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भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए राजा महेंद्र प्रताप ने काफी प्रयास किए और अपना पूरा जीवन लगा दिया
राजा महेंद्र प्रताप का जन्म अलीगढ़ जिले की मुरसान रियासत के राजा घनश्याम सिंह बहादुर के तीसरे बेटे के रूप में 1 दिसंबर, 1886 को हुआ था। वे तीन वर्ष के थे जब हाथरस के राजा हरनारायण सिंह साहिब ने उन्हें गोद लिया। उनका विवाह जींद की राजकुमारी, जबकि उनके भाई बलदेव सिंह का विवाह फरीदकोट की राजकुमारी से हुआ था। इस तरह पंजाब की तीन रियासतों- जींद, नाभा और पटियाला से उनका रिश्ता जुड़ा। तीनों रियासतें एक ही वंश परंपरा से निकली थीं।
राजा महेंद्र प्रताप ने 20 वर्ष की उम्र में ही लगभग पूरी दुनिया घूम ली थी। बाद में उन्होंने अधिकांश संपत्ति दान में दे दी या धर्मार्थ ट्रस्ट बना दिए। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के लिए भी उन्होंने काफी जमीन दी। साथ ही, तकनीकि एवं आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए वृंदावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। 1906 में उन्होंने कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया, लेकिन वहां से लौटने के बाद स्वदेशी के समर्थक बन गए और अपने विदेशी वस्त्रों को जला दिए।
एक बार देहरादून से वृंदावन जाते समय ट्रेन में पता चला कि यूरोप में युद्ध शुरू हो गया है। तभी उन्होंने जर्मनी की मदद से देश को अंग्रेजी राज से मुक्त कराने का निश्चय किया। स्वामी श्रद्धानंद के बड़े बेटे हरिश्चंद्र के साथ वे जर्मनी रवाना हो गए। जेनेवा में उनकी भेंट सरोजिनी नायडू के भाई एवं क्रांतिकारी वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय तथा क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई। दोनों ने जर्मनी के काउंसिल जनरल से राजा महेंद्र को मिलवाने में मदद की, जिसके जरिये वे बर्लिन गए। वहां उनकी भेंट लाला हरदयाल से हुई। जर्मनी के सम्राट कैसर विल्हेल्म से उनकी मुलाकात बहुत उपयोगी रही। सम्राट का मत था कि अगर अफगानिस्तान की ओर से कोई सैन्य कार्रवाई होती है तो पंजाब की रियासतें महत्वपूर्ण रणनीतिक भूमिका निभा सकती हैं। सम्राट ने उन्हें अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला के नाम पत्र भी दिया। साथ ही, जर्मनी में उन्हें ‘आॅर्डर आॅफ द रेड ईगल’ प्रदान करने के साथ जर्मन चांसलर बी. हॉलवेग ने भी उन्हें एक पत्र दिया, जिसमें ‘इम्पीरियल जर्मनी’ से सहयोग का वादा किया गया था। जर्मनी से अफगानिस्तान जाते समय विएना में उनकी भेंट मिस्र के शासक खेडीएवे से हुई और उन्होंने भी अंग्रेजों के विरुद्ध समर्थन व्यक्त किया। तुर्की के सुल्तान रिशाद ने भी अफगानिस्तान के अमीर के नाम पत्र दिया। साथ ही, तुर्की के प्रधानमंत्री ने भारत के कई रियासतों को पत्र भी लिखे।
लंबी यात्रा के बाद 2 अक्तूबर, 1915 को वे काबुल पहुंचे। हबीबुल्ला से भेंट के दौरान उन्होंने अफगानिस्तान की जेल में बंद भारतीयों को रिहा करने का आग्रह किया, जिसे अमीर ने मान लिया। इनमें दो सिख भी थे, जिन पर भारत में किसी बम कांड में मुकदमा चल रहा था और एक प्रमुख मुस्लिम नेता उबैदुल्लाह भी थे। राजा महेंद्र के प्रयासों से ही 1 दिसंबर, 1915 को भारत की प्रथम अस्थायी सरकार का गठन हुआ, जिसमें वे राष्ट्रपति, मौलाना बरकतुल्ला प्रधानमंत्री व मौलाना उबैदुल्लाह गृहमंत्री चुने गए। अफगानिस्तान ने न केवल इस सरकार को मान्यता दी, बल्कि इसके साथ संधि भी कर ली। इस पद पर रहते हुए राजा महेंद्र ने रूस के जार को सोने की प्लेट पर पत्र लिखा और मोहम्मद अली व शमशेर सिंह को तुर्किस्तान भेजा। 1917 तक हालात बदल चुके थे। अंग्रेजों से तुर्की हार चुका था और अफगानिस्तान के अमीर व शहजादे ब्रिटेन से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे। तब उन्होंने जर्मन चांसलर के पत्र के साथ विशेष दूत गुजर सिंह को नेपाल के महाराजा के पास भेजने का फैसला किया। गुजर सिंह गुपचुप भारत आए और कई राजाओं को पत्र लिखे। मार्च 1918 में पेत्रोग्राद में उनकी भेंट लेनिन के साथी ट्रोत्स्की से हुई, पर उसने कोई मदद नहीं की। देश की आजादी का सपना लिए राजा महेंद्र फिर जर्मनी के सम्राट से मिले और तुर्की, जर्मन, आॅस्ट्रिया, बुल्गारिया व रूसी सोशलिस्ट को मिलाकर इंटरनेशनल सोशलिस्ट आर्मी के गठन का सुझाव दिया। लेकिन यह सुझाव जर्मनी को स्वीकार्य नहीं हुआ। हालांकि जर्मनी की नई सरकार ने उन्हें आर्थिक सहायता दी, जिससे उन्होंने पुस्तकें व पर्चे छपवाए। राजा महेंद्र तुर्की, हंगरी होते हुए स्विट्जरलैंड गए, जहां उन्हें हबीबुल्ला की हत्या की खबर मिली। इस बीच अफगानिस्तान में अमानुल्ला की सरकार बन गई और उसने अंग्रेजों से युद्ध की घोषणा कर दी। राजा महेंद्र जहाज से सीधे युद्ध स्थल पर नो मेन्स लैंड पहुंचे, जहां दो रूसी सैनिकों ने उन्हें रोका और मॉस्को ले गए। मॉस्को में उनकी मुलाकात लेनिन से हुई, जिसने उन्हें अफगानिस्तान में सोवियत मिशन स्थापित करने का जिम्मा सौंपा। लेकिन अमानुल्ला के कहने पर उन्होंने सोवियत मिशन छोड़ दिया।
अमानुल्ला ने उन्हें जापान, सियाम (थाईलैंड), तिब्बत, चीन, अमेरिका, जर्मनी और तुर्की के शासकों के नाम पत्र देकर विदा किया। इस कड़ी में वे जापान के योकोहामा गए और वर्ल्ड फेडरेशन सेंटर फॉर जापान की स्थापना की। बाद में चीन की राजधानी पेकिंग पहुंचे तो पता चला कि ब्रिटिश अधिकारी उन्हें पकड़ने के लिए जी जान से जुटे थे। कुछ दोस्तों की सलाह पर वे मंगोलिया होते हुए मॉस्को, फिर काबुल से रूस होते हुए यूरोप और अमेरिका गए। न्यूयॉर्क में उनकी भेंट अश्वेत नेता मार्कस गार्वी से हुई। इसके बाद वे शिकागो होते हुए सैन फ्रांसिस्को गए और गदर पार्टी के मुख्यालय में रहे। गदर पार्टी से उन्हें भरपूर आर्थिक मदद के साथ सात स्वयंसेवक भी मिले। इनके साथ वे जापान गए और कुछ समय तक क्रांतिकारी रासबिहारी बोस के साथ रहे। अक्सर अमेरिका में कैलिफोर्निया स्थित गदर पार्टी का मुख्यालय उनका ठिकाना होता था, जबकि जापान में वे रासबिहारी बोस के घर पर ही रहते थे। राजा महेंद्र ने कई देशों में ‘वर्ल्ड फेडरेशन’ की स्थापना भी की। वे सैन फ्रांसिस्को से क्योटो और पेकिंग गए, जहां उनकी मुलाकात पंचेन लामा से हुई। यहां से वे साथियों के साथ तिब्बत गए। उनका उद्देश्य ब्रिटिश इंडिया की सीमाओं पर मित्र देशों की सैन्य चौकियां स्थापित करना था ताकि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा जा सके।
राजा महेंद्र ने भारत समर्थक व ब्रिटिश विरोधी देशों पर ही ध्यान केंद्रित रखा। इनमें नेपाल,तिब्बत व अफगानिस्तान प्रमुख थे। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद भी वे दुनिया घूमते रहे। उन देशों में कई बार गए, जहां से थोड़ा सा भी सहयोग मिल सकता था। अफगानिस्तान व तुर्की ने तो उन्हें अपनी नागरिकता भी दी थी। अफगानिस्तान का पासपोर्ट खासतौर से उनके बहुत काम आया। दुनिया घूमते हुए वे भारत सहित अन्य देशों के समाचारपत्रों में लेख भी लिखते रहे।
द्वित्तीय विश्वयुद्ध से तीन माह पहले मई-जून 1939 में उन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। उनकी कोशिश थी कि इटली, जर्मनी, जापान और सोवियत संघ युद्ध में भारत का साथ दे। उनका मानना था कि नेपाल, जापान और अफगानिस्तान यदि भारत का साथ दें व देश की कुछ रियासतें विद्रोह कर दें तो आजादी मिल जाएगी। उन्होंने चीन के केंटन में एशियाटिक आर्मी आॅफ वर्ल्ड फेडरेशन की स्थापना कर टोक्यो व चीन के डैरेन, त्सिंगताओ में भर्ती केंद्र बनाए। जापान के पूर्व संसद सदस्य जे. ईमासाते को इस आर्मी का निदेशक बनाया। जापान के कोबे में उन्होंने एग्जीक्यूटिव बोर्ड आॅफ इंडिया का भी गठन किया। स्वयं इसके अध्यक्ष बने, रासबिहारी बोस को उपाध्यक्ष और आनंद मोहन सहाय को मुख्य सचिव बनाया गया। इसका उद्देश्य भारत को अविलंब आजाद कराना था। उन्हें लगने लगा था कि 1915 में उन्होंने जो काम शुरू किया व जिसके लिए जर्मन सम्राट से मिले, तुर्की के सुल्तान, अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्लाह से मदद मांगी व काबुल में भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया, उसे पूरा करने का सही समय आ गया है। लिहाजा उन्होंने दिसंबर 1940 में कोबे में वालंटियर कोर का गठन किया व अप्रैल 1941 में शंघाई चले गए। वहां अपने भाषणों में कहा, ‘‘ब्रिटिश साम्राज्य मर रहा है। हम सब भारतीयों को छोटे-छोटे मतभेद भूल कर इस मौके का लाभ उठाना चाहिए। ब्रिटिश राज को उखाड़कर फेंकने के लिए एकजुट होना चाहिए।’’ शंघाई से वे पीकिंग गए, पर सेना पुलिस द्वारा रोके जाने पर टोक्यो चले गए। वहां मार्च 1942 में प्रवासी भारतीयों का सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का गठन किया, जिसका उद्देश्य स्वतंत्र भारत की स्थापना करना था। इसके लिए स्वतंत्र भारतीय सेना के गठन का भी फैसला लिया गया। इसी साल बैंकाक में भी एक सम्मेलन किया गया जिसमें जर्मनी से सुभाषचंद्र बोस को बुलाया गया और उन्हें इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का अध्यक्ष एवं इंडिया नेशनल आर्मी का कमांडर बनाया गया। 32 वर्ष के निर्वासन के बाद 1946 में राजा महेंद्र भारत लौटे। अक्तूबर 1968 में आजाद हिन्द फौज की रजत जयंती पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, देहरादून ने एक कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसके मुख्य अतिथि राजा महेंद्र प्रताप थे और इसकी अध्यक्षता आजाद हिन्द फौज के कर्नल प्रीतम सिंह ने की थी। प्रस्तुति : अनिल गुप्ता
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