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चुनाव आयोग की सिफारिश को स्वीकार करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने लाभ के पद मामले में फंसे आम आदमी पार्टी (आआपा) के बीस विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया है। इससे पहले आआपा नेताओें पर फर्जी डिग्री,पत्नी से दुर्व्यवहार, सड़क पर मारपीट और ‘मनी लॉन्डरिंग’ जैसे गंभीर आरोप भी लग चुके हैं। आआपा चौतरफा भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबी है पर केजरीवाल पुराने ढर्रे पर चलते हुए केन्द्र सरकार पर आरोप मढ़ने में लगे हैं
मनोज वर्मा
भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अभियान से निकली और शुचिता, ईमानदारी और पारदर्शिता जैसे लोक-लुभावन नारों के साथ नई राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी (आआपा) के नेताओें की पहचान फर्जऱ्ी डिग्री, पत्नी से दुर्व्यवहार, सड़क पर मारपीट, राशन कार्ड, सीडी कांड और ‘मनी लॉन्डरिंग’ जैसे मामलों से होने लगेगी इसकी कल्पना समाजसेवी अण्णा हजारे ने भी नहीं की होगी। लाभ के पद के मामले में अयोग्य ठहराए गए आआपा के बीस विधायकों के कारनामे ने उसकी पूरी राजनीति को ही तार-तार करके रख दिया है। अण्णा हजारे एक नहीं सैकड़ों बार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी को पथ से भटका बता रहे हैं। बकौल अण्णा, ‘‘हमारे रास्ते उसी दिन अलग हो गए थे, जिस दिन केजरीवाल ने पार्टी बनाई थी। हम लोग अब संपर्क में नहीं हैं। मैंने पहले ही केजरीवाल को पार्टी बनाने से मना किया था। पर वे नहीं माने।’’
संविधान के अनुच्छेद 102-1ए के मुताबिक सांसद या विधायक किसी ऐसे पद पर नहीं रह सकते हैं, जिसके लिए उन्हें किसी तरह का वेतन, भत्ता या कोई और लाभ मिलता हो।
अनुच्छेद 191-1ए और जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 9ए में भी विधायकों और सांसदों को इस तरह के पद से रोकने का प्रावधान है।
संविधान की गरिमा के तहत ‘लाभ के पद’ पर बैठा कोई व्यक्ति उसी वक्त विधायिका का हिस्सा नहीं हो सकता।
इस मामले में 2006 में विवाद के बाद सोनिया गांधी को भी देना पड़ा था ‘लाभ के पद’ से इस्तीफा।
जया बच्चन की राज्यसभा सदस्यता रद्द की गई थी 2006 में।
2015 में उत्तर प्रदेश के दो विधायकों बजरंग, बहादुर सिंह और उमाशंकर सिंह की सदस्यता रद्द हुई थी।
जाहिर है केजरीवाल के सामने पार्टी बिगड़ती छवि बड़ा संकट बन कर उभरी है। आआपा के इस संकट के बीच सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि पार्टी अब जनता के सामने क्या मुंह लेकर जाएगी? आआपा के सामने दिन-ब-दिन खतरे खड़े होते जा रहे हैं और हर खतरा उसके वजूद पर सवालिया निशान लगा रहा है। आआपा के कारनामों का ताजातरीन मामला पार्टी के बीस विधायकों की योग्यता से जुड़ा है।
चुनाव आयोग की सिफारिश को स्वीकार करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने आआपा के बीस विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया है। केंद्रीय विधि मंत्रालय ने राष्ट्रपति के हवाले से बीस विधायकों को अयोग्य करार दिए जाने संबंधी अधिसूचना भी जारी कर दी। चुनाव आयोग ने लाभ के पद के मामले में अधिवक्ता प्रशांत पटेल की याचिका पर करीब ढाई साल तक सुनवाई की थी। जब यह फैसला आया तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। आआपा उच्च न्यायालय से लेकर जनता के बीच अपने हितों की लड़ाई का दम भी भर रही है। अदालत से अगर इन्हें राहत नहीं मिली तो बीस विधानसभा सीटों पर चुनाव होना तय है। लेकिन आआपा के नेता इस सवाल का भी उत्तर देने से बचते हैं कि आखिर संसदीय सचिव के पद विधायकों को रेवड़ियों की तरह क्यों बांटे गए? क्या यह केजरीवाल पार्टी का राजनीति दुराचरण नहीं है?
सवाल सचाई का है। क्या है सच? सच यह है कि पार्टी के पांच साल के इतिहास का यह सबसे बड़ा संकट है। आआपा नेता बीस विधायकों को अयोग्य ठहराने के फैसले को ‘असंवैधानिक, दुर्भाग्यपूर्ण और अलोकतांत्रिक’ बता रहे हैं। लेकिन असल में सच तो यह है कि आआपा को 2015 में मिली भारी जीत ही उसके गले का फंदा बन गई है। इतनी बड़ी संख्या में विधायकों के अहं को तुष्ट करने लिए जरूरी था कि उन्हें भी सत्ता में भागीदारी दी जाए। पुरस्कार दिया जाए। मंत्री पद नहीं मिल सकता तो कुछ और ही मिल जाए जिससे मंत्री जैसा रुतबा तो दिखे। इस कोशिश में ही संसदीय सचिव प्रकरण हुआ। सत्ता की राजनीति में ‘लाभ के पदों’ का अपना अलग महत्व है। वैसे 2006 में जया बच्चन के मामले में दिए गए उच्चतम न्यायालय के फैसले के मुताबिक, अगर किसी सांसद या विधायक ने ‘आॅफिस आॅफ प्रॉफिट’ यानी लाभ का पद लिया है तो उसे सदस्यता गंवानी होगी, चाहे उसने वेतन या भत्ता लिया हो या नहीं।
दरअसल, संविधान की भी अपनी सीमा रेखा है, जिसका उलंघन आआपा और उसके विधायकों से हुआ। जैसा कि अधिवक्ता प्रशांत पटेल कहते भी हैं। प्रशांत पटेल ने ही ‘लाभ के पद’ के मामले में आआपा सरकार के खिलाफ याचिका दायर की थी। विधायकों की विवादित नियुक्तियों के संबंध में प्रशांत ने 19 जून, 2015 को चुनाव आयोग और राष्ट्रपति को 100 पृष्ठ की एक रपट भेजी थी। उस समय अरविंद केजरीवाल सरकार द्वारा विधायकों को संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त करने संबंधित आदेश को पारित किए 98 दिन बीत चुके थे। प्रशांत पटेल कहते हैं कि उन्होंने एक साधारण व्यक्ति के रूप में याचिका दायर की थी। वे बताते हैं, ‘‘मैंने याचिका इसलिए दायर नहीं कि क्योंकि मैं किसी राजनीतिक दल का हिस्सा हूं। मैंने एक साधारण नागरिक की तरह यह काम किया। एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिसकी राजनीति में दिलचस्पी है, इस मुद्दे की अनदेखी करना असंभव था। मुझे लगा कि कुछ गलत हो रहा है। शोध करने के बाद मैंने पाया कि यह कदम (विधायकों को संसदीय सचिव बनाना) असंवैधानिक है और इसके बाद राष्ट्रपति सचिवालय में अपील कर दी।’’
वहीं, दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी कहते हैं, ‘‘आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों को अयोग्य ठहराये जाने के फैसले से सत्य की जीत हुई है। यदि आआपा विधायकों को अयोग्य ठहराने का निर्णय पहले हुआ होता तो राज्यसभा चुनावों के लिए दिल्ली में खरीद—फरोख्त नहीं हुई होती।’’ उधर, दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन कहते हैं कि आआपा के बीस विधायक, जो लाभ के पद के मामले में दोषी पाए गए हैं, उन्हें बिजली, पानी और फर्नीचर तक का खर्चा दिया गया है। इसलिए केजरीवाल को भी मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।’’ लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान के जानकार सुभाष कश्यप का कहना है, ‘‘आआपा को कानूनी तौर पर कोई राहत मिले, इसकी संभावना लेशमात्र भी नहीं है। मुझे नहीं लगता है कि इतने व्यवस्थित और विस्तार से सभी पक्षों को समझाते हुए दिए गए फैसले को अदालत में पलटा जाएगा।’’
ओहदे के हिसाब से देखें तो संसदीय सचिव का कद किसी राज्य के मंत्री के बराबर होता है। इसके साथ ही, संसदीय सचिव को मंत्री जैसी सुविधाएं भी मिल सकती हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पार्टी के 21 विधायकों को संसदीय सचिव तो बना दिया, लेकिन जब इस पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने विरोध जताया तो विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित करके इस पद को लाभ के पद की सूची से निकाल दिया। लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस विधेयक को मंजूरी नहीं दी। इसके बाद इन विधायकों ने यह पद छोड़ दिया, लेकिन विवाद कायम रहा और दिल्ली उच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग तक पहुंचा। आयोग ने अपने फैसले में राष्ट्रपति से इन विधायकों की सदस्यता समाप्त करने की सिफारिश की जिसे राष्ट्रपति ने अपनी स्वीकृति दे दी। संसदीय सचिव का पद वित्तीय लाभ का पद है और वह जिस भी मंत्री के साथ जुड़ा होता है, उसके कार्यों में उसकी ‘मदद’ करता है। इसके बदले में उसे तनख्वाह, कार और अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं। मंत्री किसी भी व्यक्ति को अपना संसदीय सचिव नियुक्त कर सकता है। 2005 में इसी आधार पर समाजवादी पार्टी की ओर से राज्यसभा सदस्य और फिल्म अभिनेत्री जया बच्चन की सदस्यता समाप्त की गई थी, क्योंकि वे उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम की अध्यक्ष भी थीं। 2006 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर फिर से चुनाव लड़ कर संसद में आने का कदम उठाया था, क्योंकि भाजपा ने इस मुद्दे पर संसद की कार्यवाही ठप कर दी थी। उस समय सोनिया गांधी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की अध्यक्ष भी थीं और उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल था। इसके बाद तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने कानून में संशोधन किया था।
अब आआपा के पास उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। आआपा संविधान के अनुच्छेद 226 एवं 32 के तहत याचिका के जरिए चुनाव आयोग और राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती दे सकती है, लेकिन यहां से किसी तरह की राहत मिलेगी, इसकी संभावना कम ही है। उसका कारण यह है कि लाभ के पद के कई मामलों में उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण पहले ही सामने आ चुका है। हालांकि आआपा केंद्र सरकार और भाजपा पर आरोप लगा अपना बचाव कर रही है। उसका तर्क है कि जब देश के कई अन्य राज्यों में संसदीय सचिव हो सकते हैं तो फिर दिल्ली में क्यों नहीं? उसका तर्क यह भी है कि जब सरकार संसदीय सचिवों को एक पैसा भी नहीं दे रही है और उनकी नियुक्ति सरकार के कामकाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए हुई तो फिर इसे लाभ के पद के दायरे में कैसे माना जा सकता है?
दरअसल, बीस विधायकों की संसदीय सचिव पद पर नियुक्ति संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत की गई थी। देश में दो तरह के राज्य हैं- एक, जहां संसदीय सचिव को लाभ के पद के दायरे से बाहर रखा गया है, दूसरे राज्य वे हैं जहां के कानून के तहत ये पद लाभ के दायरे में आते हैं। दिल्ली में इसे लाभ के पद के दायरे में रखा गया है। दिल्ली विधानसभा की नियमावली में संसदीय सचिव का पद नहीं है। संविधान के मुताबिक, दिल्ली में केवल मुख्यमंत्री ही एक संसदीय सचिव रख सकता है। जहां तक अन्य राज्यों में संसदीय सचिव नियुक्त किए जाने का सवाल है तो दिल्ली सरकार इसे उदाहरण नहीं बना सकती। दिल्ली विधानसभा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम के तहत काम करती है और उसमें यह प्रावधान है कि अगर कोई विधायक लाभ का पद लेता है तो उसकी सदस्यता रद्द हो जाएगी। यही नहीं, दिल्ली रिमूवल आॅफ डिस्क्वालिफिकेशन एक्ट-1997 में भी संसदीय सचिव को लाभ के पद की सूची से बाहर नहीं रखा गया है। बहरहाल, केजरीवाल पार्टी और उनके नेता संवैधानिक प्रावधानों पर बात करने के बजाए संवैधानिक संस्थाओं पर ही सवाल खड़ा कर खुद को बचाने का प्रयास कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री केजरीवाल के लिए संकट यह है कि राजनीतिक मोर्चे पर उन्हें अलग तरह की मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है। दिल्ली में नगर निगम चुनाव में पार्टी की हार और दिल्ली से बाहर गुजरात, गोवा तथा पंजाब में मिली हार ने पार्टी को भीतर से हिलाकर रख दिया है। दूसरी तरफ कुमार विश्वास से लेकर कपिल मिश्रा तक आआपा के तौर-तरीकों पर सवाल खड़े कर रहे हैं। राज्यसभा को लेकर टिकट बंटवारे ने भी पार्टी को भीतर से दो फाड़ कर दिया है। इसके अलावा, कार्यकर्ता आआपा के राजनीतिक रहस्यों को समझने की कोशिश में खुद को हाशिए पर खड़ा पाता है, जहां महत्वपूर्ण मसलों पर उसकी कोई पूछ ही नहीं है।
आआपा के विधायकों की सदस्यता जाने के साथ ही दिल्ली में फिर से चुनाव का माहौल बनने लगा है। कांग्रेस और भाजपा की प्रतिक्रिया भी इशारा करती है कि दोनों दल उपचुनाव के लिए खुद को तैयार करने में जुट गए हैं। बीस सीटों पर उपचुनाव भाजपा और कांग्रेस के लिए बड़ा अवसर हो सकते हैं। कांग्रेस जहां 2013 से पहले के 15 साल के कामों को दिल्ली की जनता को याद दिलाएगी, वहीं भाजपा एक बार फिर विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बूते चुनाव में उतरेगी। ल्ल
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