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सचेत और समीक्षा भी

by
Jan 23, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Jan 2018 11:11:10

 

आर्थिक मामलों में जब भी देश को सचेत और जागरूक करने की जरूरत पड़ी पाञ्चजन्य ने वह काम बखूबी किया। आर्थिक नीतियों पर  देश के बड़े चिन्तकों  और लेखकों के विचारों को  बहुत ही प्रमुखता के साथ छापा। देखें उसी की एक झलक

 

  भगवती प्रकाश शर्मा

अपने सात दशक के सुदीर्घ और स्तरीय प्रकाशन के जीवन काल में पाञ्चजन्य ने देश, समाज, विश्व एवं मानवता के सम्मुख उपस्थित विविध आर्थिक घटनाक्रमों, अवसरों और चुनौतियों की अत्यन्त समीचीन समीक्षा एवं समयोचित समाधान सुझाने में अग्रणी और अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। पाञ्चजन्य ने अन्य राष्टÑीय एवं अन्तरराष्टÑीय महत्व के सभी प्रकार के घटनाक्रमों के साथ-साथ, आर्थिक जगत में भी अप्रतिम वैचारिक नेतृत्व प्रस्तुत किया है। आर्थिक चिन्तन के क्षेत्र में वैचारिक नेतृत्व प्रदान करने के साथ ही पाञ्चजन्य का आर्थिक दृष्टिबोध अत्यंत महत्वपूर्ण, सर्वस्पर्शी और समेकित चिन्तन पर आधारित रहा है। पाञ्चजन्य की दृष्टि अपने लेखों, समीक्षाओं और सम्पादकीयों में सतत एक समेकित एवं सर्वस्पर्शी लक्ष्य पर प्रमुखता से केन्द्रित रही है। वह लक्ष्य है कि प्राणीमात्र को उसका अभीष्ट मिले। पाञ्चजन्य की यह लोक मंगलकारी दृष्टि 13वीं सदी के कुशल समाज-संगठक, सन्त ज्ञानेश्वर का दिया ध्येय-पथ नवनीत है। संत ज्ञानेश्वर के इसी पाथेय को श्री भैयाजी जोशी ने पाञ्चजन्य के 22 अगस्त, 2010 के अंक में अपने लेख ‘अर्थ-चिन्तन में विश्व का मार्गदर्शक बने भारत’, में देश के लिए इसी ध्येय मार्ग को पुनर्रेखांकित किया है। पाञ्चजन्य विगत 69 वर्ष में इन्हीं दो लक्ष्यों ‘‘अर्थ चिन्तन के क्षेत्र में भारत विश्व का मार्गदर्शक बने’’ और ‘‘प्राणीमात्र को उसका अभीष्ट मिले’’ के साथ ही एक और आयाम को बल देता रहा है जिसे भी भैया जी ने अपने उक्त लेख में रेखांकित किया है। वह है, ‘स्वदेशानुकूल बने भारत का तंत्र।’ इस संबंध में राष्टÑ कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का यह उद्धरण ‘‘प्रत्येक देश को प्रकृति या परमात्मा ने एक प्रकार का प्रश्न पत्र दिया है, जो अन्य देशों से भिन्न होने से प्रत्येक देश को अपने आर्थिक विकास का पथ स्वयं ही निर्धारित करना होता है।’’ इसलिए भारत का अर्थतंत्र, स्वदेशानुकूल कैसे बने इस पर पाञ्चजन्य का सतत बल रहा है।
समन्वित एकात्म चिन्तन
चिन्तन, वस्तुत: प्राणीमात्र को उसका समुचित अभीष्ट मिले, इस दृष्टि से पाञ्चजन्य में विगत पांच दशक में सर्वाधिक सामग्री का प्रकाशन एकात्म मानव दर्शन पर हुआ है। एकात्म मानव दर्शन के भारतीय हिन्दू चिन्तन के अनुसार व्यक्ति से परमेष्ठि पर्यन्त-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्टÑ, विश्व, जीव सृष्टि, प्रकृति और सृष्टि के प्रत्येक अवयव में सुस्थिर समन्वय और उसके मध्य पारस्परिकता का संरक्षण किस प्रकार हो एवं वह बना रहे, यह एकात्म मानव दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। व्यक्ति के लिए उसके शारीरिक अभीष्ट की ही नहीं वरन शरीर, मन, बुद्धि आत्मा के अभीष्ट का साधन व उसमें समन्वय के इस दर्शन पर पाञ्चजन्य ने सदैव बल दिया है।
सृष्टि के अन्य अवयवों अर्थात् परिवार, समाज, राष्टÑ व विश्व आदि के भी इन चारों आयामों का चिन्तन प्रस्तुत करने के साथ ही व्यक्ति का अभीष्ट सिद्ध करने हेतु धर्मयुक्त आचरण से अपना अर्थ साधन, कामनाओं की पूर्ति और सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति हेतु सब लोग किस प्रकार प्रयत्नरत रहें। अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी इन चारों पुरुषार्थों का साधन किस प्रकार करें और सृष्टि के अन्य सभी घटक यथा व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्टÑ व विश्व के संदर्भ में पुरुषार्थ चतुष्टय क्या हो? इन विषयों पर 1965 से ही जितनी सामग्री का प्रकाशन पाञ्चजन्य में हुआ है, उतनी सामग्री का अन्यत्र कहीं प्रकाशन नहीं हुआ है। आज देश की ही नहीं, सभी प्रमुख सामयिक वैश्विक समस्याओं के समाधान हेतु भी एकात्म मानव दर्शन का अप्रतिम महत्व है। वर्तमान वैश्विक समस्याओं, यथा अन्तरराष्टÑीय आतंकवाद, पर्यावरण विनाश और  आर्थिक विषमता आदि का समाधान एकात्म मानव दर्शन के चिन्तन से ही संभव है। देश में आज, संतुलित आर्थिक, औद्योगिक और वाणिज्यिक विकास चिकित्सा शिक्षा आदि सामाजिक सेवाओें, प्रशासन और नागरिक अवसरंचनाओं के संधारण आदि को एकात्म मानव दर्शन के अनुसार, अधिकाधिक समाज केन्द्रित बनाया जा सकता है।
निष्पक्ष और निर्भीक समीक्षा
देश में समय-समय पर उपस्थित घटनाक्रमों और सरकारों द्वारा लिए गए आर्थिक निर्णयों की अत्यंत तथ्यपरक निर्भीक समीक्षा करते हुए पाञ्चजन्य ने सदैव अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया है। स्वाधीनता के तत्काल बाद ही जब केन्द्र सरकार ने 19 सितंबर, 1949 को विश्व बैंक से ऋण लेने हेतु रुपए का 30़ 5 प्रतिशत अवमूल्यन किया, तब पाञ्चजन्य में छपे प्रमुख लेखों में विदेशी ऋण लेने और रुपए के अवमूल्यन को अनुचित ठहराते हुए, उसके गंभीर दुष्परिणामों की चेतावनी दी थी। इन लेखों में सरकार को 95़18 लाख रुपए के विदेश व्यापार घाटे के प्रति भी चेताया गया। इस अवमूल्यन के कारण ही प्रति डॉलर रुपए की कीमत 3़ 23 रुपए से गिरकर 4़ 76 रुपए रह गई।
दिसंबर, 1946 में अंतरराष्टÑीय मुद्रा कोष ने रुपए का मूल्य जो 30़ 23 सेण्ट निश्चित किया था उसे तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार ने 21 सेण्ट तुल्य कर दिया था। पाकिस्तान ने तब रुपए का अवमूल्यन नहीं किया था, इसलिए पाकिस्तानी रुपए की तुलना में भी भारतीय रुपए की कीमत 1़ 44 रुपया हो गई। इसके परिणामस्वरूप (अवमूल्यन के कारण) ही अन्तरराष्टÑीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के हम विश्व के जो पांच शीर्ष अंशधारकोें में से थे, उस अंश की कीमत गिर जाने से हम इन संस्थाओं में अपने स्थायी निदेशक का पद 1963 तक खो बैठे थे। इस पर दिसंबर,1963 से अप्रैल 1964 के बीच छपे कई लेखों में सरकार का आवाहन भी किया था कि भारत अपना वह गौरवमय स्थान पुन: प्राप्त करे। विश्व बैंक के ही प्रभाव में राष्टÑीय हितों की अनदेखी कर पाकिस्तान के साथ 1965 में सिंधु जल बंटवारे के विरुद्ध भी सरकार और जनता को सावधान करते हुए दो दर्जन से अधिक लेख छपे थे।
वर्ष 1966 में पुन:  6 जून  को रुपए का 57़ 5 प्रतिशत अवमूल्यन कर इसकी कीमत 4.76 रुपए से घटाकर गिराकर 7.़50 रुपए प्रति डॉलर कर दी थी। तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय के इस विषय पर लिखे लेख उनकी ‘फाल आॅॅफ इण्डियन रूपी‘ शीर्षक से लिखी पुस्तक की समीक्षा भी छपी थी।
इसी कालखण्ड में पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा भारत के सनातन चिन्तन के आधार पर एकात्म मानव दर्शन का प्रतिपादन किया गया था। ‘वैयक्तिक संप्रभुता’ के पूंजीवादी चिन्तन और व्यक्ति स्वातंत्र्य पर दुर्लक्ष्य के साथ सर्वहारा की तानाशाही के विकल्प के रूप में व्यक्ति से परमेष्टि के बीच सुस्थिर समन्वय
के विचार पर अब तक शताधिक लेख पाञ्चजन्य में प्रकाशित हो चुके हैं।
वर्ष 1966 के मध्य में हमारी तीसरी पंचवर्षीय योजना की लक्ष्य प्राप्ति में विफलता पर भी कुछ लेख छपे थे। वस्तुत: 1961-66 की तीसरी पंचवर्षीय योजनावधि में जो 5.6 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था, वो दोषपूर्ण नीतियों के कारण इस अवधि में वृद्धि दर मात्र 2.4 प्रतिशत रह गई। आर्थिक अस्थिरता व तीसरी पंचवर्षीय योजना की विफलता के कारण ही 1966 से 1969 तक तीन वर्ष पर्यन्त सरकार चौथी योजना बनाने की स्थिति में ही नहीं रही। इसलिए चौथी योजना 1 अप्रैल, 1966 के स्थान पर 1969 से लागू की गई थी। इस अवधि में केन्द्र सरकार द्वारा महंगाई और मुद्रास्फीति पर नियंत्रण का परामर्श और उसकी रीति-नीति सुझाते हुए भी लेखों की एक पूरी शृंखला रही है।
बाद में 1977 में बनी मोरारजी देसाई सरकार ने जब देश को स्वावलंबी बनाने हेतु अंतरराष्टÑीय मुद्रा कोष का सारा ऋण चुका दिया था। तब पाञ्चजन्य में छपे 5-6 लेखों में सरकार के इस कदम का स्वागत किया गया था। लेकिन पुन: श्रीमती गांधी ने 1981-82 में मुद्रा कोष से 500 करोड़ एस़ डी़ आर. के ऋण का आवेदन कर 390 करोड़ एस़ डी़ आर. का ऋण ले लिया। तब 3-4 लेखों में पाञ्चजन्य ने इस ऋण पर गंभीर चिन्ता व्यक्त की थी। यह ऋण मुद्रा कोष के इतिहास में किसी देश द्वारा लिया, तब तक का सबसे बड़ा ऋण था। इनके साथ ही, 1986 में प्रारंभ हुई गैट वार्ताओं के आठवें चक्र में जब 1Þ989 में डंकल प्रस्ताव अस्तित्व में आए और उन्हीं के अनुरूप 1995 में विश्व व्यापार संगठन का गठन हुआ और उसी के अधीन विविध बहुपक्षीय समझौते अस्तित्व में आए, तब 1989 से ही डंकल प्रस्ताव के विरुद्ध 1994 तक 100 से अधिक लेख छपे। विश्व व्यापार संगठन के बन जाने के बाद भी विश्व व्यापार संगठन के दोहा सम्मेलन में 2001 में हमारे वाणिज्य मंत्री मुरासोली मारन द्वारा अकेले सिंगापुर मुद्दों को निरस्त करवाने में मिली सफलता का भी अत्यंत सटीक विवेचन किया गया था।
स्वदेशी और स्वावलंबन का प्रतिपादन
26 वर्ष पूर्व नरसिंहराव सरकार में वित्तमंत्री डॉ़ मनमोहन सिंह ने जब 1 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत में अवमूल्यन से प्रारंभ कर जब, आयातों व विदेशी पूंंजी निवेश को प्रोत्साहन की नव उदारवादी नीतियों को, विश्व बैंक व मुद्रा कोष के संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रमों के अधीन लागू करना प्रारंभ किया, तब संघ के स्वयंसेवकों ने स्वदेशी भाव जागरण हेतु 22 नवंबर, 1991 को स्वदेशी जागरण मंच का गठन कर संगठित रूप से स्वदेशी भाव जागरण का सूत्रपात किया था।
16 अगस्त, 1992 के अंक को स्वदेशी विशेषांक के रूप में संकलित कर स्वदेशी, स्वावलंबन, जैव विविधता संरक्षण, कृषि के संतुलित विकास, आर्थिक विकेन्द्रीकरण, विदेशी कम्पनियों के तंत्रजाल आदि राष्टÑीय महत्व के अनेक विषयों व स्वदेशी के सभी प्रमुख आयामों का विशद् विवेचन किया गया था। 1 से 15 दिसंबर, 1994 तक देशभर में चले स्वदेशी अभियान को भी व्यापक रूप से 3 अंकों में प्रमुखता दी गई थी।
स्वदेशी के इन अभियानों में 1994 का राष्टÑव्यापी जन जागरण अभियान, 1995 में देश के हितों के विरुद्ध शर्तों पर, एनरान कम्पनी को दी विद्युत परियोजना के विरुद्ध आन्दोलन, 1995 में ही यांत्रिक कत्लखानों के विरुद्ध पशुधन रक्षा आन्दोलन, 1996 में बीड़ी रोजगार रक्षक आन्दोलन, 1996 में ही सागर तटों पर आयोजित मछुआरों के हितों की रक्षार्थ विदेशी कम्पनियों द्वारा गहरे समुद्र में मत्स्याखेट पर रोक, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी, जी़ एम. फसलों के दुष्प्रभावों पर जन जागरण तथा बी़ टी़ बैंगन, जी़ एम़ सरसों आदि के विषयों को भी पर्याप्त स्थान दिया गया। चीनी वस्तुओं के विरुद्ध जन जागरण मुक्त व्यापार समझौतों में राष्टÑीय हितों के संरक्षण के लिए दबाव निर्माण जैसे शताधिक अभियानों को पाञ्चजन्य में यथेष्ट स्थान दिया गया है।
आर्थिक हितों की सर्वोपरिता
देश व समाज के आर्थिक हितों को सदैव वरीयता दिलाने एवं मानव मात्र के लिए उचित योगक्षेम दिशा में नियोजित करने के परम वैभव और विश्व मांगल्य के मार्र्ग पर अग्रसर करने हेतु वातावरण बनाने में पाञ्चजन्य सतत सक्रिय है। भारत एक समर्थ, सक्षम, सबल राष्ट्र के रूप में विश्व मांगल्य का प्रेरक बने, इस दिशा में चिन्तन को गति देने में पाञ्चजन्य पूरी तरह से सन्नद्ध है और संपूर्ण समाज को भी उस दिशा में सक्रिय करने हेतु सचेष्ट है। इसी क्रम में चाहे जैविक कृषि का विषय हो, पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता हो, गरीबी, बेरोजगारी और कुपोषण का विषय हो, सेज में किसानों की उपजाऊ भूमि बचाने की बात हो, देश में उपजे बोफर्स से लेकर कोयला घोटालों को अनावरित करने की बात हो, रक्षा उत्पादन में स्वावलंबन की आवश्यकता हो अथवा मुद्रा योजना स्टार्टअप, कौशल विकास व रोजगार सृजन के विषय हों, अथवा कृषि व किसानों की समस्याएं हों अथवा विकेन्द्रित नियोजन का विषय हो, पाञ्चजन्य ने देश को एक वैचारिक नेतृत्व प्रदान किया है।   
(लेखक स्वदेशी जागरण मंच के राष्टÑीय सह संयोजक हैं)

आयात से  आघात
1991 में विश्व के तात्विक सकल घरेलू उत्पाद में रुपए की विनिमय दर के आधार पर भारत का अंश 3.2 प्रतिशत था जो आज मात्र 2.6 प्रतिशत है। 1991-92 में भारत का विदेशी व्यापार घाटा मात्र 2.6 अरब डॉलर था, वह आज 118 अरब डॉलर है जो दो वर्ष पूर्व 181 अरब डॉलर पर पहुंच गया था। तब 18 रुपए के बराबर एक डॉलर था। वही आज 67.7 रुपए का एक हो गया है।
आयात की भरमार से देश के उद्यम रुग्ण या बंद हो रहे हैं या विदेशी कंपनियों द्वारा अधिग्रहीत किए जा रहे हैं। देश के उत्पादन तंत्र का 60 से 80 प्रतिशत तक या कुछ क्षेत्रों में 100 प्रतिशत तक भी विदेशी नियंत्रण में चला गया है।
उदाहरणत: देश में टीवी, फ्रिज जैसी टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं का 73 प्रतिशत, शीतल पेय में शत-प्रतिशत, सीमेंट में आधे से अधिक, कारों का 85 प्रतिशत, स्कूटर में 60 प्रतिशत बाजार विदेशी उत्पादकों के नियंत्रण में गया है, जो तथाकथित सुधारों के पूर्व शत-प्रतिशत भारतीयों के नियंत्रण में था। आज वैश्विक विनिर्माणी उत्पादन अर्थात् वर्ल्ड मैन्यूफैक्चरिंग में भारत का अंश मात्र 2.04 प्रतिशत रह गया है, जबकि हम विश्व की 16 प्रतिशत जनसंख्या वाले देश हैं। वहीं चीन का अंश, जो 1991 में मात्र 2.4 प्रतिशत था, आज बढ़कर 23 प्रतिशत हो जाने तथा अमेरिका
का अंश 17.2 प्रतिशत ही रह जाने से वह क्रमांक 2 पर चला गया है।  
(11 दिसंबर, 2016 के अंक में प्रकाशित लेखक के लेख का अंश )

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