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2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में विशेष सीबीआई अदालत द्वारा आरोपियों को ‘बेकसूर’ करार देने के बाद क्या मान लिया जाए कि घोटाला हुआ ही नहीं? इस मामले में न तो सीबीआई जज ने अपने अधिकारों का प्रयोग किया, न जांच अधिकारियों ने और न ही अभियोजन पक्ष ने कोई जिरह की। ऐसी भी क्या लाचारी थी?
ाँपछले कुछ वर्षों से न्यायपालिका से ऐसे फैसले आ रहे हैं, जिससे मन बेचैन सा हो जाता है। पहले मैं अपने अनुभव से रू-ब-रू कराता हूं- एक केस 308/325 का था। मैं इस मामले में गवाह था और बचाव पक्ष के वकील से जिरह में सही-सही जवाब दिए। प्रक्रिया लंबी होने की वजह से मैंने केस फॉलो नहीं किया। पर, जब फैसला आया तो हैरान रह गया, क्योंकि अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया। फैसला पढ़ा तो मेरी आंखें फटी रह गर्इं, क्योंकि जांच अधिकारी ने जान-बूझकर केस में शक की गुंजाइश छोड़ दी थी।
दिलचस्प बात यह कि बचाव पक्ष के वकील ने मुझसे पूछा- ‘‘जब लड़ाई हो रही थी, तब राम सिंह (बदला नाम) के अलावा भीड़ से पीड़ित को बचाने कोई आया था?’’ मैंने जवाब दिया- ‘‘राम सिंह के अलावा भीड़ में से पीड़ित को बचाने कोई नहीं आया।’’ पर जज के रीडर ने लिख दिया कि जब लड़ाई हो रही थी, तब भीड़ में से कोई बचाने नहीं आया। अंतिम बहस में बचाव पक्ष के वकील ने जज के सामने दलील दी कि जनाब गवाह ने बताया था कि भीड़ में से राम सिंह बचाने आया था, लेकिन जिरह में उसने कहा कि भीड़ में से कोई बचाने ही नहीं आया।’’ इसके अलावा, जांच अधिकारी ने भी आरोपियों से मिलकर गवाही में कई लूप होल छोड़ दिए थे, जिसे बचाव पक्ष के वकील ने अपने पक्ष में मोड़ लिया। अदालत ने अपने फैसले में माना था कि बचाव पक्ष ने कई मनगढंÞत सबूत पेश किए, पर संज्ञान लेकर आरोपियों, जांच अधिकारी पर मामला दर्ज करने का आदेश नहीं दिया। इसलिए फैसला आने का मतलब यह नहीं कि बरी होने वाला आरोपी ‘बेकसूर’ है।
देश की न्याय प्रणाली में कई खामियां हैं। गवाह, जांच अधिकारी, न्याय प्रणाली से जुड़े लोग, दस्तावेजी साक्ष्य और वकील, किसी भी केस में इन सबकी अहम भूमिका होती है। सच को साबित करना पड़ता है। उसमें शक की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। मेरे पास साझा करने के लिए कई अनुभव हैं, जब न्यायपालिका ने ऐसे फैसले दिए जो असलियत से उलट थे। इसमें सत्र न्यायायल से उच्च न्यायालय तक के निर्णय शामिल हैं। याद कीजिए, आईपीएल फिक्सिंग मामला, जिसे दिल्ली पुलिस के तत्कालीन कमिश्नर नीरज कुमार देख रहे थे। चार्जशीट उनकी देखरेख में तैयार हुई थी, लेकिन हुआ क्या? देश को हिला देने वाले इस मामले में केस तक नहीं चला और जज साहब ने चार्ज के समय ही सभी आरोपियों को डिस्चार्ज कर दिया। लिहाजा 2जी पर फैसला आया तो मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। लेकिन यह मान लेना कि घोटाला नहीं हुआ और देश के साथ गद्दारी नहीं की गई, कतई ठीक नहीं होगा।
नोट : यह टिप्पणी अकादमिक है, जिसका अदालत के फैसले से लेना-देना नहीं है।
(शंकर सिंह की फेसबुक वॉल से)
2जी घोटाले का सबसे बड़ा सवाल
2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मुकदमे में ए. राजा व कनिमोझी को दोषमुक्त करते हुए विशेष सीबीआई जज ओ.पी.सैनी ने कहा था कि कलैंगर टीवी को कथित रिश्वत के रूप में शाहिद बलवा की कंपनी डीबी समूह द्वारा 200 करोड़ रुपये देने के मामले मेंं अभियोजन पक्ष ने किसी गवाह से जिरह तक नहीं की। कोई सवाल नहीं किया। मान लिया कि कोई सवाल नहीं किया, क्योंकि शायद मनमोहन सरकार के तोते सीबीआई के वकील को ऐसा करने की अनुमति नहीं रही होगी। पर, जज साहब के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ऐसे ही मौके के लिए धारा 165 का प्रावधान किया गया है। आश्चर्य है कि धारा में प्रदत्त अधिकार का सैनी साहब ने इस्तेमाल क्यों नहीं किया। संभवत: इस सवाल पर अब ऊपरी अदालत में विचार होगा कि जज ने धारा 165 में मिली शक्ति का उपयोग क्यों नहीं किया जबकि उनके पास सूचना थी कि इस घोटाले में 200 करोड़ रुपये रिश्वत देने का आरोप लगा हैै? इस केस का यह सबसे प्रमुख सवाल है। उक्त धारा के अनुसार, ‘‘न्यायाधीश सुसंगत तथ्यों का पता लगाने या उनका उचित सबूत अभिप्राप्त करने के लिए, किसी भी रूप में किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकारों से, किसी भी सुसंगत या विसंगत तथ्य के बारे में कोई भी प्रश्न, जो वह चाहे पूछ सकेगा तथा किसी भी दस्तावेज या चीज को पेश करने का आदेश दे सकेगा और न तो पक्षकार और न उनके अभिकर्ता हकदार होंगे कि वे किसी भी ऐसे प्रश्न या आदेश के प्रति कोई भी आक्षेप करें, न ऐसे किसी भी प्रश्न के प्रत्युत्तर में दिए गए किसी भी उत्तर पर किसी भी साक्षी
की न्यायालय की इजाजत के बिना प्रति परीक्षा करने के
हकदार होंगे।’’ (सुरेंद्र किशोर की फेसबुक वॉल से)
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