सरस्वती पुत्र का राष्ट्र धर्म
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सरस्वती पुत्र का राष्ट्र धर्म

by
Jan 29, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 Jan 2018 14:43:06

राष्टÑ के प्रति अगाध निष्ठा रखने वाले सुविख्यात कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला वसंत पंचमी को अपना जन्मदिवस बताते थे। 22 जनवरी को देश भर में वसंत पंचमी मनाई गई और साथ ही गौरवगान हुआ निराला की कालजयी रचनाओं का। यहां  प्रस्तुत है माटी से जुड़े इसी कवि की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं पर चिंतन-मंथन

डॉ. आलोक दीपक

हिंदी साहित्य के क्षितिज पर सूर्य बनकर जीवन भर संघर्षों की आग में तपने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी निराला साहस के अप्रतिम उदाहरण बन कालजयी हो गये। हिंदी साहित्य में शायद ही और किसी कवि ने मानव मन को अपने औदात्य रूपी जीवन से इतना प्रेरित  किया हो जितना कि निराला ने किया। अगर मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर राष्टÑकवि थे तो निराला निश्चित रूप से राष्ट्रधर्मी कवि थे। परतंत्रता के दिनों में अवध के गढ़कोला से लेकर बंगाल के महिषादल तक राष्ट्र धर्म और अपनी सनातन संस्कृति का संस्कार उनके जीवट के व्यक्तित्व में समाहित हो चुका था। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद एक तरफ भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन आरंभ हो रहा था तो दूसरी तरफ यह समय निराला के ओजमयी कवि जीवन का अभ्युदय काल भी रहा। 1920 से 1947 तक देश की स्वाधीनता प्राप्ति की आकांक्षा उनके साहित्य की मौलिक प्रेरणा बन गयी। यह उनके ओजमय, निर्भीक, निडर स्वच्छंद व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि साहित्यिक पड़ाव प्रारम्भ होते ही उन्हें ‘निराला’ उपनाम मिल गया। ‘मतवाला’ पत्रिका का प्रथम अंक 26 अगस्त, 1923 को प्रकाशित हुआ जिसके मुखपृष्ठ पर नटराज का चित्र और निराला की लिखित ये पंक्तियां-अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग विराग भरा प्याला। पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला-थीं जिसने उन्हें निराला बनाने का बीजारोपण किया और इसी पत्रिका के 18वें अंक में उनकी कविता-जूही की कली-पहली बार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला नाम से  प्रकाशित हुई।
उनके साहित्यिक जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक विभिन्न स्तरों पर उनकी देश को स्वाधीन, सुखी और समृद्धशाली देखने की इच्छा उनके काव्य में राष्ट्र को समर्पित रही। देश की पराधीनता निराला के मन को व्यथित कर देती है जो उनके मन में अनेक भाव उत्पन्न करती है। कभी वे आत्मग्लानि से भर उठते हैं तो कभी अवसादग्रस्त होते हैं! पर अगले ही क्षण भारत के गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण कर देश की जनता में राष्ट्रीय आत्मसम्मान की हुंकार भरते हैं कि जिस देश में शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह जैसे वीरों ने स्वाधीनता के लिये युद्ध किया था आज उनकी विरासत को लोग भूल गये…
शेरों की मांद में
आया है आज स्यार…
जागो फिर एक बार (परिमल)
‘शिवाजी का पत्र’ में हिन्दू चेतना की औदात्यपूर्ण पृष्ठभूमि है,जिसकी ओजस्विता और वीरता में राष्ट्रीय चेतना है जो निराला के कण्ठ से निकलकर ललकार बन    जाती है-
हैं जो बहादुर समर के,
वे मर कर भी
माता को बचायेंगे।
शत्रुओं के खून से
धो सके यदि एक भी तुम
मां का दाग
कितना अनुराग
देशवासियों का पाओगे।
    (शिवाजी का पत्र)
देश के गौरव-वैभव के प्रति अगाध प्रेम और अपनी सनातन संस्कृति के प्रति गर्व और दीन-दुखियों के लिये करुणा का भाव स्वामी विवेकानंद से अनुप्राणित है। निश्चित रूप से निराला के विचारों पर स्वामी जी के नव्य वेदांतवाद का प्रभाव था, जिसके केंद्र में भारतीय राष्ट्र था। ‘राम की शक्ति-पूजा’ निराला की कालजयी रचना है जिसमें वास्तव में राम की शक्ति-पूजा नहीं है, वह तो निराला की शक्ति-पूजा है जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के व्यक्तित्व का निराला के व्यक्तित्व में प्रतिफलन हुआ है। 1935 की रचना ‘सरोज स्मृति’ में वे अपने हृदय दग्ध आसुओं को पीते हैं, फिर भी जीते हैं और 1936 की ‘राम की शक्ति-पूजा’ में उसी घनीभूत आंसुओं की शक्ति से रावण पर प्रहार करते हैं। शायद वही आंसू अब विकराल समुद्र बन      गये हैं-
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न केवल  जलती मशाल।
जीवनभर साहित्यिक विरोधियों के प्रहार सहने वाले निराला कभी हारे नहीं, बल्कि उनका साहस जीतता गया। सामाजिक परिवेश ने जितना विष उनको दिया और जितना उन्होंने पिया, उतना अन्य ने नहीं। पर ये सब होते हुए भी जमाने के सामने कभी हार न मानने की जिद थी। हिंदी जगत तो उन्हीं का साहित्यिक समाज था। उसमें तो उनकी ललकार स्वाभाविक थी ही, पर हिंदी और राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर निराला महात्मा गांधी और पंडित नेहरू से भी भिड़ गये थे। जब गांधीजी ने उनसे यह कहा-हिंदी में कोई रविन्द्र नाथ टैगोर नहीं हुआ तो निराला ने गांधीजी को ललकारते हुये कहा था-आप को  हिंदी का क्या पता, उसे तो हम जानते हैं, क्या आप ने हिंदी में निराला की रचनाएं पढ़ी हैं? इसी तरह एक बार जब राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर पंडित नेहरू हिंदी शब्द भंडार पर छींटाकशी करने लगे तो निराला को सहन नहीं हुआ और नेहरू से पूछ बैठे-क्या आप ओम का अर्थ बता सकते हैं? नेहरू जी निरुत्तर हो चुप हो गये। ऐसा था निराला जी का राष्ट्र और अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम, जहां उससे बढ़कर उनके लिये कुछ भी न था।
अभावों में जीने वाले निराला के अंदर भावों का विशाल भंडार था। इस बात की गवाही इलाहाबाद की दारागंज की वे गलियां देती हैं जहां वे रहते थे। एक बार वे अपने प्रकाशक के यहां से रॉयल्टी लेकर इक्के से चले आ रहे थे तभी एक वृद्धा ने पुकारा, बेटा, भीख दे दो। निराला यह सुनते ही तुरंत इक्के से उतरे और उसके पास जा कर बोले, यदि 5 रुपये दूं तो भीख कितने दिन नहीं मांगोगी इसलिये कि निराला की मां भीख नहीं मांग सकती। उस वृद्धा ने कहा-एक दिन नहीं मागूंगी। उन्होंने कहा यदि दस दूं तो, तो उसने कहा -दो दिन। फिर निराला ने पूछा-यदि 100 रुपये दूं तो जीवन भर नहीं मांगोगी न? फिर ऐसा कहते हुये उन्होंने अपनी रॉयल्टी के सारे पैसे उस वृद्धा को दे दिये। ऐसे इनसान थे निराला, जिनके इसी तरह के न जाने कितने     किस्से हैं।
रविवार 21 फरवरी 1896 को जन्मे निराला का पूरा जीवन रवि की भांति ही धधकता रहा पर उनकी वेदना के आर्तनाद में घोर आशा थी, जो उन्हें सब कुछ सहने और संघर्ष करने की शक्ति देती थी। उनके अंतर्मन में मां सरस्वती और वसंत पंचमी जैसे उनकी जीवनी शक्ति थी। उन्होंने स्वेच्छा से इस दिन को अपना जन्म दिन घोषित किया था। यहां तक कि हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र में अपने को ‘वसंत का दूत’ कह दिया है। उनके जीवन की वासंती स्मृतियां ‘सरोज स्मृति’ में इस प्रकार अभिव्यक्त होती हैं-
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
शृंगार रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छवसित धार।
 निराला सच में अपराजेय थे और अमर भी हैं। ऐसे राष्ट्रधर्मी महाकवि का अंत कभी हो ही नहीं सकता, जिसकी आत्मा में मां भारती और मां सरस्वती की मूर्ति विराजमान थी, जैसा कि निराला ने स्वयं कहा है-
अभी न होगा मेरा अंत
अभी-अभी ही आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत
अभी न होगा मेरा अंत
(लेखक पीजीडीएवी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)

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