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पुस्तक समीक्षा : युवा मन को घेरता वामपंथी दुष्चक्र
वैसे तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय किसी न किसी कारण समाचार पत्रों से लेकर टीवी. चैनलों की सुखिर्यों में बना ही रहता है। कभी अच्छाई को लेकर तो कभी वामपंथी छात्र संगठनों की अराजक गतिविधियों को लेकर। लेकिन कम ही लोग हैं जिन्होंने छात्र जीवन के ऐसे अनुभवों को समेटकर किताब की शक्ल दी हो। डॉ. अंशु जोशी उनमें से एक हैं, जिन्होंने ‘जेएनयू में एक लड़की रहती थी’ पुस्तक लिखकर परिसर में होने वाले दुष्चक्रों को सामने रखा है।
पुस्तक एक ऐसी लड़की की कहानी पर केंद्रित है जो धार्मिक नगरी उज्जैन से अपनी आकांक्षाओं को पंख देने के लिए आती है लेकिन गुम हो जाती है यहां की पगडंडियों, खास विचारधारा और लाल सलाम की डींगें हांकने वाले ‘लाल बुझक्कड़ों’ की भीड़ में। और ऐसे हाथों की कठपुतली बनकर रह जाती है जहां सिर्फ शोषण ही शोषण होता है। लेखिका ने पी.एच.डी. की पढ़ाई के दौरान अपने आस-पास जो देखा, उसे काल्पनिक पात्रों के जरिए कहानी में पिरोने की कोशिश की है। लेकिन कहानी का सार सच है। खासकर जेएनयू में पढ़ चुके लोगों को यह कहानी ऐसी लगेगी जैसे ये सब उनके खुद के अनुभव रहे हों या फिर उन्होंने विवि. में अपने छात्र जीवन के दौरान ऐसा महसूस किया।
पुस्तक की शुरुआत उज्जैन की रहने वाली आकांक्षा से होती है जो अपनी मां के साथ विवि. में इंटरनेशल रिलेशंस में मास्टर्स में दाखिला लेने आई थी। लेकिन उसकी पहली ही मुलाकात उन वामपंथी छात्र संगठन के सदस्यों से हुई, जो नए छात्र-छात्राओं को सहायता की आड़ लेकर उनके भविष्य से खिलवाड़ करने से नहीं चूकते।
संस्कारित घर की आकांक्षा यहां के खुले माहौल को देखकर भौंचक और हतप्रभ थी। लेकिन मन को यह कहकर सांत्वना दिलाती कि ‘हमें इससे क्या लेना। मैं तो पढ़ने आई हूं।’ लेकिन कहावत है ‘संगत से गुण आत है, संगत से गुण जात’ आकांक्षा पर सटीक बैठ रही थी। लेखिका एक अध्याय में लिखती हैं कि आकांक्षा विवि. में भावनात्मक लड़ाई से जूझ रही थी। वह ऐसे लालबुझक्कड़ों के झुंड में फंस रही थी, जो भ्रष्ट व्यवस्था, पूंजीवाद, मार्क्स और क्रांति जैसे शब्द का प्रयोग करके अर्नगल बयानबाजियां कर रहे थे। यह लोग ताजा-ताजा दाखिला पाई आकांक्षा को समझा जा रहे थे कि भ्रष्ट व्यवस्था का मूल कारण पूंजीवाद है। और गरीबी और अन्य समस्याओं का समाधान क्रांन्ति से ही होगा। व्याख्याता माता-पिता की बेटी को जाहिर है शिक्षा का महत्व पहले से समझा दिया गया था। इसलिए वह इन सब बातों को दरकिनार करके सिर्फ अपनी पढ़ाई पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही थी। लेकिन यहां का माहौल उसे अपनी ओर जबरदस्ती खींच रहा था। ऐसे में उसकी जिंदगी का ताना-बना बदलने लगा था। उसके आस-पास रहने वाले दोस्तों का एक तरह से उस पर कब्जा होता जा रहा था।
एक अध्याय में लेखिका विवि. के माहौल को सामने रखती हैं। वह लिखती हैं कि आकांक्षा के कथित साथी विवि. आने वाली लड़कियों को महिला उत्पीड़न की आड़ में कहते थे कि ‘मद्यपान और सिगरेट यहां आम बात है। हम लोग समाज की थोपी वर्जनाओं को नहीं मानते। क्योंकि हम ‘इंटेक्चुअल’ हैं। हम सभी महिलाओं के उत्पीड़न, उनके बराबर के हक को क्रान्ति से दूर करेंगे।’ तो दूसरी ओर उसके केंद्र के प्रोफेसर ‘महान मार्क्सवादी’ संघर्ष के बारे में बताते-बताते व्यक्तिगत स्वतंत्रता तक ले आते थे और बोलते थे कि इस विश्वविद्यालय के पीछे ‘कम्युनल ताकतें’ पड़ी हैं। और हम इन सभी ताकतों के खिलाफ मिलकर लड़ेंगे। पहले तो यह सब आंकाक्षा के पल्ले नहीं पड़ रहा था लेकिन धीरे-धीरे वह इस माहौल में घुलने लगी थी। उसे भी जुलूसों, पोस्टरबाजी, क्रांन्ति और मार्क्सवाद पर बहस करने में मजा आने लगा था। संस्कृति और परंपराओं से जुड़ी आकांक्षा जेएनयू के माहौल को देखती और और दिमाग में सवाल उठने लगते।
पुस्तक का नाम : जेएनयू में एक
लड़की रहती थी
लेखिका : डॉ. अंशु जोशी
मूल्य : 250 रु.
पृष्ठ : 268
प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन,
2 बी.डी. चैंबर्स,10/54 देशबंधु गुप्ता रोड,
करोल बाग , नई दिल्ली
लेखिका पुस्तक के एक खंड में लिखती हैं कि कैसे वामपंथी छात्रों के चंगुल में फंसने के बाद यहां के छात्र-छात्राएं अपने संस्कार और परंपराओं से कटने लगती हैं। वह लिखती हैं कि घर में पूजा-पाठ करने वाली आकांक्षा नवरात्र पर एक अभाविप के साथी के अधिक कहने पर झिझकते हुए दुर्गा पूजा के पंडाल गई तो, लेकिन वापस आने पर उसके वामपंथी नेताओं ने उसके इस ‘कृत्य’ पर बहुत
डांट लगाई।
यह सब देख आकांक्षा दोराहे पर खड़ी थी और उसके मन में कई सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे, जिनके जवाब कोई नहीं दे पा रहा था।
– पहला, अगर धर्म अफीम है तो उसका निशाना सिर्फ हिन्दू धर्म ही क्यों?
– जब मंदिरों में पूजा करना ढकोसला है तो मस्जिद में नमाज पढ़ना ढकोसला क्यों नहीं?
– कक्षा में तिलक लगाना कम्युनल है, लेकिन सभी मुस्लिम इकट्ठे होकर नमाज पढ़ें तो सेकुलर?
– एक मुस्लिम लड़की अगर बुर्का पहने तो वह उसकी इच्छा है पर एक हिन्दू स्त्री का घंूघट, मंगलसूत्र और सिंदूर लगाना कुरीति?
– अगर एक ईसाई चर्च जाए तो यह उसकी आस्था लेकिन हिन्दू मंदिर जाए तो वह कट्टर?
लेकिन इस सबके बाद भी कैसे वामपंथी नेता किसी को अपने पाश में लेते हैं, उसका उदाहरण आकांक्षा थी। चुनाव में उसे वामपंथी नेता और प्रोफेसरों ने षड्यंत्रपूर्ण तरीके से उसके केंद्र से उम्मीदवार बनाया। पहले तो वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। लेकिन फिर धीरे-धीरे वह अपने केंद्र के एक प्रोफेसर के दिखाए सब्जबाग में फंसती चली गई और चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गई। सभी ने मिलकर उसे चुनाव जिताया। लेकिन चुनाव के बाद तो मानो उसकी जिंदगी बिल्कुल बदल सी गई।
एक संस्कारित लड़की क्रांति के सागर में गोते लगाने लगी। उसके कथित साथियों ने उसे खाने-पीने की आदत भी लगा दी। जो लड़की अपने मां-पिता की आवाज सुनकर चहकने लगती थी, अब उनकी आवाज उसे अखरने लगी थी। अब वह उनसे बात करना भी पसंद नहीं करती थी। वह नशे की इतनी शिकार हो गई थी कि अगर उसे नशा न मिलता तो वह छटपटाने लगती। उसके संस्कार और विचार सब बदल चुके थे। यानी अब वह पहले वाली आकांक्षा नहीं रही थी। लेखिका यहां विस्तार से लिखती हैं कि कैसे वामपंथी छात्र और नेता एक साजिश के तहत यहां आने वाले छात्रों को अपने पाश में लेते हैं और अपने मिशन को कामयाब करते हैं।
एक अध्याय में लेखिका लिखती हैं कि धीरे-धीरे आकांक्षा का जेएनयू से जाने का समय नजदीक आने लगा था। क्योंकि स्नातकोत्तर के बाद एम.फिल. में विवि. में प्रवेश परीक्षा देनी होती है, जिसके लिए वह तैयार नहीं थी। उसकी बेरुखी के चलते परिवार को उसकी चिंता सताने लगी थी। वामपंथी नेता, छात्र उसके कथित साथी उसका प्रयोग करके दूर होने लगे थे। क्योंकि उन्हें अब दूसरे ‘शिकार' के रूप में दूसरी आकांक्षा जो मिलने वाली थीं। हालांकि आकांक्षा भी अब इन सभी के चाल-चरित्र और चेहरे को जान चुकी थी। जिन मां-पिता ने बड़ी आशा के साथ इस विश्व प्रसिद्ध विवि. में अपने बेटी को पढ़ने को भेजा था, वह यहां के माहौल को जानकर निष्प्राण रह गए थे। पुस्तक की समाप्ति पर लेखिका आकांक्षा के बदले हाव-भाव और संकटग्रस्त भविष्य पर नजर डालती हैं, जो एक साजिश के तहत उसके साथ घटित किया गया था। मां को देखकर हंसने और आनंद से भर उठने वाली आकांक्षा परिसर में स्थित छात्रावास में मां के दाखिल होने पर आंखें चुराने को मजबूर हो रही थी। मानो उसकी आंखें कह रही थीं कि बिना बताए क्यों आ गई आप? मां उसकी हालत को देखकर सब समझ चुकी थीं और मन ही मन उन सभी को कोस रही थीं जिन्होंने उनकी बेटी के जीवन के साथ खिलवाड़ किया था। कुल मिलाकर पुस्तक वामपंथी छात्र संगठनों, प्रोफेसरों और जल-जंगल-जमीन के नाम पर विश्वविद्यालय में डींगें हांकने वालों के चेहरों पर लगे नकाब को उतारकर फेंकती है। हालांकि पुस्तक में
कुछ ‘प्रूफ’ की अशुद्धियां दिखती हैं लेकिन समग्र रूप से देखने
पर किताब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटने वाले उस सत्य से परिचित कराती है, जिसे कम ही लोग जानते हैं।
अश्वनी मिश्र
पुस्तकें मिलीं
गो संवर्द्धन,राष्ट्र संवर्द्धन
गुजरात गोसेवा एवं गोचर विकास बोर्ड द्वारा गोसंवर्द्धन को केंद्र में रखकर हाल ही में प्रकाशित यह पुस्तक गाय के महात्मय के साथ इसके जरिए राष्ट्र के संवर्द्धन को बड़े ही विस्तार से बताती है। अलग-अलग खंडों में विभाजित पुस्तक में गो, गांव और किसान से संबद्ध अनेक लेख हैं जो उसकी उपयोगिता के बारे में विस्तार से बताते हैं। पुस्तक में सबसे आकर्षित करने वाले हैं चित्र, जो किसी को भी इसे देखने पर जरूर मजबूर करते हैं।
पुस्तक का नाम : गो संवर्द्धन,राष्ट्र संवर्द्धन ं
प्रकाशक : गुजरात गोसेवा एवं गोचर
विकास बोर्ड
भगवान श्रीकृष्ण
(यज्ञीय जीवन के अजस्र पे्ररणा स्रोत)
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन को प्रस्तुत करने वाली यह पुस्तक 27 अध्यायों में विभाजित है। लेखक ने श्रीकृष्ण के जीवन में घटने वाले हर महत्वपूर्ण घटनाक्रम का विस्तार से उल्लेख किया है। चाहे वह पांडवों के साथ बिताया समय हो, कुरुक्षेत्र का रण या फिर गीता का जन्म। भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र से जुड़े छोटे-छोटे घटनाक्रमों को जानने-समझने के लिए यह पुस्तक अच्छी है।
पुस्तक का नाम : भगवान श्रीकृष्ण
(यज्ञीय जीवन के
अजस्र पे्ररणा स्रोत)
लेखक : डॉ. रमेशचन्द्र यादव ‘कृष्ण’
मूल्य : 1000 रु.
पृष्ठ : 736
प्रकाशक : श्रीकृष्ण प्रकाशन,
कृष्ण कुटीर, कृष्णपुरी,
लाइनपार, मुरादाबाद(उ.प्र.)
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