सऊदी अरब की बदलती फिजा
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सऊदी अरब की बदलती फिजा

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Jan 8, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2018 11:11:10

प्रिंस सलमान की अगुआई में सऊदी अरब मजहबी जकड़नों से निकलकर बढ़ती दुनिया और खुले विचारों को अपनाने को तैयार दिखता है। मजहबी और आर्थिक सुधारों की ओर बढ़ते मुल्क में कट्टर मौलानाओं की बोलती बंद

 

शंकर शरण

सऊदी अरब में सरकार ने सिनेमाघरों को पुन: खोलने की घोषणा की है। मार्च 2018 से वहां सिनेमाघरों में फिल्मों का प्रदर्शन शुरू हो जाएगा तथा आगामी वर्षों में कुल 300 सिनेमा-कॉम्प्लेक्स खोले जाएंगे। इससे हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा। ज्ञातव्य है कि लगभग 35 वर्ष पहले कट्टरपंथी इस्लामियों के दबाव में वहां फिल्में दिखाना प्रतिबंधित कर दिया गया था।
इसी तरह, गत 6 दिसंबर को राजधानी रियाद में लेबनानी गायिका हिबा तवाजी का कार्यक्रम हुआ। असंख्य सऊदी महिलाएं हिबा के अरबी संगीत के साथ-साथ पश्चिमी पॉप गायिका सेलीन डियोन की धुनों पर थिरकीं।  हिबा का ऐतिहासिक कार्यक्रम सऊदी लड़कियों, महिलाओं के लिए आह्लादकारी अवसर था। भारत जैसे खुले समाज में हिन्दू तो क्या, यहां के मुस्लिम भी उस रोमांच को महसूस नहीं कर सकते जो सऊदी अरब में महसूस किया जा रहा है। सबसे ताजा निर्णय यह है कि सऊदी अरब में महिलाएं स्टेडियमों में जाकर फुटबॉल मैच देख सकती हैं। आगामी जून से महिलाएं अकेले गाड़ी भी चला सकेंगी।
हालांकि अभी यह कहना कठिन है कि यह बदलती हवा स्थायी है या नहीं। किन्तु वहां के नए शासक 32 वर्षीय प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान के नेतृत्व में मजहबी और आर्थिक सुधार का एक महत्वाकांक्षी कार्य शुरू हुआ है। इसकी सफलता और प्रगति पर पूरे मुस्लिम जगत का भविष्य निर्भर करता है। वैसे ये सुधार हमें मामूली लग सकते हैं, किन्तु पिछले पचास वर्ष में पूरे अरब जगत में ऐसा नहीं हुआ है। प्रिंस सलमान को सऊदी राजपरिवार के अधिकांश लोगों तथा युवा सऊदियों का खासा समर्थन मिलता दिख रहा है। अभी सऊदी अरब में 65 प्रतिशत आबादी 30 वर्ष के कम की है। ये अधिकांश सऊदी युवा दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलना चाहते हैं। वे गत दशक में दुनियाभर में सऊदी युवकों के बारे में बनी ‘संभावित आतंकवादी’ वाली छवि को  तोड़कर, आगे बढ़ना चाहते हैं। इसीलिए वहां प्रिंस सलमान के पक्ष में सामाजिक वातावरण इतना सशक्त लगता है कि संकीर्ण इमामों ने भी चाहे-अनचाहे, अपनी सहमति दे दी है।
सऊदी अरब में सिनेमा-संगीत, महिलाओं के लिए स्टेडियम में फुटबॉल मैच देखने, उन्हें कार चलाने की अनुमति आदि बड़े फैसले हैं। यदि ये सुधार सफल रहते हैं, तो पूरी दुनिया में मुसलमानों पर इसका बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। स्वयं इस्लाम धर्म में बुनियादी और वास्तविक सुधार होना शुरू हो सकेगा। इसलिए प्रिंस सलमान के अभियान का महत्व वैश्विक है। इसका आरंभ आर्थिक सुधारों से हुआ है जिसमें सर्वोच्च स्तर के राजकीय लोगों, स्वयं राजपरिवार के लोगों के भ्रष्टाचार को कड़ाई से खत्म किया जा रहा है। वहां भ्रष्टाचार की लगभग 100 अरब डॉलर की राशि सरकार के अधीन लाई गई है। विशेषज्ञों की सलाह से इन आर्थिक सुधारों, धन-जब्ती आदि को इस तरीके से किया गया जिससे किसी कंपनी, प्रतिष्ठान या व्यवसाय का काम न रुके और लोगों के रोजगार पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े। इसी तरह, रिश्वत देने वालों पर नहीं, बल्कि केवल लेने वालों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं। किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्ष मजहबी सुधारों का ही है।
प्रिंस सलमान सऊदी अरब को 1979 से पहले वाली स्थिति में लाना चाहते हैं, जब वहां इस्लामी कट्टरपंथ और वहाबी इमामों, मौलानाओं का वैसा आतंककारी दबदबा नहीं था जो विगत दो-तीन दशकों से नियमित देखा जा रहा है। तब सऊदी अरब में भी पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसी उदार सामाजिकता काफी हद तक स्वीकार्य थी। वहां महिलाएं खुले सिर, भद्र्र पश्चिमी परिधान पहन कर पुरुषों के साथ सार्वजनिक रूप से घूमती-फिरती थीं। प्रिंस सलमान उसी स्थिति को पुन: बहाल करना चाहते हैं। उनके शब्दों में, सऊदी अरब में फिर वही ‘संतुलित, संयत इस्लाम होना चाहिए जो दुनिया और सभी पंथों, परंपराओं और लोगों के प्रति खुला हो।’ यह अपने-आप में बहुत बड़ी बात लगती है। क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि इस्लामी एकांतिकता, कट्टरपंथ छोड़कर सऊदी अरब को सभी मत-पंथों के प्रति सहिष्णुता और सभी तरह के मतावलंबियों के प्रति आदर के मार्ग पर लाने का निश्चय किया गया है। ऐसा होने पर दुनिया में बड़ी युगांतरकारी संभावना छिपी है। प्रिंस सलमान ने सऊदी मजहबी पुलिस के अधिकारों पर अंकुश लगाया है, जो वहां नागरिकों के जीवन के हर पहलू पर कड़ाई से इस्लामी निदेर्शों को लागू करती है। शिक्षा में भी सुधार की तैयारी चल रही है। सालाना 1,700 सऊदी शिक्षकों को विश्व-स्तरीय प्रशिक्षण के लिए फिनलैंड भेजा जाएगा। इसका मतलब हुआ कि एक ईसाई, सेक्युलर देश के प्रशिक्षकों से सऊदी शिक्षक प्रशिक्षण लेंगे। केवल इसी बात से सुधारों की गंभीरता और संभावना को समझा जा सकता है। स्कूलों में बच्चों के लिए विज्ञान और सामाजिक विषयों में रुचि अनुसार खोज-बीन और प्रोजेक्ट करने की सुविधा देने का उपाय किया जा रहा है। मतलब यही कि केवल इस्लाम को अब शिक्षा का लक्ष्य नहीं माना जाएगा। सऊदी लड़कियों के लिए शारीरिक शिक्षण की कक्षाएं शुरू की जा रही हैं। योगाभ्यास को भी खेल-कूद के दर्जे की अनुमति दी गई है। यह भी बड़ा निर्णय है, क्योंकि सारी दुनिया इसे हिन्दू-बौद्ध ध्यान-साधना का एक अंग मानती है। लेकिन जब सऊदी अरब ने इसे स्वास्थ्य की दृष्टि से मान्यता दी है, तो इससे स्वभाविक रूप से सऊदियों के भारत से योग-प्रशिक्षण लेने या यहां के जानकारों द्वारा वहां जाकर योग-प्रशिक्षण देने का रास्ता खुलेगा। अब भारत के मुस्लिम लड़के-लड़कियों को योग शिक्षा लेकर प्रशिक्षक बनने पर सोचना चाहिए। वे पूरे मुस्लिम विश्व में अपने लिए एक सम्मानित रोजगार पा सकते हैं।
वस्तुत: प्रिंस सलमान ने कट्टरपंथी इस्लामियों को खुली वैचारिक चुनौती दी है। अब तक कट्टरपंथियों का तुष्टीकरण होता रहा है, जिसे सलमान गलत मानते हैं। वे इस बात को घुमा-फिराकर नहीं, बल्कि खुलकर कहते हैं कि ‘हम उग्रवाद को खत्म करेंगे।’ इन्हीं कारणों से सऊदी लोग वास्तविक सुधारों की उम्मीद कर रहे हैं और उनमें काफी उत्साह है। प्रिंस सलमान ‘इस्लाम की पुनर्व्याख्या’ वाली छद्म शब्दावली का प्रयोग नहीं करते। वे साफ कहते हैं कि समाज में खुलापन होना चाहिए, संगीत-कला की स्वतंत्रता और दूसरे मत के लोगों के प्रति आदर होना चाहिए। वे याद दिलाते हैं कि पैगम्बर मुहम्मद के जमाने में मदीना में महिला न्यायाधीश और महिला व्यापारी हुआ करती थीं। इस प्रकार, प्रिंस सलमान किन्हीं जड़ सिद्धांतों के बदले वास्तविक उदार व्यवहार को कसौटी बना रहे हैं। ऐसा व्यवहार, जिसे हर बात में कुरान, हदीस या किसी इमाम, उलेमा की अनुशंसा की जरूरत न रहे। एक बार सऊदी अरब में ऐसे मजहबी-सामाजिक सुधारों ने गति पकड़ ली, तो घर-घर इंटरनेट, यू-ट्यूब और सोशल मीडिया के जमाने में संपूर्ण मुस्लिम विश्व में वैसी ही गति को कोई रोक नहीं सकेगा। क्योंकि सऊदी अरब दुनियाभर के मुसलमानों की आदर्श-भूमि है। यदि वहां के मुसलमान दूसरे पंथों, समाजों के स्वतंत्र मनुष्यों की तरह सहज रूप से हंसने-गाने, खाने-पीने, घूमने-फिरने, खुलकर जीने और साझा करने लगेंगे, तो देखते ही देखते बिना किसी बहस-विवाद के सारी दुनिया में मुसलमान वैसा ही करने लगेंगे। इसलिए नहीं कि उन्हें सऊदी अरब की नकल करनी है, बल्कि इसलिए कि उन पर मुल्ला-मौलवियों ने जो जबरिया मजहबी अंकुश लगा रखा है, वह स्वत: हटने लगेगा। तब दुनियाभर के मुसलमान वैसे ही सहज मानवीय हो जाएंगे जो मनुष्य मात्र का स्वभाव है।  
निस्संदेह, प्रिंस सलमान के प्रयासों के लिए आज परिस्थिति भी अनुकूल लगती है। बल्कि, संभवत: बदलती स्थितियों में ही ऐसे सऊदी नेता का उदय हो सका है। अब पूरी दुनिया में इस्लाम में सुधार की मांग जोर पकड़ रही है। ऐसा सुधार जो हर चीज में इस्लाम लागू करने की बजाए, स्वयं इस्लाम को आधुनिक युग के अनुरूप ढालने की जरूरत महसूस करता है। स्वयं दुनिया के विभिन्न देशों में अनेक मुस्लिम लेखक, पत्रकार इसकी जरूरत बता रहे हैं। वस्तुत: जॉर्डन, ट्यूनीशिया तथा संयुक्त अरब अमीरात में ऐसे कुछ सुधार पहले ही किए जा चुके हैं। सऊदी अरब में भी ऐसा हो जाना संपूर्ण मुस्लिम विश्व में मौलिक सुधार को गति देगा। पूरा मुस्लिम जगत यह भी देख रहा है कि अब तक इस्लामी आतंकवाद के कारण दुनिया भर में मारे गए और तबाह लोगों में 95 प्रतिशत लोग मुसलमान ही रहे हैं। यही कारण है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गत 21 मई को सऊदी अरब की राजधानी में 50 से अधिक मुस्लिम देशों के शासकों के सामने ‘इस्लामी आतंकवाद’ और ‘इस्लामी उग्रवाद’ को खत्म करने का आह्वान किया, तो दुनिया के किसी मुस्लिम नेता या मौलाना ने प्रतिवाद में एक शब्द   नहीं कहा!
इससे पहले चार दशकों में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि किसी पश्चिमी शासक ने इस्लाम और आतंकवाद को जोड़कर कुछ भी कहा हो। साथ ही, पहले यह भी कभी न हुआ था कि इस्लाम की प्रशंसा न की गई हो। लेकिन ट्रंप ने इस्लाम की प्रशंसा में कुछ नहीं कहा। केवल इस्लामी आतंकी संगठनों को बर्बर, ‘ईविल’ कहते हुए मुसलमानों से खुलकर आह्वान किया कि वे बर्बरता का समर्थन बंद करें, वरना उनकी ‘अपनी आत्माएं पीड़ित होंगी’। यह लगभग मजहबी शब्दावली में मुसलमानों को चेतावनी और आग्रह, दोनों था, जो अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस्लाम के केंद्र में खड़े होकर किया। निस्संदेह, प्रिंस सलमान के व्यक्तित्व का उभरना इस बदलाव में एक कारण और इसका संकेत, दोनों ही है।  
सऊदी अरब में सुधार की नई हवा के महत्व को तभी ठीक-ठीक समझा जा सकता है जब 1979 से अब तक मुस्लिम विश्व की तमाम उथल-पुथल को ध्यान में रखा जाए। उस समय से सऊदी अरब और ईरान, यानी इस्लाम की दोनों बड़ी धाराओं के केंद्रों ने दुनिया में इस्लामी कट्टरता फैलाने की प्रतियोगिता-सी आरंभ कर दी थी। आज चार दशक बीतने पर उस हिंसक क्रिया का जोर और उत्साह, दोनों कम या खत्म हो रहे हैं।
कहने को अभी ईरान में जरूर कट्टरपंथी वर्चस्व चल रहा है, लेकिन पंद्रह वर्ष पहले वहां के 5वें राष्ट्रपति सैयद मुहम्मद खातमी ने भी खुलकर इस्लाम में सुधार और सर्व-पंथ आदर की जरूरत बताई थी। उन्होंने सार्वजनिक व्याख्यानों में यहां तक संकेत किया था कि इस्लामी मान्यताएं समय की कसौटी पर सही नहीं उतरी हैं और हमें नए विचारों के प्रति प्रयोगशील होना चाहिए। अर्थात्, वहां भी बड़े-बड़े लोग हमारे मिर्जा गÞालिब की तरह ‘जन्नत की हकीकत’ समझ चुके हैं। अत: अब केवल समय की बात है कि व्यवहार में तद्नुरूप सामाजिक, वैचारिक, राजनीतिक परिवर्तन ईरान में भी हों।
आशा करें कि भारतीय मुसलमान बदलते समय की इबारत पढ़ सकेंगे। सौभाग्य से उन्हें खुली स्वतंत्रता और सहज वातावरण मिला रहा है, जिसका उन्होंने अब तक सही उपयोग नहीं किया है। उन्हें सचाई स्वयं परखनी चाहिए और हिन्दू संस्कृति के साथ सद्भाव, समानता और उदार सामाजिकता को पुन: अपनाना चाहिए। क्योंकि ध्यान दें, अभी प्रिंस सलमान का लक्ष्य वही है जो 150 वर्ष पहले भारतीय मुसलमानों में सहज स्थापित हो चुका था। बाबर से लेकर औरंगजेब तक की कठोर, वर्चस्ववादी इस्लामी मानसिकता को खत्म किया जा चुका था। राजनीतिक इस्लाम को विदा दी जा चुकी थी। फलत: भारत के आम मुसलमानों में एक भारतीय उदार, सामंजस्यपूर्ण मुसलमान का स्वरूप बन चुका था। उसी के प्रतिनिधि रहीम खानखाना, मीर और गÞालिब थे।  जब कोई देवबंदी मदरसा न था, जिससे तालिबान निकलते। अच्छा हो, भारत के सुधारवादी मुसलमान स्वयं समय की गति को पहचानें और उचित पहल करें। (लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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