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संपादक परंपरा

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Jan 23, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Jan 2018 11:11:10

स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद 14 जनवरी, 1948 को मकर संक्रांति के पावन पर्व पर अपने आवरण पृष्ठ पर शंखनाद करते भगवान कृष्ण के चित्र के साथ श्री अटल बिहारी वाजपेयी के संपादकत्व में ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक का अवतरण हुआ। यह देश को स्वाधीनता आन्दोलन के प्रेरक आदर्शों एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प का पत्रकारीय उद्घोष ही था।
अटल जी के बाद ‘पाञ्चजन्य’ के संपादक पद को सुशोभित करने वालों की सूची में सर्वश्री राजीव लोचन अग्निहोत्री, ज्ञानेन्द्र सक्सेना, गिरीश चन्द्र मिश्र, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, तिलक सिंह परमार, यादव राव देशमुख, वचनेश त्रिपाठी, केवल रतन मलकानी, देवेन्द्र स्वरूप, दीनानाथ मिश्र, भानुप्रताप शुक्ल, रामशंकर अग्निहोत्री, प्रबाल मैत्र, तरुण विजय, बल्देव भाई शर्मा और वर्तमान में हितेश शंकर जैसे नाम आते हैं।
पाञ्चजन्य के पूर्व संपादक महेंद्र कुलश्रेष्ठ बताते हैं-‘‘पाञ्चजन्य के इतिहास के सर्वप्रथम अध्याय में अटल जी के तुरंत पश्चात् उसके दूसरे संपादक के रूप में ज्ञानेन्द्र सक्सेना का स्थान महत्वपूर्ण है। उन्होंने आद्य संपादक द्वारा स्थापित कुशल संपादन परंपरा को बड़ी योग्यता से निभाया। उसके बाद संपादक बने श्री गिरीश चन्द्र मिश्र। बाद में अटल जी वाराणसी से निकलने वाले साप्ताहिक चेतना के संपादक बन गए। बाद में संघ पर प्रतिबंध के खिलाफ सत्याग्रह चला और उत्थान बंद हो गया। 1950-52 के बीच लखनऊ से दैनिक स्वदेश भी निकला। अटल जी उसके प्रधान संपादक थे, लेकिन यह दैनिक अधिक दिनों तक नहीं चल सका और आर्थिक तंगी के कारण बंद हो गया। अटल जी वीर-अर्जुन के संपादन के लिए दिल्ली चले गए। तब श्री ज्ञानेन्द्र सक्सेना पाञ्चजन्य के संपादक बने थे। पाञ्चजन्य के दो विशेषांक बहुत चर्चित रहे। दोनों ही विशेषांक पुस्तक आकार में थे। एक, राजनीति अंक एवं दूसरा, अर्थ अंक।
श्री गिरीश चन्द्र मिश्र 1951 से 1956 तक पाञ्चजन्य के संपादक रहे। वे ग्वालियर में रा.स्व.संघ के प्रचारक थे। अटल जी ने उन्हें पाञ्चजन्य में काम करने के लिए बुलाया था। बाद में वे इसके संपादक बने। श्री मिश्र 1948 में पत्रकारिता से जुड़े। मई 1948 में वे अटल जी के बुलावे पर लखनऊ आ गए थे। अटल जी के ही कहने पर इलाहाबाद से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र क्रिटिक में काम किया। उस समय इसके संपादक प्रसिद्ध पत्रकार श्री रामरख सिंह सहगल थे। उसी समय वहीं
से कर्मयोगी मासिक भी निकलता था। अटल जी इन दोनों से जुड़े थे।
वचनेश त्रिपाठी हिन्दुस्थान के हिंदी लेखकों में ऐसे हस्ताक्षर थे जो न केवल क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे, वरन् आजादी के आंदोलन के बहुत सारे अनछुए पहलुओं के इतिहासकार भी थे। साप्ताहिक पाञ्चजन्य, मासिक राष्ट्रधर्म तथा दैनिक तरुण भारत में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के रूप में इन्हें संपादन के क्षेत्र में प्रवेश करने का अवसर मिला। लगभग 30 वर्ष तक इन्होंने बारी-बारी से साप्ताहिक पाञ्चजन्य, मासिक राष्ट्रधर्म के संपादक के रूप में काम किया, फिर सेवानिवृत्ति ले ली। इनके द्वारा निकाले गए क्रांति कथा अंक देशभर में चर्चा का विषय बने।
वचनेश जी के सेवानिवृत्त होने के बाद तिलक सिंह परमार और यादवराव देशमुख ने क्रमश: संपादक का दायित्व संभाला। वरिष्ठ  पत्रकार श्री रामबहादुर राय ने बताया कि यादवराव जी स्वतंत्र-चेता थे। इसके बाद रा.स्व. संघ के पूर्व प्रचारक, भारतीय इतिहास तथा संस्कृति के गहन अध्येता देवेंद्र स्वरूप ने संपादक का पदभार संभाला। श्री देवेंद्र स्वरूप बताते हैं-‘‘फरवरी 1968 में पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के बाद पाञ्चजन्य का प्रकाशन दिल्ली लाने का निर्णय किया गया। एक दिन मुझे सरकार्यवाह बालासाहब देवरस ने झंडेवालान कार्यालय बुलाकर कहा-पाञ्चजन्य दिल्ली आ रहा है और उसके संपादक के तौर पर तुम्हारे नाम का सुझाव आया है। मैं सहसा विश्वास नहीं कर सका, क्योंकि 1960 में जिन कारणों से मुझे पाञ्चजन्य से अलग होना पड़ा था, उनकी पृष्ठभूमि में मुझे पुन: यह दायित्व सौंपना बहुत बड़ा निर्णय था। मैं संगठन की इस विशाल हृदयता से अभिभूत हो गया और हां कर दी।
शिक्षक रहते हुए ही मेरी संपादक यात्रा आरंभ हो गई। अब आवश्यकता थी मुझे सक्षम सहयोगी देने की। इस कमी को पूरा करने के लिए दीनानाथ मिश्र जोधपुर से दिल्ली लाये गये। उनका परिवार बिहार के गया जिले से राजस्थान के जोधपुर में आ गया था। वहीं दीनानाथ जी ने पढ़ाई की और संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता बने, पर उनमें लेखन की जन्मजात प्रवृत्ति थी। पत्रकारिता की ओर उनका सहज झुकाव था। यह झुकाव ही उन्हें पाञ्चजन्य में खींच लाया और उनकी पत्रकार यात्रा आरंभ हो गई। मुझे स्मरण है कि 1969 में गांधी जी का जन्मशताब्दी वर्ष आया। हमने पाञ्चजन्य का विशेषांक आयोजित करने का विचार किया। गांधी जी के जीवन दर्शन, जीवनशैली एवं संस्कृति बोध से पूरी तरह सहमत होते हुए भी एक सामान्य धारणा मनों में बैठ गई थी कि गांधी जी यदि चाहते तो देश का विभाजन रुक सकता था। हिन्दू समाज को उन्होंने भरोसा दिलाया था कि ‘विभाजन मेरी लाश पर होगा’। समाज के इस विश्वास को वे नहीं निभा पाये और यह दंश अभी तक दिलों में बैठा हुआ था। काफी बहस के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विभाजन का अध्याय तो पीछे जा चुका है, अब हमें गांधी जी के राष्ट्र निर्माता के पक्ष को ही प्रस्तुत करना चाहिए। इस प्रकार पाञ्चजन्य का वह विशेषांक संघ क्षेत्रों में गांधी जी के पुनर्मूल्यांकन का उदाहरण बन गया।
उस समय पाञ्चजन्य की प्रसार संख्या प्रति सप्ताह हजारों में बढ़ी। उसे पाञ्चजन्य का चरमोत्कर्ष कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। किंतु उन्हीं दिनों पाञ्चजन्य के स्वामी राष्ट्रधर्म प्रकाशन ने एक बड़ा निर्णय लिया। लखनऊ में उनके पास एक बड़ा छापाखाना था, जिसका पेट भरने के लिए काम चाहिए था। प्रबंधन ने तय किया कि पाञ्चजन्य का संपादन तो दिल्ली में ही हो पर उसका मुद्रण लखनऊ में हो। इस आशय का एक पत्र मुझे भेजा गया। मैं अवाक् था कि इतना बड़ा अव्यावहारिक निर्णय संपादक के नाते मुझे विश्वास में लिये बिना क्यों ले लिया गया? मैंने संपादन से अलग रहने का निश्चय किया। दीनानाथ से चर्चा की। वे मेरी सोच से सहमत तो थे, पर संगठन के निर्णय का सम्मान करने के लिए वे प्रयोग करना चाहते थे। इस मन:स्थिति में 15 अगस्त, 1972 को स्वतंत्रता की रजत जयंती विशेषांक के बाद उन्होंने पाञ्चजन्य का संपादक पद संभाला और 1974 तक वे इस प्रयोग की सफलता के लिए प्रयास करते रहे। प्रबंधन ने चाहा कि वे लखनऊ रहकर संपादन करें पर यह दीनानाथ जी की पारिवारिक स्थितियों में व्यवहार्य नहीं था। अत: वे लखनऊ नहीं जा सके और वह प्रयोग विफल हो गया।’’
हिन्दुस्थान समाचार के प्रधान संपादक रहे रामशंकर अग्निहोत्री 1986 से 1989 तक पाञ्चजन्य के संपादक और प्रबंध संपादक एवं भारत प्रकाशन, नई दिल्ली के महाप्रबंधक रहे। उनके बाद तरुण विजय पाञ्चजन्य के संपादक रहे। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत ब्लिट्ज अखबार से की थी। बाद में कुछ सालों तक फ्रीलांसिंग करने के बाद वह संघ से जुड़े और उसके प्रचारक के तौर पर दादर एवं नगर हवेली में वनवासियों के बीच काम किया। तरुण विजय के बाद दैनिक जागरण, अमर उजाला और पाञ्चजन्य में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार बल्देव भाई शर्मा पाञ्चजन्य के संपादक रहे। वर्ष 2013 में बल्देव भाई के बाद हितेश शंकर ने पाञ्चजन्य का संपादन दायित्व संभाला। इससे पहले उन्होंने दैनिक जागरण, इंडिया डुटे और दैनिक हिन्दुस्तान जैसे ख्यात समचारपत्रों में लंबे समय तक अपनी सेवाएं दीं।
पाञ्चजन्य में वर्ष में कम से कम चार विशेषांक निकलते रहे हैं- स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस, दीपावली और वर्ष प्रतिपदा। आवश्यकतानुसार, विषयानुसार विशेषांकों का आयोजन किया जाता रहा। प्रत्येक विशेषांक में इतिहास, संस्कृति और राजनीति पर विचार प्रधान लेखों का संकलन होता है। तिलक सिंह परमार के संपादन काल में समाज अंक, राष्टÑीय एकता अंक, केरल अंक, तिब्बत अंक और जनसंघ अंक निकले। यादवराव देशमुख ने हिमालय बचाओ अंक, युद्ध अंक, कश्मीर अंक, भारत-नेपाल मैत्री अंक का आयोजन किया। वचनेश त्रिपाठी ने स्वाधीनता के लिए हुए क्रांति संघर्ष पर दो क्रांति संस्मरण अंक आयोजित किए। केवल रतन मलकानी के प्रधान संपादकत्व में देवेन्द्र स्वरूप ने भारतीयकरण विशेषांक, गांधी जन्म शताब्दी विशेषांक, बंगाल विशेषांक, बंगलादेश मुक्ति विशेषांक, दरिद्रनारायण विशेषांक आदि का आयोजन किया। भानु प्रताप शुक्ल ने क्रांति कथा अंक, वीर वनवासी अंक, उद्योग अंक आदि निकाले। प्रबाल मैत्र के संपादन काल में अपना वतन अंक, समाधान अंक, वैशाखी अंक आदि का प्रकाशन हुआ। तरुण विजय के संपादकत्व में सामाजिक समरसता अंक, अभिनव भारत अंक, धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे अंक, संघ गंगा अंक, विजयी भारत अंक, हितेश शंकर के संपादकत्व में बाबा साहेब की 125वीं जयंती और राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के 90 वर्ष पूरे होने पर विशेष संग्रहणीय अंक आदि अनेक विशेषांकों का आयोजन हुआ। यह क्रम अनवरत जारी है।
पाञ्चजन्य के विशेषांक कभी पूर्णाकार, कभी पत्रिकाकार, तो कभी पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं। संग्रहणीय होने के कारण पाञ्चजन्य के पाठक इन विशेषांकों को एक अमूल्य निधि की तरह संजोकर रखते हैं।    

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