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दो सप्ताह पहले ‘पाञ्चजन्य’ के संपादकीय में हमने लिखा था कि भले चुनाव हिमाचल में भी हो रहे हों किन्तु गुजरात एक ‘रूपक’ है। अलग प्रकार की राजनीति का प्रखर प्रतीक। अब परिणामों की घोषणा के बाद यह बात साबित है। आज सारी चर्चाओं और विश्लेषणों के केंद्र में गुजरात ही तो है! यह भी साफ है कि गिर से गिरिराज तक केसरिया परचम फहराता देखने के बाद भी कुछ लोग इस जनादेश में गैर भाजपाई राजनीति के लिए दिलासा देने वाली घटनाएं और संकेत तलाश लेना चाहते हैं। किन्तु सच यह है कि उनके दर्द की दवा फिलहाल नजर नहीं आती। दिलासा कैसे मिले? भ्रष्टाचार के आरोपों में गले तक डूबी हिमाचल की कांग्रेसी सरकार को जनता ने उसकी जगह बताई तो इसका श्रेय पार्टी अध्यक्ष को भी जाना ही है (पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने संकेतों में यह बात साफ कर भी दी है)।
दूसरी ओर, यदि गुजरात में पूरी जान और तमाम समाज विभाजक तिकड़में लगाने के बाद कांग्रेस के कुल प्रदर्शन का योग भी विभिन्न कारकों में बंटता है तो इससे कौन इनकार कर पाएगा! पगड़ी इसके सिर, ठीकरा उसके सिर..यह राजनीति कांग्रेस लंबे समय से कर रही है, किन्तु पार्टी के भीतर से उठती कुलबुलाहट के बाद आगे भी कर सकेगी, कहना मुश्किल है।
वैसे, क्षुद्र हितों के लिए समाज की एकता में फच्चर मारकर राजनीति थोड़े समय के लिए अपनी धूर्तता पर खुश भले हो, उसे समाज की सामूहिक समझ और सकारात्मकता धूल चटा ही देती है। भाजपा के पक्ष में करीब 50 प्रतिशत मतदान करते हुए गुजरात ने बता दिया कि उसके लिए यह रूपक इतना दमदार क्यों है। जिस लोकतंत्र में दो-तीन फीसदी वोटों की लहर से राजनीति के बड़े तख्त पलटते रहे हों, वहां कांग्रेस को 7 प्रतिशत के अंतर से पछाड़ते हुए इस सूबे की जनता ने बिना कहे सब कुछ कह दिया।
नतीजों के बाद विश्लेषण चाहे जितने हुए हों, जनता के कुछ सवाल अब भी बाकी हैं।
पहला सवाल उस राजनीति से है जो सिर्फ राजनीति करने के लिए ही राजनीति में है। विकास को ‘पागल’ बताते हुए एक ओर मंदिरों में मत्था टेककर और दूसरी ओर केरल से कर्नाटक तक पैर पसारने वाले हिंसक इस्लामी समूहों से ‘हाथ मिलाती’ राजनीति क्या मतदाताओं को पागल मान बैठी है!
सोशल मीडिया पर उमड़ता जनता का दूसरा सवाल उस मीडिया से है जिसकी चुनाव से जुड़ी सारी जमीनी रिपोर्ट अपने ही चैनल के एक्जिट पोल के दिन धूल में लोटने लगती है। संवाददाता कहां है? जनता का मन पढ़ने का कौशल कहां है? 50 फीसदी मतप्रतिशत को भी जो देख या बता नहीं सके, उस मीडिया को जनता का जुड़ाव और भरोसा कैसे हासिल होगा?
तीसरी सवाल राजनीति की तुलना का है। सूबे अलग हों किन्तु पश्चिम बंगाल में वाम और गुजरात में भाजपा के लंबे शासनों की तुलना अब जरूर होगी। राज्य के आर्थिक पिछडेÞपन के जिम्मेदार होने और हड़तालों की खड़ताल बजाते रहने के बावजूद खुद को ‘प्रगतिशील’ कहने वालों के खाते में आज क्या है? सबसे अधिक राजनीतिक हत्याओं के दाग! और क्या? इसके बरअक्स बांध, सड़क, बिजली और निवेश की बात करता गुजरात मॉडल है। जनता अब शासन को और ज्यादा संवेदनशील और पारदर्शी सुशासन में परिवर्तित होते देखता चाहती है। गुजरात और हिमाचल के परिणामों ने बता दिया कि भविष्य में सरकारों के स्थायित्व की कसौटी और गारंटी अब यही है।
वैसे, इन चुनाव परिणामों ने एक बात साफ कर दी— हल्के, उकसाऊ और विभाजक फौरी ध्रुवीकरण (ढङ्म’ं१्र९ं३्रङ्मल्ल) का जवाब जनता अब एकीकरण (उङ्मल्ल२ङ्म’्रंि३्रङ्मल्ल) से दे रही है। समाज जाग रहा है। राजनीति भी समग्रता में जागे तो देश के लिए, लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा!
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