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पश्चिम की तरफ नजर डालें या दक्षिण एशिया की तरफ, सऊदी अरब को देखें या रूस को, हर तरफ हिन्दू संस्कृति की छाप दिखाई देती है। प्रवासी भारतीय इस संस्कृति के राजदूत हैं उनकी अगुवाई में कुछ लोग टाइम्स स्क्वयार पर कृष्ण भक्त हरि नाम संकीर्तन करते दिख जाएंगे तो सिलिकॉन वैली में प्रतिभा का परचम फहराते भी वे दिखेंगे। प्रवासी दिवस के मौके पर बात ऐसे भारतीयों की जिन्होंने दुनिया में अपनी मेधा का लोहा मनवाने के साथ भारतीय संस्कृति का गौरवगान किया है
प्रशांत बाजपेई और आदित्य भारद्वाज
कुछ वर्ष पहले आई हॉलीवुड की प्रसिद्ध फिल्म ‘मैट्रिक्स’ में जो कथानक रचा गया था वह हिंदू दर्शन की एक शाखा अद्वैत वेदांत के मायावाद, कि जगत माया है, से प्रेरित था। 2013 की प्रसिद्ध फिल्म ‘इंटरस्टेलर’ में अंतरिक्ष यात्री नायक मैथ्यू जीवन को सभी संभव कोणों से देखने के लिए ‘इंद्रानेट’ या इंद्रजाल की बात करता है, जो बौद्ध दर्शन की महायान शाखा से लिया गया शब्द है। इसी फिल्म में नायक योग दर्शन को प्रतिध्वनित करते हुए कहता है कि जब हम प्रक्रिया में पदार्थ भाव को विलीन कर देते हैं तब ‘वास्तविक हम’ रह जाते हैं। ये संयोग मात्र नहीं है कि हॉलीवुड की फिल्मों ने चुपचाप हिंदू दर्शन को आत्मसात करना शुरू कर दिया है। दरअसल पश्चिम के फिल्मकार वहां के लाखों योगाभ्यासियों और हिंदू विचार की तरफ मुड़ चुके, और निरंतर मुड़ रहे दर्शकों को लक्ष्य कर रहे हैं। पश्चिम उस बिंदु तक आ चुका है, जहां देह और तर्क के परे की प्यास उठनी शुरू होती है। साधन संपन्न पश्चिम पहले से बहुत विशाल दृष्टिकोण के साथ लगभग उस स्थान पर खड़ा है, जहां बुद्ध के काल में भारत खड़ा था। या साधन-संपन्न वैदिक समाज। आश्चर्य नहीं कि वहां योग प्रशिक्षकों की बाढ़ आई हुई है। भारत से जाने वाले वाले उपदेशकों की भारी मांग वर्षों से बनी हुई है। स्वाभाविक रूप से, जैसा किसी भी समाज में हमेशा होता है, इसमें प्रामाणिक और अप्रामाणिक दोनों प्रकार के लोग हैं, लेकिन ज्वार तो चढ़ता जा रहा है। तीसरी दुनिया के देश जहां संक्रामक बीमारियों से लड़ रहे हैं, वहीं पश्चिम, जीवनशैली जनित रोगों और मानसिक अवसाद से लड़ने के लिए कमर कस रहा है, और इसमें योग-आयुर्वेद बड़े मददगार साबित हो रहे हैं। तीन प्रकार के व्यसन पश्चिमी समाज को झकझोर रहे हैं-पहला, दवाओं पर बढ़ती निर्भरता। दूसरा, मादक पदार्थों-शराब, कोकेन, हेरोइन, चरस, एलएसडी आदि। तीसरा व्यसन है, डिजिटल-मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया। योग बेहतरीन विकल्प के रूप में उभरा है। वहां योग शिक्षक लेख लिख रहे हैं कि तनाव और अवसाद को केवल मस्तिष्क में रसायनों का असंतुलन मानकर इलाज करने वाली पद्धति एकतरफा और अधूरी है, और पीड़ित व्यक्ति स्वयं भी इसके लिए जिम्मेदार है। इसलिए व्यक्ति को स्वयं जिम्मेदारी उठाकर योग का अवलंबन करना होगा, जीवनशैली को शीर्षासन करवाना होगा। आखिरकार तनाव कोई बाहर से आया वायरस नहीं है। गहरी सांस लेकर कहिए ‘ओम’।
हमने अमेरिकी राष्ट्रपतियों के शपथ ग्रहण समारोह को कई बार टीवी पर देखे हंै। नवनियुक्त राष्ट्रपति जब शपथ लेता है, तब उसकी पत्नी साथ खड़े होकर उसे देखती है। रीगन, क्लिंटन, ओबामा या चाहे ट्रंप ही हों, सभी सार्वजनिक जीवन में सपत्नीक दिखकर पारिवारिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हैं। पश्चिमी समाज में परिवार भाव को मजबूत करने की लगातार जरूरत महसूस की जाती है। वे लोग जब नजर दौड़ाते हैं तो आंखों के सामने दीखते हैं वहां रह रहे हिंदू परिवार, जो अपने गुणों से आकर्षित करते हैं। अमेरिका के लगभग 12 प्रतिशत मेडिकल छात्र भारतीय हैं। अमेरिकन एसोसिएशन आॅफ फिजीशियन आॅफ इंडियन ओरिजिन के अध्यक्ष डॉ. नरेंद्र कुमार के अनुसार, ‘भारतीय मूल के डॉक्टर अब अमेरिका में एक ब्रांड हैं और वरिष्ठ भारतीय चिकित्सक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर हैं।’ यहां 35 हजार भारतीय मूल के चिकित्सक हैं। उच्च शिक्षा में हिंदू परिवार आबादी से कई गुना ज्यादा प्रतिनिधित्व रखते हैं। नासा के 36 प्रतिशत वैज्ञानिक भारतीय हैं। कंप्यूटर का अभिन्न हिस्सा बन चुकी पेनड्राइव को बनाने वाले अजय भट्ट, हाई डेफिनिशन टीवी को साकार करने वाले अरुण नेत्रवाली, जिन्होंने जून 2017 में एक लाख डॉलर का मार्कोेनी पुरस्कार जीता है, यहां के जाने-माने नाम हैं। दुनिया को गूगल न्यूज का उपहार देने वाले कृष्ण भारत, आधुनिक युग के एक और चमत्कार फाइबर आॅप्टिक्स के जनक नरेंद्र सिंह कपानी भारत में उतने नामचीन नहीं हैं, पर पश्चिम में उनके नाम का डंका बजता है। 9 साल की अन्विता और 12 साल का चैतन्य भट्ट कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की दुनिया में धूम मचा रहे हैं। विद्यालयों में बच्चों को संस्कृत पढ़ाई जा रही है, जिसके अनेक वीडियो आजकल व्हाट्सएप पर वायरल हो रहे हैं। पश्चिमी समाज में अब लोग बड़ी संख्या में वेद के कथन, ‘सत्य एक है, सत्यदृष्टा उसे अलग-अलग ढंग से समझाते है’ को आदर्श मानकर अपना रहे हैं। ये उस परंपरागत ईसाई विश्वास से बिल्कुल अलग है, जिसके अनुसार जीसस और बाइबिल ही मुक्ति का एकमात्र मार्ग हैं। विशेष बात यह है कि हिंदुत्व की ये लहर स्वत:स्फूर्त है। वैसे भी, मतान्तरण या प्रोसेलीटाइजेशन हिंदू दर्शन और हिंदू मन, दोनों के अनुरूप नहीं बैठता।
आयरलैंड में हिंदुत्व सबसे तेजी से फैल रहा जीवन दर्शन है। 2016 के एक सर्वे के अनुसार 34 प्रतिशत की दर से ये बढ़त देखी जा रही है। आॅस्ट्रेलिया में साल 2011 से 2016 के बीच स्वयं को हिंदू कहने वाले आॅस्ट्रेलियाई नागरिकों की संख्या दोगुनी हो गई है। अब ये वहां की कुल आबादी का 2.7 प्रतिशत हैं। अमेरिका में 30 प्रतिशत मृतकों का हिंदू रीति से दाह संस्कार हो रहा है। लगभग इतने ही अमरीकी पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं। 2011 की जनगणना में एक लाख बीस हजार जर्मनों ने स्वयं को हिंदू घोषित किया था। ये संख्या लगातार बढ़ रही है। अक्तूबर 2017 में विश्वप्रसिद्ध हैमबर्ग विश्विद्यालय में मांग उठी है कि दीवाली और अन्य हिंदू त्योहारों पर भी वैकल्पिक अवकाश घोषित किया जाए।
केवल अमेरिका, यूरोप या आॅस्ट्रेलिया की धरती ही नहीं है जहां सदियों के प्रयोगों के बाद, जनमानस पककर केसरिया हो रहा है। अफ्रीका भी इस प्रवाह का हिस्सा है। घाना के अश्वेत संत स्वामी घनानंद जाना-पहचाना नाम रहे हैं। घाना में हिंदुत्व सर्वाधिक तेजी से विस्तृत हो रहा है। 2001 की जनगणना में साढ़े पांच लाख दक्षिण अफ्रीकियों ने स्वयं को सरकारी दस्तावेजों में हिंदू दर्ज करवाया था। राम और शिव के मंदिर यहां दिखते हैं। हर साल डर्बन में दीवाली की रौनक देखी जा सकती है। अफ्रीका के केन्या, यूगांडा, तंजानिया और जाम्बिया आदि देशों में स्वामीनारायण सम्प्रदाय के अनुयायी अच्छी संख्या में हैं। नाइजीरिया और लागोस में इस्कान के बनवाये भव्य कृष्ण मंदिर हैं, जो भक्तों से आबाद हैं। जाम्बिया की 16 लाख की आबादी में 25 हजार स्वयं को हिंदू कहते हैं। तंजानिया में भव्य मंदिर देखे जा सकते हैं। अन्तराष्ट्रीय संस्था प्यू के अनुसार यहां 50 हजार हिंदू हैं।
जुलाई 2017 में सुर्खियां बनीं कि जावा की राजकुमारी कान्जेंग रादेन (अयु महिन्द्रानी कूसविद्यांति परमासी) ने हिंदुत्व ग्रहण कर लिया है। राजकुमारी ने वक्तव्य दिया कि वे ‘लम्बे समय से धर्म के पथ पर लौटना चाहती थीं’ और, आधिकारिक रूप से स्वयं को हिंदू घोषित करने के काफी पहले से वे पुरम (मंदिर) जाती थीं और पूजन में शामिल होती थीं। राजकुमारी का जन्म 1961 में रोम (इटली) में हुआ था।
भले ही अभी ये फुसफुसाहटों से अधिक न हो, परंतु दुनिया में एक और चर्चा चल पड़ी है, कि भारत में हिंदू समाज जातिगत दीवारों को गिराने में पहल करने लगा है, और ये काम तेजी से हो रहा है। हालांकि विश्व मीडिया इसे प्राय: राजनैतिक संदर्भों में विश्लेषित करता है, लेकिन कार्यस्थल से लेकर वैवाहिक संबंधों तक में जाति की टूटती रूढ़ियां ध्यान में आ रही हैं। सभी जातियों से तैयार हो रहे पुरोहित और हिंदू शस्त्रों का अध्ययन करवाने वाले संस्थान बातचीत में स्थान बना रहे हैं। मदुरै के कामराज विश्वविद्यालय में शैव सिद्धांत पाठ्यक्रम और डेक्कन कॉलेज डीम्ड विश्वविद्यालय में श्रीवेदांत फाउंडेशन द्वारा प्रारंभ पाठ्यक्रम अथवा गायत्री परिवार, आर्य समाज आदि में प्रशिक्षित हो रहे हवनकर्ता परिवर्तन के संदेशवाहक के रूप में देखे जा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों और विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रमों से बनने वाला समरस वातावरण भी लोगों के ध्यान में आ रहा है। प्यू के एक सर्वेक्षण में 71 प्रतिशत भारतीयों ने लैंगिक समानता के लिए संकल्प जताया है।
सदियों तक एक विडंबना रही कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का उच्चार करने वाला हिंदू समाज हिंदू हितों की रक्षा के लिए ही उदासीन अथवा असंगठित रहा। लेकिन अब हिंदू पहचान को लेकर भी जाग्रति की भावना और हिंदू हितों की रक्षा का संकल्प भी विश्व्यापी रूप ले रहा है। पाकिस्तान में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को लेकर दुनियाभर में हिंदू संगठनों ने आवाज उठाई है। गत 14 दिसंबर को मलेशियाई हिन्दुओं ने वहां के पाकिस्तानी दूतावास के सामने प्रदर्शन किया। वे पाकिस्तानी राजदूत को पाकिस्तानी हिन्दुओं के अधिकारों की रक्षा के सन्दर्भ में ज्ञापन सौंपना चाहते थे। हालांकि दूतावास से कोई बाहर नहीं आया, लेकिन मलेशिया में इसकी खबर बनी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपनी हिंदू पहचान को सहजता से सार्वजनिक जीवन और विश्वमंच पर रखने से भी एक बड़ा परिवर्तन आया है। अगस्त 2015 में जब मोदी अबुधाबी पहुंचे तो संयुक्त अरब अमीरात के सुलतान ने वहां पहला मंदिर बनाने के लिए जमीन देने की घोषणा की। इधर रूस में भी एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ। रूस के एक कट्टरपंथी पादरी अलेक्जेन्डर द्वोर्किन का नाम कुछ साल पहले सामने आया था जब उसने रूस के हिन्दुओं को धमकाने और भगवद्गीता को ‘नफरत फैलाने वाला ग्रंथ’ कहकर प्रतिबंधित करने का अभियान चलाया था। मार्च 2017 में शक्तिशाली रूसी नेता संसद सदस्य वैलेरी फिओदोरविच ने मामले को गंभीरता से लिया और पीड़ित हिन्दुओं के साथ आ खड़े हुए। फिओदोरविच ने कहा, ‘मेरे और पार्टी के अनेक लोगों के मत में अलेक्जेन्डर द्वोर्किन की हरकतें असहनीय हैं। द्वोर्किन भारत और रूस की मित्रता को तोड़ना चाहता है। उस पर लगाम लगना आवश्यक है।’ ये सारी घटनाएं एक नए चलन की ओर इंगित कर रही हैं।
विक्टर ह्यूगो ने कहा था-‘जिस विचार/ युक्ति का समय आ गया है, उसे कोई नहीं रोक सकता।’ इस महान फ्रेंच कवि, लेखक, विचारक, उपन्यासकार,नाटककार का ये प्रसिद्ध वाक्य बार-बार अपने को साबित करता आया है। ये वाक्य एक बार फिर सार्थक हो रहा है हिंदुत्व के सन्दर्भ मेें। हिंदुत्व, जो विचार से अधिक जीवन दर्शन और युगों के अनुभव से अनुभूत संस्कृति है। आप इसे महात्मा गांधी के शब्दों में सत्य की अनवरत खोज कह सकते हैं। ब्रिटिश इतिहासकार आर्नाल्ड टायनबी के शब्दों में इसे ‘हिंदू वे’ कह सकते हैं। टायनबी के शब्दों में, ‘यह निरंतर स्पष्ट होता जा रहा है कि जिस अध्याय की शुरुआत पश्चिम में हुई है, उसकी पूर्णता भारतीय होगी और यदि ऐसा नहीं हुआ तो मानवजाति का स्वविनाश होगा।
इतिहास के इस बेहद खतरनाक दौर में प्राचीन हिंदू पथ ही उद्धार का एकमात्र रास्ता है। हिंदू जीवन दर्शन के गणमान्य प्रशंसकों की सूची लंबी है-हक्सले, एलेक्जेंडर हैमिल्टन, अल्फ्रेड नार्थ वाइटहेड, डॉ. अल्बर्ट श्वित्जर, एनी बेसेंट, आर्थर होम्स, आर्थर शापेनहावर, कार्ल जंग, कार्ल सेगन, सर चार्ल्स इलियट, क्रिस्टोफर इशरवुड, नोबल विजेता भौतिक विज्ञानी इरविन श्रोडिन्जर, वोल्तेयर, हेलेना ब्लावाट्स्की , बर्नाड शॉ, हर्मन हेस … सूची सचमुच लंबी है। इस सूची के साथ वर्तमान की सचाइयां आ जुड़ी हैं। पर्यावरण संकट से निपटने की बात हो या परिपूर्ण (होलिस्टिक) जीवन शैली का प्रश्न, मानसिक अवसाद की चुनौती हो या जहां-तहां सर उठाती मजहबी-नस्लीय हिंसा और आतंकवाद की समस्या, दुनिया के सुधि जन एक समग्र जीवन दर्शन की तलाश में हैं। दर्शन, जो सबको एक सूत्र में पिरो सके। शास्त्र, जो जोड़ें, तोड़ें नहीं। परम्पराएं, जो मानवता की लीक न छोड़ेें। जीवनशैली, जो प्रकृति की लय से विपरीत न होे। ऐसे साधारण लोग, जिन्हें विश्व के समक्ष मॉडल के रूप में रखा जा सके। दुनिया की ये खोज भारत के प्राचीन ऋषियों के आंगन में पहुंचकर समाप्त होती दिखाई दे रही है। खास बात ये है कि इस ऋषि परंपरा के अनुयायी सारी दुनिया में खड़े हो रहे हैं।
अलग रूप-रंग और पहनावों के साथ। ये मानवता के लिए शुभ है। भारतीय समाज के लिए एक जिम्मेदारी है कि हम उस विरासत, उन मूल्यों पर खरे उतरें, जिनके लिए दुनिया हमें सराह रही है।
गूगल न्यूज ने किया कमाल:कृष्ण भारत
आज दुनिया में होने वाली किसी भी घटना की जानकारी लेनी हो तो गूगल सर्ज इंजन में गूगल न्यूज पर क्लिक करो और दुनिया की कई भाषाओं में दुनियाभर के समाचार कंप्यूटर स्क्रीन पर देख लो। यह बड़ा आसान लगता है लेकिन इस तकनीक के विकसित करने के पीछे वर्षों की मेहनत है। गूगल के सीईओ सुंदर पिचई को तो सभी जानते हैं, लेकिन दुनिया को गूगल न्यूज जैसी तकनीक देने वाले वैज्ञानिक भी एक भारतीय ही हैं। दुनिया को यह तकनीक देने का श्रेय जाता है कृष्ण भारत को। कृष्ण भारत गूगल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वह गूगल में गूगल न्यूज से जुड़े सारे काम देखते हैं। बंगलुरू में 1970 में पैदा हुए कृष्ण भारत ने बंगलुरू के एक कान्वेंट स्कूल से पढ़ाई करने के बाद 1987 में आईआईटी मद्रास में दाखिला लिया। 1991 में आईआईटी से कंप्यूटर साइंस में डिग्री लेने के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए। उन्होंने अटलांटा स्थित जार्जिया टेक्नालॉजी इंस्टीट्यूट से पीएचडी की उपाधि ली। वर्ष 1999 में उन्होंने गूगल के साथ काम करना शुरू किया।
उन्होंने 2002 में गूगल न्यूज बनाया। दुनिया की 35 अलग-अलग भाषाओं में गूगल न्यूज दुनियाभर की खबरें अपडेट करता है। अमेरिका में 9/11 हमले के बाद इस बारे में दुनिया को और अधिक जानकारी देने के लिए उन्होंने गूगल न्यूज का निर्माण किया था। वर्तमान में वह गूगल में प्रिंसीपल रिसर्च साइंटिस्ट के पद पर तैनात हैं। 2004 में उन्होंने बंगलुरू में रिसर्च एंड डिवेलपमेंट विंग का गठन किया। वह इसके प्रमुख हैं। इसके अलावा वह अमेरिका स्थित गूगल न्यूज प्रोडेक्ट टीम के भी प्रभारी हैं। अपने एल्गोरिदम के लिए उन्हें गूगल के साथ पेटेंट मिला है।
भारतीय संस्कृति में पाया जीवन का सत्य: मुराद
‘‘शिव ही सत्य हैं, शिव ही सुंदर हैं। भारतीय संस्कृति या विश्व की कोई भी संस्कृति वह शिव के बिना अधूरी है। मेरे पिता मुस्लिम हैं और मां ईसाई। इस हिसाब से मैं आधा ईसाई हुआ और आधा मुस्लिम, लेकिन इस पूरे विश्व में जो संपूर्ण तो बस शिव हैं। भारतीय संस्कृति ही विश्व की सभी संस्कृतियों की जनक है।’’ ये शब्द रूस के रहने वाले मुराद अली यूजाखोव के हैं जो रूस में भारतीय संस्कृति का परचम लहरा रहे हैं। वह वहां लोगों को योग सिखाते हैं और भारतीय संस्कृति के बारे में बताते हैं।
मुराद 24 साल के हैं। वे बताते हैं, करीब चार वर्ष पहले जब उन्होंने योग करना शुरू किया तो योग के मूल को जानने के लिए भारतीय संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। इस बीच उन्होंने पहली बार भगवान शिव के बारे में पढ़ा। उन्हें पता चला कि विश्व के प्रथम योगी शिव ही हैं। इससे भारतीय संस्कृति को अच्छे से जानने की इच्छा हुई।
मुराद कहते हैं, ‘‘इस दौरान मैंने शिव सहिंता पढ़ी। लगा कि सब कुछ तो यही हैं। मुझे योग से, शिव से भारतीय संस्कृति से एक जुड़ाव सा महसूस हुआ। योग भारत की देन है। योग एक विज्ञान है जिसे भारत से सहेजा है। जैसे-जैसे मैंने भारत के बारे में पढ़ना शुरू किया मुझे महसूस हुआ कि सिर्फ भारतीय दर्शन अनूठा है। आधुनिक विज्ञान की बात करें तो उसके अनुसार सृष्टि की हर चीज शून्यता से आती है और वापस शून्य में ही चली जाती है। इस अस्तित्व का आधार और संपूर्ण ब्रह्मांड का मौलिक गुण ही एक विराट रिक्तता है। उसमें मौजूद आकाशगंगाएं महज छोटी-मोटी गतिविधियां हैं, जो किसी फुहार की तरह है।’’ मुराद कहते हैं, ‘‘भारतीय संस्कृति के बारे में जितना जाना जाए उतना कम है। मैं भगवान शिव की उपासना करता हूं। उन्हें अपना सर्वस्व मानता हूं। शिव ही वह गर्भ हैं जिसमें से सब कुछ जन्म लेता है, और वह ही वे गुमनामी हैं, जिनमें सब कुछ फिर से समा जाता है। सब कुछ शिव से आता है, और फिर से शिव में चला जाता है।’’
मुराद के पिता ट्रक ड्राइवर हैं जबकि माता कपड़ों का काम करती हैं। वह पेशे से अंग्रेजी शिक्षक हैं। उन्होंने छह साल पहले रूस के ही रोमन कोसारेव से योग सीखा। मॉस्को से अपना इंटरनेशनल योग का कोर्स पूरा किया। पिछले 5 वर्षों से वह योग सिखा रहे हैं। हाल ही में वे भारत आए थे। इस दौरान वह दस दिनों तक वाराणसी, बोधगया और दिल्ली घूमे।
मुराद कहते हैं, उन्होंने महाभारत और रामायण का भी अच्छे से अध्ययन किया है। वह पूरी तरह से शाकाहारी हैं। अब उनका दिन भगवान शिव की अराधना से शुरू होता है। इसके बाद वह अपने छात्रों को योग सिखाते हैं। मुराद का बताते हैं, उनके पास जितने भी छात्र योग सीखने आते हैं वह उन्हें पहले भारतीय संस्कृति के बारे में पढ़ने के लिए कहते हैं। वह स्वयं भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार जीवन जीते हैं और चाहते हैं कि उनके छात्र भी ऐसा ही जीवन जीएं।
उनका कहना है कि वह आने वाले दिनों में योग को ही पूरा समय देंगे। पूरे समय वह योग शिक्षक के तौर पर काम करेंगे। इस दौरान वह भारतीय संस्कृति और योग का भरपूर प्रचार-प्रसार करेंगे।’
दक्षिण कोरिया में जगाया भारतीयता का अहसास: मुस्कान गुप्ता
होली और दीवाली भारतीयों के सबसे बड़े त्योहारों में से एक हैं। विदेशोें में रहने वाले भारतीय इन्हें बहुत जोर-शोर से मानते हैं। कई देशों में तो दीवाली पर आधिकारिक छुट्टी भी होती है। मुस्कान और अमित बीते कई साल से दक्षिण कोरिया के लोगों को भारतीय संस्कृति से रूबरू करा रहे हैं। दक्षिण कोरिया में बड़ी संख्या में लोग उन्हें जानते हैं। वे हर बरस वहां होली मिलन कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिसे वहां की मीडिया बहुत अच्छे से छापती है। इससे दक्षिण कोरिया वालों के लिए होली वहां का बड़ा त्योहार बनता जा रहा है।
मुस्कान गुप्ता अपने पति अमित गुप्ता के साथ पिछले दस साल से दक्षिण कोरिया में रहती हैं। अमित पेशे से इंजीनियर हैं जबकि मुस्कान वहां अंगे्र्रजी पढ़ाती हैं। मुस्कान बताती हैं जब वह कोरिया गई थीं तो वहां भारतीय बहुत कम थे। साल भर में दीवाली मनाने के लिए ही कुछ भारतीय परिवार एकत्रित होते थे। बाकी त्योहार कब आए और कब गए, इसका पता तक नहीं चलता था। इस पर उन्होंने अपने पति से कहा, क्यों न कुछ ऐसा शुरू किया जाए जिससे दक्षिण कोरिया में रहने वाले भारतीयों को एक जगह इकट्ठा किया जाए और भारतीय त्योहार मनाने का सिलसिला शुरू किया जाए ताकि कोरिया के लोग भी उनकी संस्कृति के बारे में जानें।’ उन्होंने कोरिया में इंडियन इन कोरिया नाम से एक वेबसाइट शुरू की। अमित ने दक्षिण कोरिया में रह रहे भारतीयों को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया। 2010 में गुप्ता दंपती ने पहली बार बड़े स्तर पर दक्षिण कोरिया में होली मनाने का निश्चय किया। पहली बार होली मिलन के कार्यक्रम में केवल 50 लोग ही पहुंचे, लेकिन वहां के मीडिया ने होली मिलन के इस कार्यक्रम को खूब प्रचारित किया। अगले साल मुस्कान और अमित ने सरकारी अनुमति लेकर और बड़े स्तर पर होली मिलन का आयोजन किया। अब तो हर साल होली मिलन के कार्यक्रम में भारत के राजदूत आते हैं। अब उनकी योजना दक्षिणी कोरिया में एक भव्य मंदिर बनाने की है।
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