के संबंध में भी चिंता व्यक्त की और कहा कि कुमति यानी बुरे विचार विपत्ति का कारण होते हैं, इसलिए हमें विश्व के बारे में पूर्णता के आधार पर चिंतन करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत हमेशा ही सहअस्तित्व के सिद्धांत पर चलता रहा और हमने पूरी दुनिया को एक परिवार माना। हम हमेशा अपने पड़ोसियों और दूर-दराज के राष्टÑों के लिए सहयोग का हाथ बढ़ाते रहे। हमारा पीढ़ियों से यह मानना रहा है कि प्राकृतिक संपदा प्रकृति और ईश्वर की है और हम उसके ट्रस्टी हैं। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने इस दर्शन की पुन: विवेचना की। उन्होंने कहा कि प्रकृति के पास आपकी आवश्यकताओं के लिए भरपूर है, लेकिन आपके लालच के लिए नहीं। हमारा देश ज्ञान और वैराग्य में विश्वास रखता है। यहां प्रधानमंत्री ने उन देशों की ओर संकेत किया है, जो प्रकृति का लगातार शोषण करते जा रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश कर रहे हैं।
क्या है ह्यविश्व आर्थिक मंचह्ण
विश्व आर्थिक मंच एक गैर सरकारी अधिष्ठान है, जो अंतरराष्टÑीय स्तर पर शासनकर्ताओं, कॉर्पोरेट अधिकारियों, सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों, पत्रकारों और शिक्षाविदों की नेटवर्किंग के आधार पर विश्व की स्थितियों को सुधारने की ओर काम करने का दावा करता है। गौरतलब है कि वर्तमान परिस्थितियों में इस मंच का मौलिक कार्य भूमंडलीकरण का महिमामंडन करना रहा है। इसके माध्यम से यह भी जतलाने की कोशिश रहती है कि भूमंडलीकरण ही दुनिया की बेहतरी का एकमात्र रास्ता है और इसका कोई विकल्प नहीं है और इसके लिए जो भी दर्द सहना हो, सहना पड़ेगा। इस मंच का मानना है कि वे एक प्रकार से दुनिया में आर्थिक नीति निर्धारण का एजेंडा तय करते हैं। लेकिन इसके आलोचक मानते हैं कि इसके लक्ष्य, तौर-तरीके और सदस्यता, नव उदारवादी, पूंजीकारी एजेंडे के विस्तार के लिए ही काम करती है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था का चेहरा
भूमंडलीकरण के समर्थक यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ता की तरफ बढ़ रही है और उसमें किसी भी प्रकार का दखल सही नहीं होगा। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर कैनेथ रोगोफ कहते हैं कि वैश्विक संकट के बादल छंट रहे हैं और वैश्विक अर्थव्यवस्था और तेजी से आगे बढ़ने के लिए तैयार है। वे मानते हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं। दुनिया में तरक्की का इंजन कहा जाने वाला चीन भारी समस्याओं से जूझ रहा है। 2004 में चीन पर कुल कर्ज जीडीपी के 160 प्रतिशत से बढ़ता हुआ अभी तक जीडीपी के 265 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। भविष्य में दुनिया भर के देशों द्वारा चीनी सामान के आयात पर प्रतिबंध लगाए जाने की आशंकाएं लगातार बढ़ रही हैं। ऐसे में चीन की प्रगति में गिरावट वैश्विक प्रगति को घटा सकती है। वैश्विक कर्ज भी लगातार बढ़ता जा रहा है। पिछले कुछ समय से अमेरिका द्वारा ब्याज दर में बढ़ोतरी के
बाद दुनिया भर में ब्याज दर बढ़ने की प्रवृत्ति है। अमेरिका द्वारा संरक्षणवाद को बढ़ावा देने के बाद दुनिया में भूमंडलीकरण का पर्याय मुक्त व्यापार भी संकट में है। उत्तरी कोरिया द्वारा आण्विक युद्ध की धमकियों के बाद वैश्विक स्तर पर शांति पर भी खतरे मंडरा रहे हैं।
ह्यजीडीपी ग्रोथह्ण में नहीं समाधान
गौरतलब है कि दुनिया में विकास के वर्तमान मॉडल पर एक बहस शुरू हुई है कि क्या भूमंडलीकरण के दौर में ह्यजीडीपी ग्रोथह्ण को अधिकतम करने के उद्देश्य से बनाई गई आर्थिक नीतियां वास्तव में मानवता के लिए कुछ लाभकारी हैं? बढ़ती बेरोजगारी, भयंकर गरीबी और भुखमरी तथा असमानताएं स्पष्ट रूप से इस मॉडल की असफलता का बखान कर रही हैं। ऐसे में पिछले कई दशकों से भूमंडलीकरण की वकालत कर रहे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के एजेंडे पर एक सवालिया निशान लगना स्वाभाविक ही है। अपनी इस आलोचना से बचने के लिए फोरम ने दावोस में अपनी 48वीं बैठक शुरू होने से पहले ही सर्वसमावेशी विकास सूचकांक प्रकाशित कर दिया, जिसमें विभिन्न देशों को समावेशी विकास की दृष्टि से वरीयता के क्रम में रखा गया है। इस सूचकांक में यह दर्शाया गया है कि अधिकांश देशों में ह्यजीडीपी ग्रोथह्ण के साथ-साथ असमानता और गरीबी बढ़ी है, आमजन के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। खास बात यह है कि भारत इस वरीयता में 62वें पायदान पर है। सूचकांक में प्रति व्यक्ति आय, श्रम उत्पादकता, रोजगार और स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, इन चार तत्वों को शामिल किया गया है। 29 विकसित देशों में से केवल 12 देश ही गरीबी को कम कर पाये और मात्र 8 में ही आय की असमानताएं कम हो पाईं।
30 उभरती अर्थव्यवस्थाओं में लगभग ऐसी ही स्थिति दिखाई देती है। इन 30 अर्थव्यवस्थाओं में जहां ह्यजीडीपी ग्रोथह्ण अधिकतम रही, वहीं मात्र 6 देशों ने ही सर्वसमावेशी विकास के मापदंडों पर बेहतर प्रदर्शन किया है। शेष राष्टÑ या तो पिछड़े हैं या उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा।
इसलिए कहा जा सकता है कि सिर्फ ह्यजीडीपी ग्रोथह्ण में दुनिया के ह्यवास्तविक विकासह्ण का समाधान नहीं है, जिससे अधिकांश लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो। अभी तक जीडीपी को ही आर्थिक उपलब्धियों का सूचक मान लिया जाता रहा है। जीवन स्तर में सुधार, विकास का मापदंड होना चाहिए। आर्थिक नीति के संस्थागत एवं संरचनात्मक आयामों को इस प्रकार से ढालना होगा ताकि वे एक ओर सभी को अवसर प्रदान करें और दूसरी ओर भविष्य के लिए संसाधनों का संरक्षण भी कर सकें।
विघटन के क्या हैं कारण?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन पर निशाना साधते हुए स्पष्ट किया कि अंतरराष्टÑीय स्तर पर विघटन के प्रमुख कारण हैं-प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भूमि पर नियंत्रण। गौरतलब है कि चीन अफ्रीका में अधिकाधिक भूमि पर नियंत्रण तो कर ही रहा है, साथ-ही-साथ आर्थिक शक्ति के दम पर ह्यओबीओआरह्ण के अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव एवं अन्य स्थानों पर बंदरगाहों और भूमि पर कब्जा बढ़ाता जा रहा है।
अमेरिका पर निषाना साधते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वैश्विक व्यापार और व्यक्तियों की आवाजाही पर भी अंकुश लगाकर उन पर भी नियंत्रण किया जा रहा है। व्यवसाय के नियंताओं को समझना होगा कि उनके ये प्रयास लोगों को प्रभावित करते हैं। लालच और दंभ को ह्यआस्था और पंथह्ण का नाम दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि भारत की वैश्विक मुद्दों पर सोच सहअस्तित्व और सहयोग की है।
आतंकवाद से गंभीर है संरक्षणवाद
उन्होंने आतंकवाद और मौसमी परिवर्तन, दोनों को महत्वपूर्ण समस्याएं बताते हुए इनके समाधान हेतु भारत की प्रतिबद्धता को तो दोहराया, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि इससे बड़ी समस्या है—संरक्षणवाद। अमेरिका की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण को असफल करने के लिए संरक्षणवाद सिर उठा रहा है, जो आतंकवाद और मौसमी परिवर्तन से भी बड़ी समस्या है। टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधायें खड़ी की जा रही हैं। अंतरराष्टÑीय पूंजी प्रवाह और वैश्विक पूर्ति शृंखला बाधित हो रही है।
उन्होंने विश्व के निवेशकों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भारत आने का निमंत्रण यह कह कर दिया कि हम ह्यरिफॉर्म, परफॉर्म और ट्रांसफॉर्मह्ण में विश्वास रखते हैं। इन तमाम परिस्थितियों और चुनौतियों के बावजूद हम 2020 तक 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की चुनौती स्वीकार करते हैं। इस संबंध में उन्होंने सौर ऊर्जा, विनिर्मिाण, स्किल इंडिया, गरीबी उन्मूलन जैसे प्रयासों समेत सर्वसमावेशी विकास के भारत के प्रयासों को रेखांकित किया तो लगा, जैसे एक नए भारत का उदय हुआ हो।
विकास मॉडल बदलने की जरूरत
केवल विश्व आर्थिक मंच के सर्वसमावेशी विकास सूचकांक और विभिन्न देशों की इस बाबत उपलब्धियों के बारे में 2018 की रिपोर्ट ही नहीं, कई अन्य वैश्विक रपटें इस बाबत इंगित करती हैं कि विकास का वर्तमान मॉडल वर्तमान पीढ़ी के वास्तविक विकास में बाधक है।
रोजगार के घटते अवसर, बढ़ती असमानताएं और बढ़ती गरीबी आमजन के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ती मुश्किलें, इस मॉडल पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रही हैं। यही नहीं, ह्यजीडीपी ग्रोथह्ण का यह मॉडल भविष्य की पीढ़ियों के लिए और अधिक मुश्किलें खड़ी कर रहा है। मौसमी परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण इस हद तक हो रहा है कि मानवता का भविष्य ही समाप्त हो सकता है।
इसलिए विश्व आर्थिक मंच को यदि सही मायने में कुछ काम करना है तो विकास के वर्तमान मॉडल को बदलते हुए (अपनी सर्वसमावेशी विकास रिपोर्ट के अनुसार) उसे संस्थाओं और संरचनाओं को इस प्रकार मोड़ना होगा कि न केवल बेरोजगारी और असमानताओं से निबटने हेतु नीतियां बनें बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के भले की भी चिंता हो।
नए रास्ते पर चलने की जरूरत
दुनिया भर में बेरोजगारी, असमानताएं और इसके कारण बढ़ती हताशा के चलते वर्तमान विकास का मॉडल स्थायी नहीं हो सकता। अभी तक विकसित देशों का दबदबा दुनिया में बना रहा है। लेकिन इस बीच भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में विकास के बलबूते दुनिया में अपना स्थान बना लिया है। दावोस सम्मेलन के प्रारंभ होने से पहले अमेरिकी पत्रिका फॉरचून में एक लेख में कहा गया है कि चीन के एक महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था होने के दिन समाप्त हो रहे हैं और भारत अपनी युवा शक्ति के आधार पर दुनिया की महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। और यदि भारत अपनी श्रम शक्ति को प्रशिक्षण और शिक्षा के माध्यम से बेहतर बना सके तो इसे दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति बनने से कोई रोक नहीं सकता। जरूरत है दुनिया को नए विकास के मॉडल पर चलाने की। दावोस बैठक शुरू होने से एकदम पहले जारी सर्वसमावेशी विकास रिपोर्ट ने इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा के लिए मंच तैयार कर दिया है। ऐसे में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा प्रारंभिक सत्र में दिया गया भाषण इस संबंध में न केवल भविष्य में दुनिया में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है बल्कि एक नया रास्ता भी दिखलाने का काम भी करता है। संदेह नहीं कि दुनिया के इस पाले में कभी चीन को कद्दावर आर्थिक ताकत के तौर पर देख रहे देश आज भारत को तेजी से उभरती आर्थिक शक्ति के रूप में पहचान कर उसका यथायोग्य सम्मान कर रहे हैं।
(लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
टिप्पणियाँ