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कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
(6 अगस्त, 1941 को पूना में राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में दिया गया भाषण)
मैं पहले आपको अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहता हूं। मैंने कांग्रेस को इस कारण छोड़ा था कि मैं आत्मरक्षा के मामलों में भी शक्ति प्रयोग न करने के सिद्धांत को मानने के लिए तैयार नहीं हो सकता था। जिस सिद्धांत में मैं विश्वास नहीं करता, अगर मैं उसका समर्थन करता, तो यह अपने प्रति असत्य का व्यवहार होता। इस मतभेद को छोड़कर, मैं वही अडिग देशभक्त हूं जैसा मैं कांग्रेस में शामिल होने से पहले और उसके बाद था।
मैं इस देश की राजनीतिक स्वाधीनता की कल्पना उन सभी समाज वर्गों और सभी वर्ग-हितों की मांगों के समन्वय के बिना नहीं कर सकता, जो राष्टÑीयता के अर्थ में समाहित हैं। मैं भारत-विभाजन का विरोध करता हूं क्योंकि वह राष्टÑ के अस्तित्व और उसके भविष्य, दोनों को नकारता है।
मेरा उतना ही पक्का विश्वास है कि भारत के विभाजन की मांग इस देश में हिन्दू की स्थिति और उसके प्रभाव को नष्ट करने का षड्यंत्र है। इन विभाजनकारियों की भारत में मुस्लिम बहुमत या समानता बनाने की महत्वाकांक्षा उनकी हिन्दुओं को अल्पमत बनाने की इच्छा से उत्पन्न हुई है। दूसरी ओर हिन्दू, अब तक बंटे हुए और असंगठित हैं, इस दुरभिलाषा का प्रतिरोध नहीं कर सकते। अगर हिन्दू और अन्य राष्टÑीय तत्व, जैसे सिख, ईसाई, राष्टÑीय मुसलमान तथा अन्य, जिसके सम्मिलित प्रयत्न से अखंड हिन्दुस्थान स्वाधीनता की ओर अग्रसर होगा, आतंकित होकर भारत के विभाजन के लिए या अल्पमत की स्थिति में आने के लिए झुक गए, तो जीवन इस धरती पर बसने के योग्य नहीं रहेगा। हमारा संघ हिन्दुओं का एक विस्तृत संगठन है जो हिन्दुओं की सेवा और उनको शक्तिशाली बनाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। इसलिए हमारा प्रथम कर्तव्य है हिन्दुओं को निर्भय होना सिखलाना।
(लेखक पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं भारतीय विद्याभवन के संस्थापक थे।)
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