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सत्ता के लिए समाज को बांटने वाली ताकतों के साथ कांग्रेस ने गुजरात के जिस स्वाभिमान और मर्यादा को ठेस पहुंचाने की चुनावी चाल चली थी, उसे ‘गुजरात’ ने परास्त कर दिया। आज गुजरात वह रूपक है जिसमें राष्ट्र के जन का मन परिलक्षित होता है
ज्ञानेन्द्रनाथ बरतरिया
गुजरात और हिमाचल में चुनाव समाप्त हो गए। परिणाम आ गए और जल्द ही नई सरकारें भी अपना काम संभाल लेंगी। लेकिन चुनाव समाप्त होने से लड़ाई समाप्त नहीं हुई। बल्कि यह लड़ाई परिणामों के बाद शुरू हुई है। आपके मस्तिष्क में किसी धारणा को बैठाने की लड़ाई। बार-बार, तरह-तरह से समझाया जा रहा है। उदाहरण के लिए, ‘गुजरात में तो भारतीय जनता पार्टी नैतिक तौर पर हार गई’। या यह कि ‘वह तो अकेले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जादू था जिसके बूते भारतीय जनता पार्टी सरकार बचाने में सफल हो गई’। या यह कि ‘भारतीय जनता पार्टी अब अजेय नहीं रही’, या यह कि ‘कांग्रेस अब बढ़ने लगी है’। एक और यह कि ‘हिन्दुओं को जातियों में बांटना सरल और संभव है, जैसा कि गुजरात में हुआ’। या यह कि ‘विकास कोई राजनीतिक विषय ही नहीं होता’। यह कि ‘जीएसटी या नोटबंदी नितांत अलोकप्रिय कदम रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी का असर ग्रामीण इलाकों में नहीं है। हिन्दू नाराज हो रहे हैं। राहुल गांधी अब नेता बन गए हैं’। नोटा वाला पहलू भी है। और भी बहुत कुछ।
बहुत शोर है, लेकिन बारीकी से देखें तो यह बिना किसी आधार का है। जिस दल को लगातार छठी बार जीत मिली हो, लगभग 50 प्रतिशत (49.10) मत मिले हों, उसे ‘नैतिक तौर पर’ कैसे हारा हुआ माना जा सकता है? नंबर दो पर आने वाली कांग्रेस पूरे 7.7 प्रतिशत मतों से पीछे है। जाहिर तौर पर यह सीधा-सा भ्रम फैलाने वाला एक प्रचार है, जो किसी और ही इरादे से किया जा रहा है। जब मत प्रतिशत की बात की जाती है, तो तुरंत बात बदलने के अंदाज में, यह बात उठा दी जाती है कि कांग्रेस की 16 सीटें बढ़ गर्इं, और भारतीय जनता पार्टी की 16 सीटें कम हो गई हैं। यही बात ‘नैतिक’ हार और ‘नैतिक’ जीत के तौर पर कही गई। (वैसे कई लोग व्यंग्यपूर्वक यह भी कह रहे हैं कि अगर यह इतनी ही बड़ी ‘नैतिक’ जीत है तो इन्हीं 16 सीटों पर ही चुनाव करवा लेने चाहिए थे!)
लेकिन इस ‘नैतिक’ जीत के पैरोकार अपनी बात भी ढंग से रखना नहीं जानते। सच्चाई यह है कि भारतीय जनता पार्टी की 16 नहीं, बल्कि 18 सीटें कम हुई हैं। दरअसल भारतीय जनता पार्टी को इस बार जो 49.10 प्रतिशत मत मिले हैं, ठीक इतने ही प्रतिशत मत उसे 2007 के चुनाव में मिले थे। और तब भारतीय जनता पार्टी को 117 सीटें मिली थीं। इस बार मत उतने ही हैं। तो 2007 के लिहाज से तो उसे 18 सीटों का घाटा हुआ है। और 2007 का चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी के लिहाज से गुजरात में अब तक का सबसे शानदार परिणाम था। जाहिर है, एक राजनीतिक दल के तौर पर गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता अपने अब तक के चरम पर है।
लोकसभा के एक चुनाव को छोड़ दें, तो 50 प्रतिशत का आंकड़ा आज तक कोई दल पार नहीं कर पाया है। जहां तक सीटें कम होने का सवाल है, उसका सीधा-सा कारण यह है कि भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों का घनत्व ज्यादा रहा, कांग्रेस का जनाधार ज्यादा बिखरा रहा और उसके मतों में 3.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि भारतीय जनता पार्टी के मतों में 1.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई। घनत्व और बिखराव को ऐसे समझा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार औसत 30,000 वोटों के अंतर से जीते हैं, जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार औसत 3,000 वोटों के अंतर से जीते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जो 81 सीटें फिर से जीती हैं, उनमें से 48 में उसका जीत का अंतर पहले से ज्यादा हुआ है। तो यह थी ‘नैतिक’ जीत।
दूसरा भ्रामक प्रचार यह कि कांग्रेस अब बढ़ने लगी है। कहां बढ़ने लगी है? जनता में? जनाधार में? देश के विश्वास में? कहां? पता नहीं.. लेकिन कांग्रेस अब बढ़ने लगी है। सही है। मतगणना के शुरुआती एक-दो घंटे के उतार-चढ़ाव में कांग्रेस बढ़ने लगी थी। और तब देश कहां जाने लगा था? उस एक घंटे में ही शेयर बाजार 800 अंक नीचे गिर चुका था। यह कांग्रेस के लिए शर्म और आत्मसमीक्षा का विषय होना चाहिए कि वह एक ऐसा राजनीतिक दल है, जिसके मात्र एक राज्य में आने की आशंका मात्र से देश में निवेश का वातावरण ही खत्म हो जाता है। अगर आप ऐसी कांग्रेस के और आगे बढ़ने की कल्पना कर सकते हैं, तो जाहिर तौर पर आप देश में निवेश, औद्योगिकीकरण और विकास के घोर विरोधी हैं। क्या संयोग है। कांग्रेस ने नारा भी दिया था-विकास पागल हो गया है। जवाबी तर्क फिर वही है-कांग्रेस की 16 सीटें बढ़ गर्इं, लिहाजा, वह बढ़ रही है। अब अगर कोई 16 उलझी हुई सीटों को पूरा देश समझ ले, तो उस पर तरस ही खाया जा सकता है।
अगला दुष्प्रचार-हिन्दुओं को जातियों में बांटा जा सकता है। किसने बांटा? कहां बांटा? सरल और क्षुद्रमति जवाब है, गुजरात में हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी ने बांटा। उसी क्षुद्रमति से इन तीनों को उनकी संबंधित जातियों का नेता भी बता दिया जाता है। हार्दिक पटेल में जितनी भी हवा भरी गई हो, चुनावों में सारी फुस्स हो गई। जिस पाटीदार समाज को कुल समाज के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश हार्दिक पटेल कर रहे थे, उस समाज के बाहुल्य वाली 24 सीटों में से भारतीय जनता पार्टी को 23 सीटों पर विजय मिली, सिर्फ एक पर कांग्रेस जीत सकी। अब आइए गुजरात के अपने रोहित वेमुला-जिग्नेश मेवाणी पर। ये महाशय वडगाम सीट से कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीते हैं। इसे बहुत बड़ी क्रांति बताया जा रहा है। सच क्या है? सच यह है कि पिछले चुनाव में भी वडगाम सीट से कांग्रेस ही जीती थी। दूसरा सच यह है कि वडगाम तालुका की 2, 40,000 हजार की जनसंख्या में (2011 की जनगणना के अनुसार) अनुसूचित जातियों की संख्या 16.2 प्रतिशत और मुस्लिम जनसंख्या 25.3 प्रतिशत थी। मुस्लिम वोट एकतरफा ढंग से मेवाणी को मिला (पूरे गुजरात में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 10 प्रतिशत है और इस चुनाव में कांग्रेस को 93 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले हैं-उसके मतों में हुई 3.1 प्रतिशत की वृद्धि का सबसे बड़ा रहस्य)। यह कांग्रेस की परम्परागत सीट रही है। 1980 के बाद से आज तक कांग्रेस इस सीट से सिर्फ एक बार हारी है। कांग्रेस 2012 में यहां से लगभग 22,000 वोटों से जीती थी। इस बार जिग्नेश मेवाणी-तमाम ताकतों की मदद के बाद-19,500 वोट से जीते हैं। इस एक सीट पर जीत को इस तरह पेश किया जा रहा है, जैसे हिन्दू एकता में कोई बहुत बड़ी दरार आ गई हो। अल्पेश ठाकोर ने कोई तीर मारा हो-इसकी चर्चा भी यह दुष्प्रचार अभियान नहीं कर पा रहा है। करेगा भी कैसे? पाटन और चणास्मा-जहां ओबीसी कहे जाने वाले समुदायों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है, कांग्रेस के हाथ एक तिनका भी नहीं लग सका। एक और प्रचार-ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस का आधार है। ठीक है। लेकिन आप उसे सिर्फ ग्रामीण-शहरी के रूप में कैसे देख सकते हैं? यह उसके साथ ही, शिक्षा के स्तरों का भी अंतर है। और हाल के एक शोध में कहा भी गया है कि भारत के लोगों का शिक्षा का स्तर जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, वे कांग्रेस से उतने दूर और भारतीय जनता पार्टी के उतने नजदीक होते जाते हैं। सूरत के उदाहरण को इस बात के सबूत के तौर पर भी रखा जाता है कि भारतीय जनता पार्टी का शहरों में ज्यादा प्रभाव है। कोई शक नहीं कि भारतीय जनता पार्टी सूरत की 16 में से 15 सीटें जीती है, 2012 की तरह। लेकिन इनमें से 9 सीटें शहरी हैं, 7 ग्रामीण। फिर यह दुष्प्रचार अभियान कहना क्या चाहता है?
क्या कहना चाहता है-इसके दो हिस्से हैं। एक प्रक्रिया और दूसरा परिणाम। प्रक्रिया को ऐसे समझिए। जिग्नेश मेवाणी ने प्रधानमंत्री के लिए जो शब्द कहे, वे आप जानते हैं। लेकिन, जिग्नेश मेवाणी कोई अंगूठाछाप नहीं है, पेशे से वकील है और यह जानता है कि वह जो कह रहा है, उसका क्या अर्थ है। कोई भी व्यक्ति इस तरह की बात तब तक नहीं कर सकता, जब तक उसे भरोसा न हो कि उसके पीछे भी भारी-भरकम ताकतें लगी हुई हैं, जो उसे किसी भी दुष्परिणाम से बचा लेंगी। उसके पीछे केरल का इस्लामवादी संगठन पीएफआई है। अब और गौर से देखिए। कांग्रेस ने जिग्नेश मेवाणी को समर्थन दिया, अपना उम्मीदवार वहां से हटा लिया, लेकिन अपना टिकट नहीं दिया। ताकि हारे तो जिग्नेश मेवाणी हारे और कांग्रेस अपने हाथ झाड़ सके। और अगर जीत जाए, तो कांग्रेस है ही। ठीक सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह के रिमोट-रोबोट रिश्तों की तरह। माने कांग्रेस हमेशा रेनकोट पहनकर ही नहाती रहेगी। फिर जिग्नेश मेवाणी अपशब्द कहेगा, और अगर किसी ने उस पर प्रतिक्रिया कर दी, तो फिर उसे दलित बनाम गैर-दलित मुद्दा बना दिया जाएगा। कहेगा जिग्नेश मेवाणी, जवाब भारतीय जनता पार्टी देगी और लड्डू कांग्रेस खाएगी। और देखिए, कई वर्ष तक कांग्रेस का कोई ‘प्रवक्ता’ टीवी पर नहीं आता है। स्वयंभू विशेषज्ञों और पत्रकारों को ही कांग्रेस का प्रवक्ता बनाकर बैठा दिया जाता है ताकि जरूर पड़ते ही कांग्रेस उनसे पल्ला झाड़ सके।
अब इस दुष्प्रचार अभियान के परिणाम को देखें। वास्तव में नौकरशाही से लेकर-और गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को जिसकी भी नाराजगी का सामना करना पड़ा-उसमें बहुत बड़ी भूमिका नौकरशाही की है- मीडिया और व्यवस्था के बाकी हिस्सों तक-आप समझते हैं-कांग्रेस का एक-साथ लूटो, साथ खाओ-तंत्र था और है। यह पारिस्थितिक तंत्र इतना गहरा है कि चुनाव आयुक्त के पद से रिटायर होने वाले को सेवाओं के पुरस्कार के तौर पर कांग्रेस राज्यसभा की सदस्यता देती है और एक भ्रष्ट घोषित जज के खिलाफ महाभियोग को संसद से पारित नहीं होने देती है-उसे बचा लेती है। पाकिस्तानी अफसरों और अलगाववादियों के साथ उसके शीर्ष नेता ऐन गुजरात चुनाव के मौके पर जब गुपचुप बैठक करते हैं, तो उस बैठक में भी इस तंत्र की प्रतिनिधि उपस्थिति रहती है।
लेकिन यह तंत्र बिखर चुका है। इस तंत्र को लगता है कि ‘साथ लूटो, साथ खाओ’ के मैजिक फॉर्मूूले पर कहीं कांग्रेस से ज्यादा लालू प्रसाद उपयुक्त हैं, तो कहीं उसे मुलायम सिंह या केजरीवाल ज्यादा उपयुक्त लगते हंै। ‘विपक्षी एकता’ के नाम से इसी तंत्रगत एकता की बार-बार पुकार लगती है। इस तंत्र को और बिखरने से बचाने के लिए जरूरी होता है कि उसे यह भरोसा दिया जाए कि ‘कांग्रेस आने वाली है, हिन्दू एकता खत्म होने वाली है, विकास वगैरह से हमें क्या लेना-देना’ आदि। गुजरात में देश की 5 प्रतिशत से भी कम सीटें हैं और देश की 5 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या है। लेकिन एक सकारात्मक विकास क्या होता है, सकारात्मक एकता क्या होती है, इस सूत्र का मूलाधार वही है। इसीलिए सारी ताकतों ने मिलकर सबसे बड़ा हमला गुजरात पर बोला था। यही सूत्र गुजरात मॉडल है। इस लड़ाई में गुजरात मॉडल ने गुजरात को हमलावरों से सुरक्षित बचा लिया है।
गुजरात में देश की 5 प्रतिशत से भी कम सीटें हैं और देश की 5 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या है। लेकिन सकारात्मक विकास क्या होता है, सकारात्मक एकता क्या होती है, इस सूत्र का मूलाधार वही है
आंकड़ों में चुनावी और राजनीतिक परिदृश्य
गुजरात 182 कुल सींटे
92 कांग्रेस बहुमत
77 कांग्रेस पिछली बार से 16 अधिक, वोट प्रतिशत
: 41.9
6 अन्य पिछली बार से 2 अधिक, वोट प्रतिशत : 9
देश के कुल 29 राज्यों में से 12 ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस 14-50 वर्ष से सत्ता से बाहर है, वहीं 25 वर्ष में भाजपा ने 14 राज्य और अपने सहयोगियों के साथ 5 राज्यों यानी कुल 19 राज्यों में सरकारें बना ली हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तीन साल के कार्यकाल में 18 में से 12 चुनाव जिताए, जबकि इंदिरा गांधी ने 1967 में प्रधानमंत्री बनने के बाद तीन वर्ष में 17 में 13 चुनाव जिताए थे।
देश के 75 प्रतिशत क्षेत्र, 68 प्रतिशत जनसंख्या और 54 प्रतिशत अर्थतंत्र पर भाजपा और 10 प्रतिशत क्षेत्र, 12 प्रतिशत जनसंख्या और 11 प्रतिशत अर्थतंत्र पर कांग्रेस का वर्चस्व।
इन राज्यों में है कांग्रेस दशकों से सत्ता से बाहर
राज्य वर्ष
तमिलनाडु 50
पश्चिम बंगाल 40
सिक्किम 33
बिहार 27
उत्तर प्रदेश 27
त्रिपुरा 24
गुजरात 22
ओडिशा 17
झारखंड 17
मध्य प्रदेश 14
छत्तीसगढ़ 14
नागालैंड 14
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