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कैलिफोर्निया में कक्ष्ाा 6 से कक्षा 8 की इतिहास और सामाजिक विज्ञान की किताबों में भारत की प्राचीन सभ्यता और हिंदू धर्म को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के विरुद्ध गत एक दशक से जारी हिंदू संगठनों का आंदोलन रंग लाया। कैलिफोर्निया स्टेट बोर्ड आॅफ एजुकेशन पुस्तकों में बदलाव के लिए तैयार हो गया है
ललित मोहन बंसल, लॉस एंजिल्स से
कैलिफोर्निया में छठी से आठवीं कक्षा तक की इतिहास एवं सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में प्राचीन भारतीय सभ्यता, हिंदू धर्म के बारे में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने और इसे वर्ण व्यवस्था से जोड़ने के विरुद्ध हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन एवं अन्य संगठनों सहित अमेरिका में रह रहे भारतीयों का विरोध रंग लाया है। करीब एक दशक की लंबी लड़ाई के बाद कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग इन पाठ्यक्रमों में बदलाव के लिए तैयार हो गया है। कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग ने हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन के सभी तर्कसम्मत साक्ष्यों पर गहन विचार-विमर्श के बाद बदलाव की मंजूरी दे दी है। साथ ही, कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग ने इस मामले में 9 नवंबर को अंतिम सुनवाई के बाद अमेरिका के दो पूर्वाग्रह ग्रस्त प्रकाशकों ‘हॉगटन मिफिन हरकोर्ट’ और ‘मैकग्रॉहिल एजुकेशन’ को प्रकाशकों की सूची से बाहर कर दिया है। यानी अब बच्चों को भारत की सभ्यता और हिंदू धर्म के बारे में सही-सही जानकारी मिलेगी। इसे अमेरिका में भारतीयों की ऐतिहासिक जीत के रूप में देखा जा रहा है।
अब कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग के सामने मान्य नियमानुसार एक ही विकल्प है कि वह मौजूदा दस में से आठ प्रकाशकों को छठी से आठवीं कक्षा तक की इतिहास एवं सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में अपेक्षित संशोधन और संपादन का निर्देश दे ताकि नए सत्र से कैलिफोर्निया के स्कूलों में इन्हें लागू किया जा सके।
एक दशक तक चले इस संघर्ष में हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन अकेला नहीं था। इसे विषम चुनौती मानकर शुरू में ही हिंदू स्वयंसेवक संघ ने कैलिफोर्निया सहित अन्य राज्यों के सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों को एकजुट किया और शांतिपूर्ण आंदोलन चलाने का आग्रह किया। इस आंदोलन को हिंदू पेड़िया, बे एरिया वैष्णव परिवार, सिलिकन आंध्र, भारतीय तमिल संगम, वेदिका ग्लोबल तथा अन्य संगठनों के पदाधिकारियों ने मिलकर न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि अंजाम तक पहुंचाया। हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन के निदेशक शांताराम नेकर ने कहा कि प्राचीन भारत के इतिहास में हिंदू दर्शन, संस्कृत, योग, तमिल संगम, पौराणिक साहित्य और गैर ब्राह्मण ऋषि-मुनियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
इसमें संदेह नहीं है कि आंदोलन को मजबूती देने के लिए अमेरिका में रह रहे भारतीयों को एकजुट करना आसान काम नहीं था। आंदोलन के समर्थन में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन के कार्यकर्ताओं ने कैलिफोर्निया जैसे बड़े राज्य में घर-घर जाकर 8,000 भारतीयों से संपर्क किया। इस फाउंडेशन की एक अन्य पदाधिकारी दक्षिता तलकर ने सभी मांगें पूरी होने तक इस आंदोलन को जारी रखने का आग्रह किया।
पहली चुनौती यह मनवाना था कि पाठ्यपुस्तकों में दूसरे मजहब और पंथ की तरह समान रूप से हिंदुत्व तथा प्राचीन भारत की रूपरेखा को स्वीकार किया जाए। इसके लिए अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कार्यरत 25 प्राध्यापकों और शोध शास्त्रियों ने कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग को एक प्रतिवेदन सौंपा। इसमें कहा गया कि प्रकाशकों ने इतिहास और सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों का जो प्रारूप दिया है, वह लचर है। इसमें कुछ आवश्यक संशोधन करने होंगे। इसमें हिंदू अमेरिकी समुदाय ने महत्वपूर्ण सहयोग दिया। कैलिफोर्निया राज्य सभासद केविन केले और कैलिफोर्निया स्टेट एशियन पैसिफिक आइलैंडर की आशा कालरा ने इंस्ट्रक्शनल क्वालिटी कमीशन को अपनी सिफारिश के साथ जो प्रतिवेदन दिया, उसे स्टेट बोर्ड आॅफ एजुकेशन ने स्वीकार तो कर लिया, लेकिन दस प्रकाशकों में से तीन-हॉगटन मिफिन हरकोर्ट, मैकग्रॉहिल और डिस्कवरी एंड नेशनल ज्योग्राफी ने पूर्वाग्रहों के वशीभूत प्राचीन भारतीय इतिहास और हिंदू देवी-देवताओं के चित्रण में अपेक्षित सुधार नहीं किए। इन तीनों प्रकाशकों ने वैदिक काल में गायों को कूड़े के ढेर पर चरते हुए तथा वंचित वर्ग के हिन्दुओं को गंदी बस्तियों में शर्मनाक ढंग से चित्रित किया था। यही नहीं, प्राचीन भारतीय धरोहर से बेखबर एक छद्म समूह ‘साउथ एशियन हिस्ट्री फॉर आॅल’ ने पुस्तक की रूपरेखा में मौजूदा ‘दक्षिण एशिया’ की जगह भारत को स्वीकार करने पर एतराज किया। इस छद्म समूह को हिंदू विचारधारा में महर्षि व्यास और वाल्मीकि के नामों का उल्लेख किए जाने से भी परहेज था। इसे समकालीन विज्ञान और तकनीक में भारतीय योगदान को स्वीकार करने से भी गुरेज था। लेकिन इस छद्म समूह के पास अपनी बात प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं था। यही उसके लिए भारी पड़ा और पाठ्यपुस्तकों के प्रारूप में रद्दोबदल के लिए सहमति बन सकी। इसके बाद आगे की राह आसान हो गई, हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन का हौसला बढ़ गया।
इसमें पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय में रिलीजन एंड एशियन स्टडीज में प्रोफेसर डॉ. जेफरी लांग की भूमिका महत्वपूर्ण रही। उनके नेतृत्व में पंथों एवं विभिन्न देशों की सभ्यताओं के जानकारों की बैठक हुई। इसमें पूरे अमेरिका से 38 प्राध्यापक आए और उन्होंने सारगर्भित शब्दों में हिंदुत्व की मीमांसा की, जिसे कैलिफोर्निया शिक्षा बोर्ड ने गंभीरता से लिया। इन विद्वानों में टेक्सास, फ्लोरिडा, इलिनोइस और केंटकी के अलावा अन्य अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले भारतीय प्राध्यापक भी थे। इनमें प्रो. अशोक अक्लूजकर, प्रो. शिवा वाजपेयी, प्रो. एन. बर्लीनर, प्रो. अभिषेक घोष, प्रो. पंकज जैन, प्रो. मुरूगप्पा (मधु) सी. माधवन, प्रो. अमिया के. मोहंती, प्रो. देवन पटेल, प्रो. अनंतानंद रामबचन, प्रो. नलिनी राव, प्रो. टी.एस. रुक्मणी, प्रो. अमिता आर. शाह, प्रो. अरविंद और प्रो. कुंदन सिंह प्रमुख हैं। डॉ. जेफरी लांग के नेतृत्व में इन प्राध्यापकों की ओर से बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. माइकल किंसर्ट को प्रेषित प्रतिवेदन असरदार साबित हुआ। हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन ने विधि विशेषज्ञों के जरिये पिछली सुनवाइयों में जो प्रतिवेदन दिए थे, उन पर भी विचार किया गया और इनमें भारत की प्राचीन सभ्यता से जुड़े सभी संशोधनों को स्वीकार कर लिया गया। इतना ही नहीं, प्राचीन भारत के इतिहास में योग संबंधित प्रतिवेदन को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि मान्य नियमों के अनुसार कैलिफोर्निया राज्य शिक्षा बोर्ड के लिए सभी मत-पंथों को समानता के आधार पर तरजीह देना अनिवार्य है। वह अपनी पुस्तकों में किसी भी पंथ विशेष के प्रति दुराग्रह की अनुमति नहीं देता। इसके लिए हर दस साल बाद बोर्ड इतिहास और सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में अपेक्षित संपादन के लिए राज्य के विभिन्न पक्षों से प्रतिवेदन मांगता है और उन पर निष्पक्ष सुनवाई करता है। इसी तथ्य के मद्देनजर हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन ने अंतिम सुनवाई के लिए पूरी शक्ति लगा दी। इसके लिए समाज के विभिन्न समुदायों, खासकर प्रवासी भारतीयों के सांस्कृतिक, सामाजिक एवं शैक्षिक संगठनों के विभिन्न समारोहों और कार्यक्रमों में हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने मंदिरों, गुरुद्वारों और अन्य स्थलों पर बैठकें कीं। लोगों को इस बात के लिए तैयार किया गया कि यदि वे अपने बच्चों को वास्तविक तथ्यों से अवगत कराना चाहते हैं तो बोर्ड के समक्ष अंतिम सुनवाई में हिस्सा लें। हालांकि बोर्ड के सामने सुनवाई के समय हिंदू फोबिया से ग्रस्त एक छोटा सा समूह भी था, फिर भी कार्यकर्ता किसी भी तरह की ढिलाई के पक्ष में नहीं थे। फाउंडेशन के कार्यकर्ताओं को मालूम था कि ‘साउथ एशियन हिस्ट्री फॉर आॅल’ नाम से एक छद्म समूह उनके विरोध में तो है, लेकिन उनके तर्कों और साक्ष्यों के आगे टिक नहीं सकेगा।
9 नवंबर को कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग के सेक्रोमेंटो स्थित मुख्यालय में इंस्ट्रक्शनल क्वालिटी कमीशन के सदस्यों के समक्ष अंतिम सुनवाई से पहले मौसम का मिजाज भी बदला हुआ था। सुनवाई की एक रात पहले से घने बादल छाए हुए थे और सेक्रोमेंटो में रात भर बूंदाबांदी होती रही, जो अगले दिन शाम तक चलती रही। बारिश के बावजूद सुबह बड़ी संख्या में छोटे-छोटे समूह में बच्चे और उनके अभिभावक हाथों में छाता लिए बोर्ड भवन की ओर बढ़ रहे थे। उनके हाथों में तख्तियां थीं, जिन पर देवी-देवताओं और हिंदुत्व के यथार्थ चित्रण के साथ प्राथमिक और हाई स्कूलों से नस्लवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने संबंधी नारे लिखे हुए थे। विभिन्न समूहों से बात करने पर पता चला कि कुछ लोग तो 500-700 मील दूर से रातभर यात्रा करके पहुंचे थे, जबकि कुछ दक्षिण में सैन डिएगो और लॉस एंजिल्स से आए थे। देखते ही देखते कैलिफोर्निया राज्य के 84 नगरों से करीब छह सौ लोग अपने-अपने खर्चे पर राजधानी सेक्रोमेंटो पहुंच गए थे। इनमें से अनेक लोगों के रहने की व्यवस्था स्थानीय प्रवासी भारतीय परिवारों ने अपने-अपने घरों में की थी। इन सभी के लिए खाने-पीने की व्यवस्था प्रवासी भारतीय परिवारों और लीवरमोर मंदिर ने की थी। यह नजारा सचमुच में अद्भुत था। इन सभी के सामने एक विवशता यह थी कि उन्हें अपनी बात बड़ी मजबूती से बोर्ड तथा कैमरे के समक्ष एक-एक मिनट में पूरी करनी थी। इस तरह सुबह आठ बजे से शुरू होने वाला सुनवाई सत्र शांतिपूर्ण तरीके से शाम साढ़े चार बजे तक चला। इस दौरान तय समय में कई बच्चों ने भी अपनी आपबीती सुनाई। ये बच्चे स्कूल से एक दिन की छुट्टी लेकर माता-पिता के साथ आए थे। कुछ बच्चों की आपबीती बेहद मार्मिक थी। गौरतलब है कि सुनवाई के लिए दूर-दराज से आए लोग थके हुए थे, पर उनके उत्साह में कोई कमी नहीं दिखी। रवींद्र कुमार सिलिकन वैली में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और तीन दशक पहले लुधियाना से अमेरिका आए थे। उन्होंने बताया, ‘‘मेरी दो बेटियां हैं और वे हमेशा ही स्कूल में नस्लभेद की शिकार रहीं। कभी उनके खान-पान पर तो कभी उनकी वेश-भूषा पर छींटाकशी की जाती थी। बच्चियों के लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह होता था, जब स्कूल में श्वेत और हिस्पैनिक बच्चे उन्हें ‘मंकी’ की संतान कहकर चिढ़ाते थे या भगवान शिव का मजाक उड़ाते थे। एक बार तो टीचर ने ही मेरी बच्ची के धर्म को लेकर सवाल खड़ा कर दिया। मेरी बच्ची को बुरा लगा। उसने पलट कर कहा, जिस तरह आपको अपने मत-पंथ पर गर्व है, उसी तरह हमें भी अपने धर्म पर गर्व है। उसके बाद टीचर या किसी बच्चे ने कोई सवाल नहीं किया।’’
अरवाईन, लॉस एंजिल्स के गुलशन भाटिया सेवानिवृत्ति के बाद अब एकल विद्यालय के कामकाज में हाथ बंटाते हैं। वे बड़े धैर्य से कहते हैं, ‘‘अब यहां की फिजा बदली है। दो-तीन दशक के दौरान बहुत बदलाव आया है। अमेरिका के शिक्षित समाज में अब 13 प्रतिशत भारतीय हैं। ऐसे कम ही स्कूल बचे हैं, जहां श्वेत या हिस्पैनिक बच्चे यह कहकर हमारे बच्चों को चिढ़ाते हों कि इस्लाम और ईसाई मजहब की तरह उनका ‘एक ग्रंथ’ या ‘एक देवी-देवता’ क्यों नहीं हैं?’’ उडुपी से दो दशक पहले आकर अमेरिका में बसे मधुसूदन भी पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। कैलिफोर्निया के कुपरटिनो में रहने वाले मधुसूदन ने गर्व से कहा, ‘‘मेरे बच्चे श्वेत या हिस्पैनिक बच्चों से पढ़ाई में किसी भी दृष्टि से कमजोर नहीं हैं। वे अमेरिका में गणित या स्टेम की प्रतिस्पर्धा में अव्वल आते हैं तो श्वेत और हिस्पैनिक को ईर्ष्या होती है। क्या यह एक अच्छा संकेत नहीं है?’’ चेन्नई के सेतुरमन रामजी ने कहा, ‘‘यह दुखद है कि हमारे अपने ही कुछ लोग हमारी वर्ण व्यवस्था की गलत व्याख्या कर रहे हैं।’’ वहीं, चंडीगढ़ के नवदीप कहते हैं, ‘‘हमें गर्व है कि हम आज अपने दृढ़ संस्कारों के बल पर ही दूसरे पर विजय पा सके हैं। हमें इसे आगे भी जारी रखना है। इसलिए हम अपने बच्चों को अपने संस्कारों पर बने रहने के लिए विशेष जोर देते हैं। मैं कहना चाहूंगा कि इस कार्य में संघ शक्ति ने अहम भूमिका निभाई है।’’
विडम्बना देखिए कि छद्म समूह अंतिम दिनों तक सोशल मीडिया को भी अपना हथियार बनाने से नहीं चूका। साथ ही, इसने महात्मा गांधी के नाम का उल्लेख करने से भी परहेज किया। दरअसल, सुनवाई में इस समूह के लोगों के सारे हथियार भोथरे साबित हुए। वे अपने आधारहीन तथ्य और कमजोर साक्ष्यों के कारण सुनवाई के दौरान ज्यादा समय तक टिक नहीं पाए। इसलिए कैलिफोर्निया राज्य शिक्षा बोर्ड के विद्वान सदस्यों को भी विचारार्थ पाठ्यपुस्तकों की रूपरेखा और विषयवस्तु को अंतिम रूप देने में कठिनाई नहीं आई। इन पुस्तकों में हिंदू धर्म की तरह ईसाई, इस्लाम और यहूदी मतों पर भी अध्याय हैं। लेकिन हिंदू धर्म की तरह इनके साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है।
जिस तरह कैलिफोर्निया राज्य एजुकेशन बोर्ड ने मान्य कानून के तहत पाठ्यपुस्तकों में दुर्भावनावश प्रकाशित अंशों के संपादन के लिए सभी वर्गों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया, उसी तरह बोर्ड ने भी आठों प्रकाशकों से सुनवाई के आधार पर स्वीकृत संपादन करने और पाठ्यपुस्तकों में अपेक्षित संशोधन का आग्रह किया है। प्रकाशक जानते हैं कि अमेरिका में पुस्तकों का बड़ा व्यवसाय है, इसलिए वे कोई भूल करना नहीं चाहेंगे। असल में कैलिफोर्निया बोर्ड की ओर से स्वीकृत पुस्तकों को अक्षरश: अमेरिका के अन्य राज्य, संघीय इकाइयां व अमेरिका से प्रभावित देश, जिनमें अफ्रीकी देश शामिल हैं, अपनी पाठ्यपुस्तकों के रूप में स्वीकार करते हैं। अनुमान है कि ये पाठ्यपुस्तकें अगले साल जुलाई सत्र से संशोधित रूप में आ सकेंगी।
इस बीच, हिंदू एजुकेशन बोर्ड के प्रवक्ता संदीप देवगड़े और विजय सिम्हा ने एक वीडियो कांफ्रेंस के जरिये राज्य भर के हिंदू समुदाय से संयम बरतने का आग्रह किया है। साथ ही, उन्होंने आगाह किया है कि साउथ एशियन हिस्ट्री फॉर आॅल नामक छद्म समूह हताशा और निराशा में अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। हालांकि यह मुश्किल ही लगता है। उन्होंने कहा कि इस संग्राम में हम भले ही जीत गए हैं, लेकिन हमें प्रवासी भारतीय समुदाय में हिंदी, तेलुगु, तमिल और पंजाबी भाषियों को साथ लेकर चलने और उनमें जागरुकता लाने की जरूरत है। ल्ल
साउथ एशियन हिस्ट्री फॉर आॅल है एक छद्म समूह
दक्षिण एशियाई इतिहास बहुत समृद्ध है। भले ही दक्षिण एशिया में आज भारत के अलावा पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और मालदीव देश भी आते हैं। इन सभी देशों की अपनी महत्ता है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भारत और इसकी प्राचीन सभ्यता, सांस्कृतिक धरोहर को जाने-समझे बिना दक्षिण एशिया का इतिहास अधूरा है।
कैलिफोर्निया पाठ्यपुस्तक मामले में ‘साउथ एशियन हिस्ट्री फॉर आॅल’ नामक छद्म समूह ने कक्षा छह से आठ तक की पाठ्यपुस्तकों में दूसरे मत-पंथों के समान प्राचीन भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक मूल्यों व उसकी रूपरेखा अपनाए जाने के मामले में अंतिम क्षणों तक बाधाएं खड़ी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह छद्म समूह इसी एक बात को लेकर पीछे अड़ा रहा कि वंचित, सिख और मुसलमानों के इतिहास को नकारा जा रहा है।
इस समूह ने भारतीय इतिहास में हिंदुत्व के पूरे के पूरे अध्याय को ही बेकार ठहराने की कोशिश की, लेकिन यह अपनी बात के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाया। इस समूह को उस समय मुंह की खानी पड़ी जब हिंदू एजुकेशन काउंसिल की टीम ने अकाट्य तर्क दिया कि हिंदुत्व तो पुस्तक की मूल रूपरेखा का एक अंश है। जहां तक वर्ण व्यवस्था में निम्न जाति अथवा वंचित का सवाल आया तो हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन ने याद दिलाया कि पिछले साल ही सुनवाई के समय रूपरेखा में तथाकथित वंचित वर्ग से आने वाले संतों की मौजूदगी को स्वीकार कर लिया गया था।
सुनवाई के अंतिम दिन भी इस समूह के दो दर्जन लोगों ने दो बार प्रतिवेदन पढ़ने की कोशिश की, कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग के अधिकारियों के साथ बहस की और पूरे मामले को अदालत में घसीटने की धमकी दी। पता चला है कि इन लोगों में कथित तौर पर कुछ खालिस्तानी, ईसाई मिशनरी के प्रायोजित लोग थे, जो कैलिफोर्निया शिक्षा विभाग के पदाधिकारियों को विषय से भटकाना चाहते थे। सच यह है कि इनमें एक श्वेत अमेरिकी ने विभाग को गुमराह करने की भी कम कोशिश नहीं की। वहीं एक अफ्रीकी अमेरिकी महिला तो बोर्ड मुख्यालय में सैकड़ों लोगों के बीच जमीन पर ही पसर गई। इसके अलावा भी कुछ लोगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, लेकिन वे कोई दबाव बनाने में सफल नहीं हो सके।
आठ घंटे तक चली सुनवाई के बाद स्टेट बोर्ड आॅफ एजुकेशन ने इस छद्म समूह के किसी बहकावे में आए बिना एजेंडे के अनुरूप रूपरेखा को अंतिम रूप देने में महती भूमिका निभाई और हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन के करीब 600 प्रतिनिधियों के तर्कसम्मत प्रतिवेदन को स्वीकार करते हुए हिंदू फोबिया से ग्रस्त साउथ एशियन हिस्ट्री फॉर आॅल के सभी तर्कों को नकार दिया।
… इसलिए थी आपत्ति
अमेरिका में बसे भारतीयों की आपत्ति इस बात पर थी कि पाठ्यपुस्तकों में न केवल भारत के इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है, बल्कि हिंदू धर्म की भी गलत व्याख्या की गई है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं की चर्चा में हिंदुओं के योगदान को गायब कर दिया गया है। पुस्तकों में 30 से अधिक जगहों पर ‘हिंदू’ या ‘इंडिया’ को बदला गया है। पहले लिखा था, ‘इस अध्याय में छात्र प्राचीन भारतीय समाज के विषय में पढ़ेंगे’, किंतु इसे बदल कर ’इस अध्याय में छात्र दक्षिण एशिया के प्राचीन समाज के विषय में पढ़ेंगे’ कर दिया गया।
शिक्षा विभाग का तर्क था,‘इंडिया’ की जगह ‘दक्षिण एशिया’ इसलिए किया गया, क्योंकि जिन क्षेत्रों की चर्चा हुई है, उनमें से कुछ पाकिस्तान या दूसरे देशों में हैं और इनका आधुनिक भारत से कोई संबंध नहीं है। हिंदुत्व के संदर्भ में भी कुछ बदलाव किए गए हैं, क्योंकि प्राचीन भारत में हिंदुत्व एकमात्र धर्म नहीं था। हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन के वरिष्ठ निदेशक समीर कालरा के मुताबिक, इन बदलावों का दूरगामी असर पड़ेगा, जो प्राचीन भारतीय सभ्यता में हिंदुओं के महत्व को गलत रूप में पेश करेगा। लगता है केवल भारत एवं हिंदुत्व को लक्षित कर ये बदलाव किए गए। चीन की जगह ‘पूर्वी एशिया’ नहीं लिखा जाएगा, न ही इस्लाम, ईसाई, यहूदी, सिख या अन्य मतों के संदर्भ में ऐसा किया जाएगा। हिंदू धर्म में ‘वर्ण व्यवस्था’ को जोड़ा गया है, जबकि वाल्मीकि व व्यास के योगदानों को हटा दिया है।
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