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मोदी सरकार ने पिछले आम बजट में चुनावों में राजनीतिक दलों को काले पैसे से चंदा दिए जाने पर रोक लगाने का वादा किया था। अब उसी वादे को पूरा करते हुए सरकार ने स्टेट बैंक के जरिए चुनावी बांड लाने की योजना बनाई है
आलोक पुराणिक
बांड का काम है अपराधों को थामना। जेम्स बांड अक्सर यह काम फिल्मों में करता दिखाई देता है। अब एक और किस्म का बांड बहुत बड़े किस्म के आर्थिक अपराध को थामने की कोशिश करता दिखता है, यह है चुनावी बांड। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 1 फरवरी, 2017 को पेश 2017-18 के बजट में चुनावी बांडों की घोषणा की थी। और अभी गत 2 जनवरी को चुनावी बांडों के बारे में उनकी ओर से कुछ महत्वपूर्ण घोषणाएं हुई हैं। चुनावी बांड जेम्स बांड की तरह हर बुराई का खात्मा एक झटके में कर देंगे, ऐसी उम्मीद तो अतिरेकी ही होगी, पर यह चुनावी वित्त व्यवस्था में पारदर्शिता लाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम तो हैं ही।
क्या हैं ये बांड
ये बांड मूलत ‘बेयरर चेक’ जैसे दस्तावेज होंगे। ‘बेयरर चेक’ ऐसा चेक होता है, जिस पर किसी का नाम नहीं लिखा होता। यह चेक जिसके पास होता है, वही उस चेक पर लिखी राशि को ले सकता है। तो ये बांड मूलत नकद नोट जैसे ही हैं। बस नोट और इनमें फर्क यह है कि इनकी ‘एंट्री’ बैंकों में होगी। ये इस तरह से काम करेंगे। 1000 रुपये, 10000 रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये मूल्य के चुनावी बांड स्टेट बैंक की तय शाखाओं से भारतीय नागरिक या भारत में स्थापित संस्थाएं ले सकती हैं। ये बांड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर में 10-10 दिनों के लिए उपलब्ध रहेंगे। इसके अलावा आम चुनावों के साल में केंद्र सरकार अतिरिक्त 30 दिन के लिए भी इन्हें उपलब्ध करवा सकती है। कोई भारतीय नागरिक या भारतीय कंपनी इन्हें खरीदकर उन राजनीतिक दलों को दे सकती है, जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव या विधानसभा चुनाव में डाले गये वोटों का एक प्रतिशत मत हासिल किया हो। वह राजनीतिक दल इन चुनावी बांडों को 15 दिन में भुनवा सकता है यानी बांडों में दर्ज रकम को नकद में हासिल कर सकता है।
चुनावी बांडों के जरिये चंदा देने वाली कंपनियां इस चुनावी बांड की रकम को अपनी बैलेंस शीट में दिखा सकती हैं। राजनीतिक पार्टियां चुनावी बांडों के जरिए मिली रकम को अपने खातों में दिखाएंगी। यानी इस व्यवस्था में चंदा देने वाला और चंदा लेने वाला अपने-अपने खाते में दिखाएगा। बस जो नहीं दिखेगा, वह यह कि किस चंदा देने वाले ने किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया। यह तथ्य छिपा रहेगा। पर कितना चंदा गया, कितना चंदा आया, ये तथ्य साफ होंगे।
एक फरवरी, 2017 को पेश आम बजट में घोषित प्रावधानों के मुताबिक राजनीतिक पार्टियां एक ही व्यक्ति से 2,000 रुपये से ज्यादा पैसा नकद नहीं ले सकतीं, पहले यह सीमा 20,000 रु. थी।
पारदर्शिता की ओर
केंद्रीय वित्त मंत्री ने चुनावी बांडों पर एक फेसबुक पोस्ट लिखी है, जिसका आशय यह है कि चुनावी बांडों से चुनावी वित्त व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। चुनावी बांडों के बाद यह पता चल पाएगा कि तंत्र में पैसा आया कितना। अभी तो यही पता लगाना मुश्किल होता है कि चुनावी फंडिंग कितनी और कैसे होती है। किसने किसको कितने पैसे दिए, यह पता ना भी चले, तो कम से कम यह तो पता चल ही जाएगा कि इन बांडों से समूचे कॉर्पोरेट जगत ने समूचे राजनीतिक तंत्र को कितनी रकम दी। कितना राजनीतिक चंदा दिया, लिया गया, यह आंकड़ा तो सामने आएगा। जेटली ने इस संबंध में सुझाव आमंत्रित किए हंै। दरअसल यह ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सारी महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियों का सहयोग जरूरी होगा। चुनावी बांड को ऐसी पहल के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है, जिसके पूरे कार्यान्वन से चुनावी चंदे में ज्यादा पारदर्शिता आ पाएगी।
समस्या की जड़
अभी मोटे तौर पर सारी राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग का करीब 69 प्रतिशत उन स्रोतों से आता है, जिनके बारे में जानकारियां हंै ही नहीं। जैसे, अभी भी 2000 रुपये तक का चंदा देने के लिए कुछ बताना जरूरी नहीं है। 2000 रुपये का नकद चंदा देने वाले अगर लाखों लोग हों, तो भी चंदे के स्रोत को पता नहीं लगाया जा सकता। यानी पैसा आ कहां से आ रहा है, यह पता लगाना मुश्किल है। नकद का कोई चेहरा नहीं होता। पर चुनावी बांड किसने कितने खरीदे, इसका रिकार्ड बैंक में रहेगा। आदर्श व्यवस्था तो वह होगी जिसमें नकद चंदे का या तो चलन हो ही न, और अगर हो तो एक रुपये का चंदा देने वाले का भी पता-ठिकाना मालूम होे। यानी पैसे के स्रोत का पता रहे, तो स्थिति बदल जाती है। मतलब यह भी जरूरी नहीं है कि हर रुपये या हर एक हजार रुपये का चंदा देने वाले की जांच हो। पर जैसे ही यह तथ्य सामने आता है कि हर लेन-देन का रिकार्ड रखा जा रहा है, स्थिति थोड़ी बदल जाती है। नकद-रहित होना समस्या को एक तरह से खत्म करना है। नकद-रहित का, डिजिटल लेन-देन का रिकार्ड रहता है।
नकद-रहित के विरोध के मायने
नकद का कोई चेहरा नहीं होता। इसलिए रिश्वत का लेन-देन नकद में होता है। नकद की दावेदारी छोड़ी जा सकती है। नकद बरामद होने पर उसकी मिल्कियत से इनकार किया जा सकता है। दो नंबर के काम अधिकतर नकद में होते हैं। नकद न्यूनतम का आशय है कि आर्थिक लेन-देन का कहीं रिकार्ड रखा जा रहा है। रिकार्ड रखे जाने से उन लोगों को परहेज होता है जिनकी आय के साधन ही साफ नहीं हैं। अपहरण से कमाया गया पैसा नकद में बतौर चंदा दिया जा सकता है। पर इन पैसों से एक हद के बाद चुनावी बांड नहीं खरीदे जा सकते। अपहरण नहीं अगर किसी आदमी की आय के साधन तो कानूनी हैं, पर वह उस पर कर नहीं देता। जैसे कोई डाक्टर अपनी फीस नकद में लेता है, पर कोई रसीद नहीं देता। एक लाख रुपये रोज कमाकर सिर्फ दस हजार रोज की कमाई दिखाता है। नब्बे हजार नकद में रखता है। तो इस रकम से भी एक हद के बाद चुनावी बांड के जरिये चंदा नहीं दिया जा सकता। चुनावी बांड के लेन-देन में स्टेट बैंक को न्यूनतम जानकारियां तो देनी पडेंÞगी, इस वजह से चुनावी फंडिंग में एक पारदर्शिता आने की संभावना है।
नकद में हासिल रकम को कहीं से कहीं आसानी से स्थानांतरित किया जा सकता है। इसलिए चुनावी दिनों में ऐसी खबरें लगातार आती हैं कि इतने लाख रुपया नकद पकड़ा गया। नकद पकड़ लिये जाने के बाद उससे संबंधित लोगों ने उसकी मिल्कियत से ही इनकार कर दिया। नोटबंदी यानी नकदबंदी का कड़ा विरोध उन राजनीतिक दलों ने किया था, जिनके पास नकद की शक्ल में बहुत बड़ी रकम मौजूद थी, पर उसका हिसाब मौजूद नहीं था। यानी रकम नकद में हो, उसका हिसाब ना बताना हो, तो कितनी भी रकम खपाई जा सकती है। पर अगर न्यूनतम हिसाब देना पड़े, तो फिर नकद संकट पैदा करता है। इसलिए आर्थिक लेन-देन का रिकार्ड रखा जाए, यह कई राजनीतिक दलों को रास नहीं आता। काले कामों के लिए नकद ही सुरक्षित है। कोई रिकार्ड नहीं, कोई एंट्री नहीं। बांड या डिजिटल लेन-देन के जरिए उसका रिकार्ड होता ही होता है।
‘एक हाथ ले, दूसरे हाथ दे’ पर रोक
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था खासी जटिल है। कई महत्वपूर्ण राजनीतिक दल पारिवारिक घरानों की तरह चल रहे हैं। पारदर्शिता का सख्त अभाव है, प्रबंधन से वित्तीय व्यवस्था तक। तंत्र मोटे तौर पर यह चलता है कि कोई उद्योगपति, कोई कारोबारी अपनी तरह से पार्टी की मदद करता है, फिर वह उसकी वसूली अपनी तरह से करता है, सरकार की तमाम नीतियों को अपने पक्ष में करवाकर। सरकारों से एकतरफा फैसले करवाकर। कोई उद्योगपति किसी राजनीतिक दल को चंदा दे, इसमें कोई दिक्कत नहीं है। उद्योगपति भी अपने हिसाब से अपनी राजनीतिक सोच-समझ रख सकता है। पर अपने दिये गये चंदे का इस्तेमाल अगर उद्योगपति अपने कारोबारी हितों के संरक्षण और संवर्धन के लिए करता है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा है। विजय माल्या की पैठ भारत के लगभग हर महत्वपूर्ण राजनीतिक दल में थी। इसका नतीजा भी देश ने देखा। करीब 9,000 करोड़ रुपये का कर्ज बैंकों से लेकर विजय माल्या भाग कर लंदन जा बैठे। माल्या अकेले उदाहरण नहीं हैं, बहुत हैं जिन्होंने अपनी वित्तीय क्षमताओं का इस्तेमाल राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए किया। फिर राजनीतिक ताकत हासिल करके अपनी वित्तीय क्षमताएं बढ़ाई। ऐसी सूरत में परेशानी उन पार्टियों और उन प्रत्याशियों को होती है, जो अपने लिए सही वित्तीय व्यवस्था नहीं जुटा पाते। सही वित्तीय जुगाड़ करने के लिए तमाम राजनीतिक दल उन उद्योगपतियों को संसद में लाते हैं, जिनकी एकमात्र क्षमता उनका धनी होना ही है। हाल में राज्यसभा के चुनावों के नामांकन के वक्त ऐसे विवाद उठे थे, जिनमें उद्योगपतियों, धनिकों को अपनी धन क्षमता के चलते राज्यसभा का नामांकन मिला। धन और राजनीति की ऐसी दुरभिसंधि आम जनता के लिए घातक होती है। ऐसी सूरत में उद्योगपति राजनीतिक दल को दी गई रकम को निवेश मानता है और उस निवेश पर उसे किसी भी कीमत पर रिटर्न चाहिए होते हैं। पूरी राजनीति निवेश और रिटर्न का खेल बनकर रह जाती है। जनता और जनता के मुद्दे कहीं पीछे छूट जाते हैं। वित्तीय व्यवस्था लगातार पारदर्शी हो, तो ऐसी स्थितियों को दूर किया जा सकता है।
पर ऐसा करना जितना जरूरी है, उतना मुश्किल भी है। मुश्किल इसलिए कि राजनीतिक पार्टियां बहुत सस्ती लोकप्रियता से महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों को भटकाने की सामर्थ्य रखती हैं। चुनावों से पहले मुफ्त की शराब का वितरण उस नकद से होता है, जिसका हिसाब-किताब कहीं नहीं होता। चुनावों में अगर नकद की भूमिका न्यूनतम रहेगी, तो इस तरह के भटकाव भी न्यूनतम रहेंगे, पर ऐसी आदर्श स्थिति को हासिल करना आसान नहीं है। चुनावी बांड वैसी आदर्श स्थिति को हासिल करने की राह में एक कदम है। राह लंबी है और मंजिल बहुत दूर है।
जनता परिपक्व हो, वह तमाम नेताओं पर दबाव बनाये कि वे अपनी वित्तीय व्यवस्था को पूरे तौर पर पारदर्शी बनायें। तभी लोकतंत्र को पूरे तौर पर परिपक्व माना जा सकता है। ल्ल
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