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संसार में यरुशलम सा कोई और शहर नहीं है जिस पर मान्यताओं का ऐसा पहरा होे। प्राचीन यहूदी साहित्य में इसे ‘विश्व का केंद्र’ कहा गया है, जहां ईश्वर का वास है। ईसाइयों के लिए यह ईसा की पहचान से जुड़ा शहर है, और मुस्लिमों के लिए यह मक्का-मदीना जितना महत्वपूर्ण है। फिलिस्तीनियों के लिए उनकी पहचान। तीव्रता में भले ही अंतर हो, लेकिन अमेरिका के देहात से लेकर बांग्लादेश और ब्रूनेई के शहरों तक, यरुशलम भावनाओं का तूफान
प्रशांत बाजपेई
ऐतिहासिक ‘सिक्स डे वॉर’ (अरब-इस्रायल युद्ध 1967) का स्वर्ण जयंती वर्ष-2017 भी अरब प्रायद्वीप के इतिहास में दर्ज हो गया। बीते 5 दिसंबर को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दूतावास को यरुशलम ले जाने की घोषणा की। अमेरिका द्वारा अपना दूतावास तेलअबीब से यरुशलम ले जाने का अर्थ है कि उसने यरूशलम को इस्रायल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी है। यह 70 साल से चल रही गर्मागर्मी में एक नया मोड़ है। इस्रायल और उसके समर्थकों में जश्न है तो अरब जनता और फिलिस्तीनी इसे पीठ पर वार बतला रहे हैं। वर्तमान इस्रायल राज्य (1947) के अस्तित्व को ही अभी तक स्वीकार नहीं कर पा रही अरब ‘उम्मा’ गुस्से में उबल रही है। मिस्र की राजधानी काइरो, गाजा पट्टी, फिलिस्तीन, तुर्की, जॉर्डन, ट्यूनीशिया अल्जीरिया और ईराक समेत दुनियाभर में मुस्लिम देशों में उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं। फिलिस्तीनी चरमपंथी संगठन पीएलओ और ईरान समर्थित आतंकी संगठन हिज्बुल्ला ने परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने की चेतावनी दी है। नए ‘इंतिफादा’ के उभरने की आशंकाओं पर चर्चा हो रही है। ईरान के सर्वोच्च नेता और मर्जा (सर्वोच्च मजहबी शिया नेता) अयातुल्ला अली खुमैनी ने बयान दिया है कि ‘‘इस्रायल और अमेरिका ने जो किया है, इसके लिए उन पर गहरी चोट पड़ने वाली है। इस्लामी जगत इसके खिलाफ खड़ा होगा।’’ दुनिया भर में इस्लामी पहचान की राजनीति करने वाले भी आग उगल रहे हैं। एशिया के पश्चिमी छोर पर चल रही इस गहमागहमी में एशिया के पूर्वी छोर से भी योगदान दिया जा रहा है। मलेशिया के रक्षा मंत्री हिशामुद्दीन हुसैन ने इसे मुस्लिम जगत के मुंह पर तमाचा करार दिया है और कहा है कि मलेशिया की सेना किसी भी समय अपनी ‘जिम्मेदारी’ निभाने के लिए तैयार है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में 10,000 मुस्लिमों ने अमेरिकी दूतावास के बाहर प्रदर्शन किया।
1947 की संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना के अनुसार यरुशलम को एक अलग अंतरराष्ट्रीय शहर बतलाया गया था। लेकिन साल भर बाद ही युद्ध छिड़ गया और 1949 में जब बंदूकें शांत हुर्इं तो इस्रायल के हाथ में आधा शहर, पश्चिमी येरुशलम था। शेष पूर्वी भाग जॉर्डन के नियंत्रण में था, जिसमें प्राचीन मजहबी इमारतें भी शामिल थीं। 1967 में जब इस्रायल ने अरब जगत के अनेक देशों की संयुक्त सेना को परास्त किया तब उसका अधिकार पूरे यरुशलम पर हो गया। तब से यह झगड़ा चला आ रहा है। फिलिस्तीनी पूर्वी यरुशलम को अपनी भविष्य की राजधानी बताते हैं, तो इस्रायल का कहना है कि यह यहूदियों का प्राचीन शहर है, जिसका बंटवारा नहीं हो सकता। मुस्लिम जगत फिलिस्तीन के सैद्धांतिक समर्थन में रहा है। फिलहाल इस्रायल ने उसकी जमीन पर हो रहे (इस्रायल में रह रहे अरब मूल के लोगों द्वारा) विरोध प्रदर्शनों को सख्ती से काबू में कर लिया है।
रंजिशों भरा रक्तरंजित इतिहास
इस्रायल और यरुशलम प्राचीनकाल से यहूदियों का मूल स्थान रहे हैं। बाद में उन्होंने अपने इलाके और प्रभाव को दो नवागत मजहबों इस्लाम और ईसाइयत के हाथों खोया है। मुस्लिम और ईसाई यरुशलम पर कब्जे को लेकर हजार साल युद्धरत रहे लंबे इतिहास में येरुशलम पर 52 बार हमले हुए, 44 बार इस पर कब्जा हुआ और सत्ता बदलती रही है। प्राय: हर बदलाव के बाद खून का सैलाब बहा, जिसमें महिलाओं और नवजात शिशुओं पर भी रहम नहीं किया गया। 1099 के क्रुसेड में यहूदी मुस्लिमों के साथ मिलकर ईसाई सेना के खिलाफ लडेÞ, जिसका बदला उन्हें भयंकर नरसंहार के रूप में चुकाना पड़ा। हजार साल बाद पोप ने इस हत्याकांड पर शोक व्यक्त किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ये इलाका (फिलिस्तीन समेत) ओट्टोमन खिलाफत (तुर्की के खलीफा) के हाथों से निकलकर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया। अरब जगत में दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रह रहे यहूदी इस इलाके में आकर बसने लगे जिससे अरब जगत में आक्रोश पनपने लगा। वे सदियों पहले यहां से खदेड़े जा चुके यहूदियों को दोबारा बसता देखकर नाखुश थे। 1920, 1929 और 1930 में यहूदी विरोधी दंगे भी हुए। यहूदियों ने भी अपने रक्षक दल बनाए और कई मौकों पर खुल्लमखुल्ला जंग हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रोम में फासिस्टों द्वारा, नाजी जर्मनी द्वारा सारे यूरोप में और रूसी तानाशाह स्टालिन ने यहूदियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया। सब जगह से उजड़े यहूदियों को बसाने के लिए 29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली ने एक योजना स्वीकृत की, जिसमें (तत्कालीन) फिलिस्तीन के दो हिस्से किया जाना तय हुआ। पश्चिमी हिस्सा एक यहूदी राज्य और दूसरा अरब राज्य— अरब लीग ने इस निर्णय को सिरे से खारिज कर दिया। इस्रायल पर हमला करने के लिए अरब लोगों के साथ मुस्लिम ब्रदरहुड, सूडान और पाकिस्तान ने भी भाग लिया। युद्ध की बाजी यहूदियों के हाथ रही। जॉर्डन को आंशिक सफलता मिली। 1967 के छह दिवसीय युद्ध में इस्रायल ने आक्रमणकारी अरब सेनाओं पर निर्णायक जीत हासिल करते हुए उनके बड़े इलाके गाजा पट्टी, सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन नदी का पश्चिमी किनारा और गोलन हाइट्स पर कब्जा कर लिया। इस्रायली अब शांतिवार्ता के प्रस्ताव का इंतजार कर रहे थे जैसा कि युद्ध के बाद होता है। वे इस जीते हुए अरब इलाके का इस्तेमाल वार्ता में मोलभाव के लिए करना चाहते थे। लेकिन अरब देशों की ओर से शांति प्रस्ताव नहीं आया। अपने से कई गुना छोटी सेना से पराजित होने के बाद, शायद वे और नीचा नहीं देखना चाहते थे।
उन्होंने अपने दरवाजे बंद कर लिए और इस्रायल को मान्यता देने से इनकार कर दिया और फिलिस्तीन को उसके हाल पर छोड़ दिया। जिहाद की तकरीरों पर राजनीति करने वाले अरब के सियासतदानों और मौलानाओं से यह सवाल नहीं पूछा जाता कि क्या फिलिस्तीन के लिए उन्हें वार्ता के लिए आगे नहीं आना चाहिए था? खैर ! इस्रायल के मुंह पर जो दरवाजे बंद किये गए, वे अरब लोगों और फिलिस्तीनियों के लिए ही कारागार साबित हुए। तब से आज तक रंजिशें पल रही हैं, और तनाव लगातार बना हुआ है।
सोचा-समझा खतरा
1980 तक यरुशलम में अनेक देशों के दूतावास थे। जुलाई 1980 में इस्रायल ने कानून बनाकर यरुशलम को अपनी संयुक्त राजधानी घोषित कर दिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने पूर्वी यरुशलम के इस्रायल में (कानूनी रूप से) मिलाने की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, और इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन घोषित किया। इसके बाद दुनिया के देशों ने यरुशलम से अपने दूतावासों को तेलअवीब ले जाना शुरू कर दिया। 2006 में अल सल्वाडोर और कोस्टारिका ऐसा करने वाले अंतिम देश थे। आज तेलअवीब में 86 देशों के दूतावास हैं। अधिकांश मुस्लिम देशों ने आज तक इस्रायल को मान्यता नहीं दी है। इनमें अल्जीरिया, बहरीन, ईरान, ईराक, कुवैत, सउदी अरब, पाकिस्तान, लीबिया, मोरक्को, ओमान, कतर, सोमालिया, सूडान, सीरिया, ट्यूनीशिया, संयुक्त अरब अमीरात, यमन, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्रूनेई और चाड आदि शामिल हंै। पिछले एक दशक से यरुशलम में कोई दूतावास नहीं था। कुछ देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के कांसुलेट अवश्य थे। 1989 में इस्रायल ने यरुशलम में अमेरिका को नया दूतावास बनाने के लिए एक भूखंड, 1 डॉलर सालाना किराए पर 99 साल की लीज पर दिया। यह भूखंड तबसे खाली पड़ा था जब से क्लिंटन, बुश, ओबामा सभी राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर यरुशलम में दूतावास को ले जाने की इच्छा जताते रहे और हर बार प्रस्ताव को अगले 6 महीने के लिए आगे बढ़ा दिया जाता। लेकिन ऐसा कभी किया नहीं गया। उधर इस्रायल में अमेरिकी राजदूत अपने दैनिक कार्यक्रम तेलअवीब स्थित दूतावास से नहीं, बल्कि यरुशलम स्थित आवासीय कार्यालय से ही निबटाते रहे।
राष्टÑपति ट्रंप ने अपने चुनावी भाषण में वादा किया था कि वे अमेरिकी दूतावास को ‘यहूदियों की शाश्वत राजधानी यरुशलम’ में वापस लाएंगे। उनकी जीत के बाद यरुशलम के वर्तमान मेयर लगातार सार्वजनिक बयान दे रहे थे कि ट्रंप अपना वादा निभाएं। ट्रंप के इस कदम से उनके दक्षिणपंथी ईसाई मतदाता उत्साहित हैं और खुशियां मना रहे हैं। दुनियाभर के ईसाई यरुशलम को ईसाइयत के उद्गम स्थल के रूप में देखते हंै। ईसाई मान्यता है कि ईसा का बचपन यहीं बीता। कई साल बाद वे एक बार फिर यहीं सार्वजनिक जीवन में दिखाई दिए। यहां ईसा के उपदेश हुए और यहीं उन्हें क्रॉस पर चढ़ाया गया। ईसाई मानते हैं कि इस्रायल के हाथों में यरुशलम का प्राचीन रूप सुरक्षित है क्योंकि इस्रायल एक खुला और उदार समाज है। इस यहूदी देश में मुस्लिम और ईसाई भी समान अधिकारों के साथ आराम से रहते हैं। यहां लोकतंत्र है। इस्रायल जिहादी आतंक के विरुद्ध अमेरिका का विश्वसनीय साथी है और अरब जगत में उसका सबसे भरोसेमंद सहयोगी है। दोनों देश समान मूल्य साझा करते हैं। इसलिए ट्रंप के इस कदम का अमेरिकी विदेशनीति और घरेलू राजनीति में खासा महत्व है।
जहां एक ओर मुस्लिम जगत में इसे मुस्लिम विरोधी कदम के रूप में देखा जा रहा है वहीं अमेरिका में इस पर दो नजरिए सतह पर आए हैं। ट्रंप विरोधियों का कहना है कि इस्रायल-फिलिस्तीन विवाद में अमेरिका ने दशकों से जो तटस्थ-मध्यस्थ की भूमिका अपना रखी थी, ट्रंम ने उसे खत्म कर दिया है। दूसरा पक्ष कहता है कि बुश, क्लिंटन और ओबामा ने इस्रायल को सहूलियतें देकर उसके नेताओं को शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने की जो नीति अपनाई थी, यह उसी का अगला कदम है और जहां तक अरब जगत में होने वाले विरोध का सवाल है, तो वहां आवाम में अमेरिका विरोधी राजनीति कोई नयी बात नहीं है। मुस्लिम जगत में जनमान्यताएं और सत्ता, अंदरूनी राजनीति और विदेश नीति, अद्भुत विरोधाभास के साथ संचालित होती हैं। ट्रंप विरोधी रुख के लिए विख्यात और ‘लिबरल’ कहे जाने वाले अमेरिका समाचार पत्र ‘वाशिंगटन पोस्ट’ और ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ इसे ट्रंप की ‘एक और गैर जिम्मेदार हरकत’ बता रहे हैं। उनका जोर इस बात पर है कि इस कदम के कारण अमेरिका ने अरब जगत में अपने वजन को हल्का कर लिया है और अब वह क्षेत्र में शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कुछ करने की स्थिति में नहीं रहेगा। सतही तौर पर ऐसी बातें ठीक मानी जाती हैं लेकिन एक परत नीचे का नजारा बिल्कुल विपरीत है। वैसे भी, क्लिंटन के कार्यकाल के बाद से फिलिस्तीन-इस्रायल मामले में अमेरिका की भूमिका में ठहराव बना हुआ है। ओबामा के कार्यकाल में मीडिया में हल्ला बहुत हुआ, लेकिन इस मामले में कुछ भी नहीं हुआ। सचाई यह है कि फिलिस्तीन का मुद्दा, अरब जगत में राजनैतिक यथार्थ नहीं, बल्कि मुस्लिम भावनात्मक मुद्दा है।
धुर विरोधियों की धुरी
अरब जगत की आपसी खींचतान में इससे कहीं बड़े और गंभीर मुद्दे हावी हैं। नए समीकरण विचित्रताओं और विरोधाभासों से भरपूर हैं। जिस सऊदी अरब के स्कूली पाठ्यक्रम में यहूदियों के विरुद्ध अत्यंत हिंसक हदीसें पढ़ाई जाती हैं, वही इस्रायल के साथ शस्त्र समझौता करता है। दरअसल कुछ समय पहले तक अकल्पनीय समझी जाने वाली इस दोस्ती के पीछे दोनों का साझा दुश्मन है— ईरान। ईरान द्वारा परमाणु क्षमता हासिल करने की फुसफुसाहटों ने सउदी अरब के कान खड़े कर दिए। इस्रायल ने मौके को लपक कर उसे अपना मिसाइल रोधी कवच आयरन डोम दिखाकर ललचा लिया। फिलिस्तीनियों ने इस समझौते को अपने लिए आशा की किरण के रूप में देखा कि उनका समर्थक रहा सऊदी अरब इस्रायल को (फिलिस्तीन के लिए) कुछ रियायतें देने के लिए राजी कर सकेगा।
बहरहाल इस्रायल के पुराने शत्रु मिस्र और जॉर्डन भी दो खतरों से आशंकित हैं—ईरान और सलाफी-वहाबी इस्लाम। ऐसे में यरुशलम को लेकर उठा उफान ज्यादा देर कायम रह सकेगा, इसमें संदेह है।
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