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गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम को मीडिया का बड़ा तबका खास तरह से परिभाषित करने में जुटा
सामयिक मुद्दों पर मीडिया के रुख और रुखाई की परतें ख्ांगालता यह स्तंभ समर्पित है विश्व के पहले पत्रकार कहे जाने वाले देवर्षि नारद के नाम। मीडिया में वरिष्ठ पदों पर बैठे, भीतर तक की खबर रखने वाले पत्रकार इस स्तंभ के लिए अज्ञात रहकर योगदान करते हैं और इसके बदले उन्हें किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया जाता।
गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद वही हुआ, जिसकी आशंका जताई जा रही थी। जनादेश भले कुछ हो, मीडिया का बड़ा वर्ग उसे खास तरह से परिभाषित करने में जुटा है। शायद इसलिए कि मतगणना से दो दिन पहले कुनबा पार्टी के अध्यक्ष बने राहुल गांधी पर हार के दाग न आएं। चुनाव परिणामों पर राजनीतिक दल अपनी सुविधा के हिसाब से विश्लेषण करते हैं, पर चैनलों व अखबारों की क्या मजबूरी है? कई हिंदी, अंग्रेजी अखबारों की हेडलाइन थी, ‘’गुजरात में भाजपा जीती है, पर कांग्रेस हारी नहीं।’’ यही हाल चैनलों का रहा। कुछ ‘प्रतिबद्ध’ पत्रकारों में तो इसे बतौर अध्यक्ष राहुल गांधी की बड़ी सफलता बताने की होड़ लग गई। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि छह बार से लगातार चुनाव जीतने और मत-प्रतिशत बढ़ने का सही तरीके से विश्लेषण होना चाहिए।
गुजरात चुनाव भारतीय मीडिया, खासकर चैनलों के लिए ज्यादा ही ‘भावुक’ अवसर होता हैं। ज्यादातर चैनल व पत्रकार भाजपा व नरेंद्र मोदी के विरोध में दुष्प्रचार में कभी न कभी शामिल रह चुके हैं। यही करते-करते बहुत से छोटे-मोटे पत्रकार बड़े संपादक बन चुके हैं। यह टीस आज भी बनी हुई है कि गुजरात की जनता उनके झांसे में आकर वोट क्यों नहीं देती। शुरुआती मतगणना में जब मुकाबला बराबरी का लग रहा था तो कुछ चैनलों के चिर-परिचित पत्रकारों के चेहरों पर खुशी झलकने लगी थी। एनडीटीवी के एक चिड़चिड़े पत्रकार को तो लोगों ने अरसे बाद हंसते देखा। पर जैसे ही नतीजे बदलने लगे, उनका चेहरा उतरने लगा और कार्यक्रम मानो किसी शोक सभा में बदल गया। एक वक्त तो वे इतने व्यथित हो गए कि भाजपा के प्रवक्ता से लड़ बैठे। अब चुनावी फोकस कर्नाटक पर है और मीडिया का एक धड़ा वहां माहौल बनाने में जुट चुका है। इंडिया टुडे चैनल ने रिपोर्ट दिखाई कि गुजरात के नतीजों के बाद कर्नाटक में भाजपा के नेता बहुत परेशान हैं। पत्रकारिता का यह वही तरीका है जिसके लिए एनडीटीवी बदनाम रहा है। कर्नाटक में ही एक अभिनेत्री के कार्यक्रम को नहीं होने दिया गया। अभिव्यक्ति की आजादी व रचनात्मक स्वतंत्रता पर लंबी-लंबी डींग हांकने वाले कथित पत्रकार इस पर चुप रहे। शायद इसलिए कि कर्नाटक की मौजूदा सरकार उनके अनुकूल है।
मध्य प्रदेश के सतना में ईसाई मिशनरियों के कन्वर्जन का मामला सामने आया। कुछ स्थानीय चैनलों ने एक व्यक्ति का बयान दिखाया, जिसने माना कि उसे कन्वर्जन का लालच देकर बुलाया गया था। इसके लिए वहां एक छोटा तालाब भी बनाया गया था, पर जिस रात यह घटना हुई, उसके तीन दिन बाद टाइम्स आॅफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस समेत कई अखबारों में लिखा गया कि ईसाई समुदाय के लोग क्रिसमस के गीत गा रहे थे और पुलिस उन्हें जबरन थाने ले गई। लालच देकर कन्वर्जन कराने की बात गायब हो गई। जब भी ईसाई मिशनरियों का मामला आता है, मीडिया का बड़ा तबका उनके पक्ष में खड़ा हो जाता है। इसका कारण समझना बहुत मुश्किल नहीं है।
उधर, बंगाल के बोलपुर में कथित तौर पर बलात्कार के बाद एक 22 वर्षीया हिंदू लड़की ने आत्महत्या कर ली। आरोपी एक मजहबी कट्टरवादी था, इसलिए खबर बांग्ला अखबारों के अंदरूनी पन्नों में ही दफन हो गई। दिल्ली के मीडिया ने इसे छुआ भी नहीं। कुछ ऐसा ही मामला केरल के एनार्कुलम की 19 वर्षीया छात्रा जीशा का था। 2016 में एक मजहबी कट्टरवादी ने बलात्कार के बाद बर्बर तरीके से उसे मार डाला था। इस घटना पर पूरे केरल में आंदोलन हुआ था। बीते हफ्ते निचली अदालत ने आरोपी को फांसी की सजा सुनाई। चूंकि वह मुसलमान था, इसलिए मीडिया ने इस खबर को आधी-अधूरी दिखाकर अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली। अंत में अभिनेत्री जायरा वसीम मामले की चर्चा जरूरी है, जिन्होंने छेड़खानी की एक संदिग्ध शिकायत कर एक व्यक्ति को जेल पहुंचा दिया। अब जबकि यह साफ हो गया है कि विकास सचदेवा की कोई गलती नहीं थी, यह खबर चैनलों से गायब है। अपुष्ट जानकारी के मुताबिक जायरा ने यह सब प्रचार पाने के लिए किया। वे इस घटना से अपनी आने वाली फिल्म की भूमिका बना रही थीं। अगर यह बात सही है तो पूरी संभावना है कि उनके साथ दूसरे बड़े कलाकार भी होंगे। आश्चर्य है कि सितारों की निजी जिदंगी में ताक-झांक करने वाला मीडिया जायरा के इस ‘झूठ’ और उसके पीछे छिपे षड्यंत्र को एक तरह से नजरअंदाज करके चल रहा है। ल्ल
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