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मीराबाई चानू सिडनी ओलंपिक (2000) की कांस्य पदक विजेता कर्णम मल्लेश्वरी के बाद विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। पूर्वोत्तर राज्यों की खेल प्रतिभा दुनिया में भारत की पताका फहराने लगी है
संक्षिप्त परिचय
नाम : साइखोम मीराबाई चानू
जन्म : 8 अगस्त, 1994
जन्म स्थान : इंफाल, मणिपुर
कद : 4 फुट, 11 इंच
भारोत्तोलन की शुरुआत : 2007 में खुमन लंपाक स्पोर्ट्स कॉम्लेक्स, इंफाल
नौकरी : भारतीय रेलवे
उपलब्धियां : स्वर्ण पदक
ल्ल विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता, अमेरिका (2017)
ल्ल सीनियर राष्टÑकुल भारोत्तोलन प्रतियोगिता (2017)
ल्ल दक्षिण एशियाई खेल (2016)
ल्ल अंतरराष्टÑीय युवा प्रतियोगिता (2011)
रजत पदक
ल्ल ग्लासगो राष्टÑकुल खेल (2014)
शौक : गीत संगीत सुनना और चॉकलेट खाना
प्रवीण सिन्हा
एक वक्त था जब हॉकी के अच्छे खिलाड़ियों को ढूंढने की बारी आती थी तो लोग पंजाब या मध्य प्रदेश का रुख करते थे, जबकि फुटबॉल की राष्ट्रीय टीम में बंगाल, केरल या गोवा के खिलाड़ियों की भरमार होती थी। इसी तरह क्रिकेट में मुंबई, दिल्ली और बेंगलुरु के खिलाड़ियों का लंबे समय तक दबदबा रहा, तो शारीरिक दमखम वाले खेल जैसे कबड्डी या कुश्ती में हरियाणा के हर जिले से खिलाड़ी निकल आते थे। अब कमोबेश हर खेल में देश के कोने-कोने से खिलाड़ी निकल आते हैं जो दर्शाता है कि भारत में खेल संस्कृति का तेजी से विस्तार हो रहा है। लेकिन हॉकी, फुटबॉल, मुक्केबाजी, तीरंदाजी या भारोत्तोलन जैसे खेलों में पूर्वोत्तर राज्यों की महिला खिलाड़ियों का गजब का दखल है। महिलाओं में क्रिकेट को छोड़ किसी भी खेल पर आप नजर डालें तो पूर्वोत्तर राज्यों की खिलाड़ियों की अहम् भूमिका नजर आएगी। मणिपुर, सिक्किम या अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की महिला खिलाड़ियों की चुस्ती-फुर्ती, गति, शरीर की लोच, ताकत और तकनीक अक्सर उन्हें अन्य खिलाड़ियों से अलग और विशेष पहचान दिलाती है।
अगले साल राष्टÑकुल खेलों और एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतना है लक्ष्य
उसके बाद टोक्यो ओलंपिक के लिए नए सिरे से करेंगी तैयारी
विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में स्वर्ण जीतने से पहले बड़ी बहन की शादी में नहीं हुर्इं शामिल, कहा, बहन के लिए यह सबसे बढ़िया तोहफा
बचपन में तीरंदाज बनना चाहती थीं मीराबाई
परिवार में माता, पिता और दो भाई सभी खेलते हैं फुटबॉल
मुक्केबाजी में डिंको सिंह ने जब अपने दमदार प्रदर्शन से एहसास कराया कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। महिला वर्ग में एम. सी. मैरीकॉम और एल. सरिता देवी जैसी खिलाड़ियों ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसी तरह भारोत्तोलन में कर्णम मल्लेश्वरी को छोड़ जितनी भी दमदार खिलाड़ी आर्इं, उनमें ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों की थीं। पांच बार की एशियाई चौंपियन कुंजारानी देवी और राष्टÑकुल प्रतियोगिता की स्वर्ण पदक विजेता सोनिया चानू और एन चानू जैसी कई दमदार खिलाड़ी भारतीय खेल जगत में आर्इं और विश्व खेल पटल पर छा गर्इं। कुंजारानी तो एक समय न केवल विश्व वरीयता क्रम में शीर्ष पर थीं, बल्कि उनका प्रदर्शन भी कई बार अंतरराष्टÑीय स्तर पर शीर्ष पर रहा। तीरंदाजी में भी कमोबेश यही कहानी है। झारखंड की महिला खिलाड़ियों को अगर कोई खिलाड़ी टक्कर देती है तो वह पूर्वोत्तर राज्यों से आती है। पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से चेक्रोवोलू स्वूरो और बोम्बायला देवी निरंतर भारतीय तीरंदाजी दल की अहम खिलाड़ी रही हैं। महिला हॉकी में पूर्व कप्तान सुशीला चानू के साथ कई युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ी देश का नाम रोशन कर रही हैं।
इस संदर्भ में भारतीय भारोत्तोलन टीम के कोच विजय शर्मा कहते हैं, ‘‘पूर्वोत्तर राज्यों की भौगोलिक स्थिति प्राकृतिक सुंदरता के साथ दुर्गमता से भरी हुई है। इस स्थिति में वहां के लोगों में बचपन से ही जूझने की क्षमता का विकास होता है। वे मानसिक और शारीरिक तौर पर काफी मजबूत होती हैं। इसके अलावा खासकर, महिला खिलाड़ियों में पुरुषों की तुलना में ज्यादा स्फूर्ति और ताकत दिखती है। आनुवांशिक तौर पर वहां की महिला खिलाड़ी ज्यादा मजबूत होती हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में खेल सुविधाओं का अभाव है, वरना वहां से आपको और भी ज्यादा प्रतिभाशाली खिलाड़ी मिलतीं।’’ वे कहते हैं, ‘‘किसी भी खेल के हल्के वजन वर्गों (लाइटवेट) में उत्तर-पूर्वी राज्यों की खिलाड़ी कहीं ज्यादा सक्षम होती हैं। मीराबाई इसका ताजातरीन उदाहरण हैं, जबकि कुंजारानी और सोनिया चानू भी हल्के वजन वर्गों में परचम लहराती आई हैं। इसी तरह हॉकी, फुटबॉल और मुक्केबाजी में भी वहां की महिला खिलाड़ी अपनी छाप छोड़ने में सफल हो रही हैं। हम लोग रेलवे या अन्य खेल बोर्डों के लिए प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की खोज में उत्तर-पूर्वी राज्यों की ओर रुख करते हैं, क्योंकि हमें उनकी प्रतिभा और दमखम पर भरोसा है। जरूरत उन्हें तराशने की है। अगर उन राज्यों में खेल सुविधाओं का और विकास हो जाए तो ज्यादा से ज्यादा महिला खिलाड़ी वहां से निकलेंगी।’’
सिडनी ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता और भारोत्तोलन में सरकारी पर्यवेक्षक कर्णम मल्लेश्वरी भी युवा मीराबाई चानू और राष्टÑकुल खेलों की स्वर्ण पदक विजेता संजीता चानू को भविष्य की स्टार खिलाड़ी मानती हैं। मल्लेश्वरी कहती हैं, ‘‘हमारे देश में काफी प्रतिभाशाली भारोत्तोलक हैं, लेकिन मेरे ख्याल से एक विजेता इकाई तैयार करने के लिए सही संयोजन का अभाव रहता है। कभी एक अच्छे कोच को प्रशिक्षण देने के लिए अच्छे भारोत्तोलक नहीं मिलते, तो कभी एक अच्छे भारोत्तोलक को प्रशिक्षण पाने के लिए एक अच्छा कोच नहीं मिलता। हम सभी इस मामले पर गंभीरता से काम कर रहे हैं। सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से चला तो आने वाले वर्षों में हम एक बार फिर से भारोत्तोलन की एक शक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहेंगे और हमारे खिलाड़ी देश के लिए और ज्यादा पदक जीतेंगे।’’ उनकी बात में दम है। बस, बुनियादी ढांचों के विकास के साथ प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को वैज्ञानिक तरीके से प्रशिक्षण देने की जरूरत है।
Interview
देश के लिए अभी कई पदक और जीतने हैं : मीराबाई चानू
12-13 साल की उम्र में मीरा तीरंदाज बनना चाहती थी। एक दिन वह तीरंदाजी प्रशिक्षण केंद्र में दाखिला लेने पहुंची, लेकिन उस दिन वहां ताला लगा हुआ था। उस जमाने की मणिपुर की स्टार भारोत्तोलक कुंजारानी से प्रभावित उनकी मां और बड़े भाई ने आनन-फानन में मीरा का भारोत्तोलन प्रशिक्षण केंद्र में दाखिला करा दिया। शायद तीरंदाजी प्रशिक्षण केंद्र के उस बंद ताले ने भारोत्तोलन के विश्व चैंपियन की राह खोली थी। तभी तो मीराबाई 22 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद देश के लिए विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली खिलाड़ी बनीं। कैलिफोर्निया में ऐतिहासिक सफलता पाने के बाद मीराबाई चानू से प्रवीण सिन्हा की हुई बातचीत के प्रमुख अंश—
विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में देश के लिए स्वर्ण पदक जीतना क्या मायने रखता है?
जब मैं पैदा हुई थी तो चंद महीने बाद ही कर्णम मल्लेश्वरी ने विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता (नवंबर, 1994) में देश के लिए पहली बार स्वर्ण पदक जीता था। अगले साल (1995) उन्होंने जब दोबारा स्वर्ण पदक जीता तो भी मैं दुनिया की गतिविधियों से बेखबर थी। उसके बाद मैं विश्व प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली दूसरी खिलाड़ी बनी, तो इससे बड़ी खुशी की बात कुछ और हो ही नहीं सकती थी। सबसे बड़ी बात है कि 2016 रियो ओलंपिक खेलों में मेरी असफलता ने मुझे बहुत बड़ी सीख दी थी। अब मेरा आत्मविश्वास इतना बढ़ गया है कि मैं अन्य बड़ी प्रतियोगिताओं में स्वर्ण जीतने की सोच सकती हूं।
प्रतियोगिता के कारण बहन की शादी में भाग नहीं ले पार्इं। कोई अफसोस?
अंतरराष्टÑीय स्तर पर कुछ हासिल करने के लिए कहीं न कहीं त्याग तो करना ही पड़ता है। मेरी मां ने सलाह दी कि अभी केवल लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करो। मैंने वही किया। कैलिफोर्निया में स्वर्ण पदक जीतने के बाद जब मैंने मां को खुशखबरी दी तो वे इतना भावुक हो उठीं कि उनकी जबान से शब्द नहीं निकल रहे थे, वे बस रोए जा रही थीं। मां की खुशी से मुझे अंदाजा लग गया कि मैं भले ही बड़ी बहन की शादी में नहीं जा सकी, लेकिन मेरा विश्व चैंपियन बनना उसके लिए सबसे बड़ा तोहफा है।
क्या रियो ओलंपिक के बाद आप एक मजबूत खिलाड़ी (प्रदर्शन और दिल दोनों से) बनकर उभरीं?
खेल के प्रति मेरे समर्पण में कोई कमी नहीं आई। हां, रियो की असफलता ने मुझे झकझोर दिया था। उस स्थिति से पार पाने के लिए मेरे पास कड़ी मेहनत करते हुए बड़े स्तर पर सफल होने के अलावा और कोई चारा नहीं था। मैंने रेलवे के कोच विजय शर्मा के साथ कड़ी मेहनत की और लगातार अपनी कमियों में सुधार लाने की कोशिश करती रही। खेल संघ, साई या सरकार, हर तरफ से हम खिलाड़ियों को जबरदस्त मदद मिलती है। हमने पटियाला में राष्टÑीय शिविर में कड़ी मेहनत की और मैं आज स्वर्ण जीतने में सफल रही।
आगे और बेहतर करने के लिए क्या किसी विदेशी कोच या सुविधाओं की जरूरत है?
मुझे ऐसा नहीं लगता। पटियाला में हमें सारी सुविधाएं मिली हुई हैं। वहां सिर्फ निरंतर कड़ी मेहनत करते हुए अभ्यास करने की जरूरत है। साथ ही, देश में विजय सर जैसे अच्छे प्रशिक्षक मौजूद हैं तो, विदेशी कोच की क्या जरूरत है। मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि आज मैंने जो उपलब्धि हासिल की है तो उसके पीछे मेरे कोच की सबसे बड़ी भूमिका रही है। उनके बिना हम भारतीय खिलाड़ी अंतरराष्टÑीय स्तर पर सफलता हासिल नहीं कर सकते। मैं देश के लिए और ज्यादा पदक जीतने की कोशिश करूंगी।
विश्व चैंपियन बनने के बाद आपका अगला लक्ष्य?
अगले साल एशियाई खेल और राष्टÑकुल खेल दोनों ही बड़ी स्पर्धाएं हैं। मैं एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने की हरसंभव कोशिश करूंगी। भारोत्तोलन में एशियाई देशों, जैसे चीन, कोरिया, थाईलैंड और ताइपे के खिलाड़ियों का दबदबा रहता है। जाहिर है, एशियाड में भी उनकी खिलाड़ी कड़ी चुनौती पेश करेंगी, लेकिन मैं सिर्फ अपनी तैयारी पर ध्यान केंद्रित करूंगी। मैंने अमेरिका में 194 किग्रा़ वजन उठाकर स्वर्ण पदक जीता, लेकिन प्रशिक्षण शिविर में मैं इससे भी बेहतर प्रदर्शन करने में सफल रही। इसलिए अन्य शीर्षस्थ खिलाड़ियों के प्रदर्शन को देखते हुए अपनी बेहतर तैयारी करना जरूरी है। मैं भी वही करूंगी। जहां तक राष्टÑकुल खेलों की बात है तो उसमें इतनी कड़ी चुनौती नहीं मिलनी चाहिए और मैं पिछले ग्लासगो राष्टÑकुल खेल (2014) के रजत पदक का रंग बदलकर उसे सुनहरा करने की कोशिश करूंगी।
मीडिया में खबर आई है कि इस सफलता के बाद आप दृढ़ विश्वास के साथ अर्जुन पुरस्कार के लिए दावेदारी पेश करेंगी?
यह गलत खबर है। अंतरराष्टÑीय स्तर पर बढ़िया प्रदर्शन करने के बाद अन्य खिलाड़ियों की तरह मेरी भी इच्छा है कि मुझे सम्मान मिले, लेकिन उसके लिए बेहतर प्रदर्शन करना जरूरी होता है। कई उतार-चढ़ाव के बीच मैंने कई बार अच्छा प्रदर्शन किया है। अब भी मैं निरंतर कड़ी मेहनत करते हुए देश के लिए ज्यादा से ज्यादा पदक जीतना चाहती हूं। मैं अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करती हूं, जो कि मेरे हाथ में है। बाकी, अगर सफलताएं मिलेंगी तो अर्जुन पुरस्कार ही क्यों, खेल रत्न जैसे सम्मान भी मैं पा सकती हूं। मुझे खेल संघ और सरकार पर पूरा भरोसा है।
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