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एनआरसी के लिए असम में लोगों ने फर्जी कागजात के साथ आवेदन किए हैं। पुलिस ने कई लोगों के खिलाफ छानबीन करने के बाद प्राथमिकी भी दर्ज की है। आवेदनों का सत्यापन अभी बाकी है
उपमन्यु हजारिका
असम में चल रहे एनआरसी की अगर पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि उसमें बहुत-सी जटिलताएं हैं, क्योंकि अभी जो काम चल रहा है, वह 25 मार्च, 1971 के ‘कटआॅफ’ साल के बाद आए घुसपैठियों को अलग करने का है। फिलहाल जो कठिनाई आ रही है, वह असल पहचान और घुसपैठियों के बीच की है। इसे देखते हुए पहचान की बाकायदा एक प्रकिया बनाई गई है। पहचान की मौजूदा प्रक्रिया के तहत असम में बसे सभी लोगों के आवेदन मंगाए गए हैं। इसमें लोगों से अपनी पूरी जानकारी एनआरसी से जुड़े अधिकारियों को देने को कहा गया है। साथ ही, राज्य के लोगों से 25 मार्च, 2005 के पहले के सभी कागजात संलग्न करने के लिए कहा गया है। यह ताकीद भी की गई है कि उक्त दस्तावेज नहीं देने पर सूची में नाम नहीं आएगा।
एनआरसी सूची में नाम दर्ज कराने के लिए भारतीयों और संदिग्ध बांग्लादेशी घुसपैठियों, दोनों ने ही आवेदन दिए हैं। गौर करने वाली बात यह है कि प्रार्थनापत्र के साथ फर्जी कागजात संलग्न करने वाले कई लोगों की छानबीन करने के बाद पुलिस ने प्राथमिकी भी दर्ज की है। अब यह देखना है कि इस पूरी प्रक्रिया में कितने लोग वैध घोषित होंगे और कितने अवैध। 2004 में संसद में संप्रग सरकार ने प्रश्नकाल के दौरान एक सवाल के जवाब में कहा था कि 2001 तक राज्य में 50 लाख घुसपैठिये थे जो असम की जनसंख्या का 20 प्रतिशत थे। इसके बाद नवंबर 2016 में केंद्रीय राज्य मंत्री किरन रिजिजू ने भी संसद में बताया कि देश में लगभग 2 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिये रह रहे हैं। इस हिसाब से असम में लगभग 80 लाख घुसपैठिये आंके गए, जो कुल जनसंख्या का 25 प्रतिशत हैं। यह तो साफ है कि असम में बांग्लादेशी घुसपैठिये बड़ी तादाद में हैं।
अभी एनआरसी की जो पहली मसौदा सूची आई है, वह केवल 40-50 प्रतिशत आबादी की ही है। बाकी 50 प्रतिशत आबादी की सूची आनी है। इसके बाद ही राज्य की पूरी तस्वीर साफ होगी कि कितने बांग्लादेशी अंदर आ गए और कितने बाहर जाएंगे। इसलिए अभी इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। महत्वपूर्ण बात यह है कि 46 साल बाद हम इस मामले में पहल कर रहे हैं।
एनआरसी प्रक्रिया की सबसे बड़ी जटिलता यह है कि राज्य में 60 लाख से अधिक जो घुसपैिठये रह रहे हैं, उनके एक से लेकर दर्जनभर तक बच्चे हैं। यहां तक कि उन बच्चों के भी ऐसे ही दर्जनों बच्चे पैदा हो गए हैं। इसलिए नई पीढ़ी को जन्म के आधार पर नागरिकता देनी है या नहीं, यह सवाल भी अहम है। 2004 तक यह व्यवस्था थी कि किसी भी विदेशी दंपति की संतान को जन्म के आधार पर स्वत: ही नागरिकता मिल जाती थी। भले ही मां-बाप विदेशी ही क्यों न हों। 1997 से 2004 के दौरान नियम था कि माता या पिता में से एक को भारतीय होना चाहिए। ऐसी स्थिति में उनके बच्चे को बिना शर्त नागरिकता मिल जाती थी। लेकिन 30 दिसंबर, 2004 को इस नियम में बदलाव किया गया। इसमें नया नियम जोड़ा गया कि माता-पिता दोनों को स्वदेशी होना पड़ेगा, तब उनके बच्चे को नागरिकता मिलेगी। इसलिए जो अभी एनआरसी का ‘कटआॅफ’ साल जारी किया गया है, वह 30 दिसंबर, 2004 के बाद का है। इन सबका नतीजा यह हुआ कि असम में रह रहे घुसपैठियों के बच्चों और उनके भी बच्चों को राज्य की नागरिकता मिल गई। इसे देखते हुए ही एनआरसी सूची तैयार की गई। हालांकि इसका ज्यादा अर्थ नहीं निकलने वाला है। दूसरी बात यह है कि बड़ी संख्या में फर्जी आवेदन किए गए हैं। इसमें कितने आवेदन असली हैं और कितने नकली, इसका सत्यापन अभी होना है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सत्यापन 1948 से होना चाहिए या 1971 से? उच्चतम न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने 2014 में कहा था कि जब बाकी राज्यों में नागरिकों की पहचान 1948 से हो रही है तो असम में 1971 से क्यों? हालांकि अभी यह मामला लंबित है, क्योंकि असम के लोगों की मांग रही है कि पूरी छानबीन 1951 के पहले के जनसंख्या सर्वेक्षण पर आधरित हो, तभी असम के साथ न्याय होगा।
(लेखक उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता और हजारिका आयोग के अध्यक्ष हैं।)
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