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चीन को लेकर दुनिया के कड़वे अनुभव हैं। वह मौके तलाशता है लेकिन अब दुनिया उसे मौका नहीं देना चाहती। भारत आशा का केंद्र बनकर उभरा है। बीजिंग की महत्वाकांक्षाओं को दायरे में रखने में जुटे हैं नए गठजोड़
प्रशांत बाजपेई
वर्तमान कम्युनिस्ट चीन की रणनीतियों और तिकड़मों के बारे में लिखते-बोलते हुए प्राचीन चीन के दिग्गज सेनानायक सन जू (544 ईसा पूर्व) के सूक्तों को उद्धृत करना एक चलन सा बन चुका है। लेकिन चीन की सैन्य और भू-सामरिक योजनाओं को सन जू तो निश्चित रूप से नकार देते, क्योंकि उनका कहना है कि ‘अपने इरादों को छिपाओ।’ जबकि चीन की खुली महत्वाकांक्षाएं उसके खिलाफ दुनिया को लामबंद कर रही हैं। कह सकते हैं कि चीन का नेतृत्व सन जू से ज्यादा चंगेज खान को पढ़ रहा है।
विकल्प बनकर उभरा भारत
जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, दक्षिण चीन सागर के अन्य देश, आसियान समूह, और हिंद महासागर की सुरक्षा तथा एशिया प्रशांत क्षेत्र में मुक्त व्यापार को लेकर चिंतित यूरोपीय शक्तियां, सब असहज हो रहे हैं। ओबीओआर को लेकर रूस आशंकित है। हाल ही में अमेरिकी रक्षा सचिव जेम्स मैटिस ने साठ अरब डॉलर लागत वाली शी जिनपिंग की इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर भारत की आपत्ति का यह कहते हुए समर्थन किया है कि यह परियोजना विवादित क्षेत्र (पाक अधिक्रांत कश्मीर) से होकर गुजरती है। इसके पूर्व 18 नवंबर को अमेरिकी संसद में सांसदों को संबोधित करते हुए वहां के थिंकटैंक और चीनी मामलों के जानकार माइकल पिल्सबरी ने कहा,‘‘नरेंद्र मोदी दुनिया में अकेले नेता हैं, जो चीन के सामने तनकर खड़े हुए हैं। ओबीओआर को लेकर अमेरिका भी आशंकित है, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति (ओबामा और ट्रम्प) इस पर चुप रहते आए हैं, जबकि मोदी और उनकी टीम ने हमेशा खुलकर अपनी बात रखी है।’’ चीन की दूसरे देशों से मित्रता भी दुनिया में चर्चा का बाजार गर्म कर रही है। पाकिस्तान के आतंकियों को संयुक्त राष्ट्र में उपलब्ध चीनी ढाल को आतंकवाद से त्रस्त विश्व ज्यादा समय नजरअंदाज नहीं कर सकता। उधर, दुनिया किम जोंग के पीछे चीन की छाया देख रही है। भारत इन सबके लिए आशा का केंद्र बनकर उभरा है। 14 नवंबर को मनीला में मोदी और ट्रम्प मिले तो संयुक्त बयान में कहा गया कि दोनों महान लोकतन्त्रों के पास विश्व की दो सर्वाधिक शक्तिशाली सेनाएं भी होनी चाहिए। यह बड़ा अहम बयान है। विशेष बात यह है कि यह बयान देने के लिए ट्रम्प और मोदी ने तीसरे देश की जमीन और आसियान बैठक जैसे महत्वपूर्ण आयोजन को चुना, जिस पर सारी ‘दुनिया की निगाहें रहती हैं।’
आगे कहा गया कि भारत और अमेरिका अपने संबंधों को द्विपक्षीय स्तर से आगे ले जाएंगे, जिसका आशय है कि दोनों देश एशिया में भू-राजनैतिक और सामरिक समीकरणों को साधने के लिए साथ काम करेंगे। ट्रम्प के साथ बैठे मोदी ने बयान दिया कि दुनिया की और अमेरिका की हमसे अपेक्षाएं हैं और हम उन पर खरा उतरने की कोशिश करेंगे।
महासागरों के समीकरण
इसके पहले 12 नवंबर को भारत-अमेरिका-जापान और आॅस्ट्रेलिया ने दीर्घकाल से प्रस्तावित सुरक्षा चतुष्क की पहली औपचारिक बैठक की जिसमें मोदी, ट्रम्प और शिंजो आबे उपस्थित थे। हिंद महासागर और एशिया-प्रशांत महासागर क्षेत्र में चीनी आक्रामकता को नियंत्रित करने के लिए सबसे पहले जापानी प्रधानमंत्री आबे ने ही यह प्रस्ताव दिया था। आबे ने 2012 में कहा था, ‘मैं आह्वान करता हूं कि आॅस्ट्रेलिया, भारत, जापान तथा अमेरिका मिलकर हिंद महासागर से लेकर पश्चिमी प्रशांत महासागर तक के समुद्री क्षेत्र की सुरक्षा के लिए एक हीरक (चतुष्क) बनाएं।’ आॅस्ट्रेलिया भी इसमें जुड़ने का इच्छुक था। इस चतुष्क की औपचारिक शुरुआतसमूचे क्षेत्र के लिए शुभ संदेश है। चीन बेचैन है, परन्तु सामान्य दिखने की कोशिश कर रहा है। इस बैठक के बाद बीजिंग ने भोलापन दिखाते हुए इस चतुष्क से चीन के बाहर रहने के औचित्य पर सवाल उठाया, लेकिन किसी ने भी उसे उत्तर देने की आवश्यकता नहीं समझी। बीजिंग की ओर से आगे कहा गया कि उसे विश्वास है कि यह चतुष्क उसके खिलाफ नहीं है। पर सच को सब जानते हैं।
एशिया प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन से आशंकित देशों में जापान, अमेरिका, ताइवान, वियतनाम, दक्षिणी चीन सागर से संबंध रखने वाले राष्ट्रों से लेकर आसियान (दक्षिण पूर्व एशिया के देश) देश और आॅस्ट्रेलिया शामिल हैं। हिंद महासागर में यूरोपीय देश भी चीन की रंगदारी नहीं चलने देना चाहते। हिंद महासागर क्षेत्र सारे यूरोप और अमेरिका के लिए बेहद महत्व रखता है। यहां से मलक्का बाइपास से होकर उनका तेलमार्ग गुजरता है। दरअसल तेल निर्यातक ओपेक देशों की तेल राजनीति या ब्लैकमेलिंग का शिकार होने से बचने के लिए जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देश अपने तेल आयात का बड़ा हिस्सा रूस और इस क्षेत्र के दूसरे देशों से मंगवाते हैं। यह अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया का भी तेल मार्ग है। इस क्षेत्र में मलक्का और स्वेज के अलावा 30 नहर या बाइपास हैं। कई मिलियन व्यापारिक कंटेनर यहां से गुजरते हैं। हिंद महासागर में अपने तिकोने आकार के कारण 50 प्रतिशत महासागर भारत की भूमि से अधिकतम 1,500 किलोमीटर के अंदर है। अदन की खाड़ी से मलक्का बाइपास तक भारत का प्रभाव क्षेत्र है। भारत के पास डेढ़ लाख वर्ग किमी. में खनन का अधिकार है। इसलिए भारत की इस क्षेत्र में मजबूती और भारत के साथ गठजोड़ सभी के लिए मायने रखता है। इसलिए बीते समय में जापान-अमेरिका और भारत का संयुक्त नौसैनिक अभ्यास शुरू हुआ है। आॅस्ट्रेलिया भी इसमें जुड़ने का इच्छुक दिखाई दे रहा है।
चीन द्वारा अपनी नौसेना का लगातार विस्तार, दक्षिण चीन सागर में युद्ध की धमकियां और धौंसबाजी तथा हिंद महासागर में चीनी जहाजों की बढ़ती हलचल को अब अनदेखा नहीं किया जा रहा। भारत को दरकिनार करने निकले चीन ने अपनी हरकतों से उसके महत्व को पहले से कहीं अधिक बढ़ा दिया है। चीन के उलट भारत विश्वसनीय शांतिपूर्ण देश है। उसकी आर्थिक सैन्य शक्ति और संभावनाओं के साथ हिंद महासागर में भारत का पारम्परिक नौसैनिक दबदबा है। हिंद महासागर में भारत का जो तिकोना भूभाग है (मध्यभारत से लेकर केरल तक) नौसेना की भाषा में इसकी तुलना कभी न डूबने वाले विशाल जहाज से की जाती है। इस विशाल तिकोने आकार के कारण भारतीय वायुसेना के लड़ाकू जहाज-मिसाइलें पूरे हिंद महासागर में हमला करने में सक्षम हैं। जहाजों को आपूर्ति भी सुलभ है।
पिछले दरवाजे से दस्तक
इधर बीते 2-3 साल में भारत ने अपनी पहुंच एशिया प्रशांत क्षेत्र में बढ़ाई है। भारत 2016 में ही वियतनाम को अपनी बेजोड़ ब्रह्मोस मिसाइल बेचने का निर्णय कर चुका है, जो कि चीन के लिए सिरदर्द बन सकती है। भारत ने चीन की नाराजगी को दरकिनार करते हुए वियतनाम के साथ अति महत्वपूर्ण व्यापार व रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। इस तरह निरंतर आक्रामक रहे चीन का पिछला दरवाजा खटखटाना भारत का महत्वपूर्ण कदम है। भारत वियतनाम को 100 मिलियन डॉलर के नौसैनिक पोत व साजो-सामान भी बेच रहा है, बदले में वियतनाम ने भारत की पेट्रोकेमिकल कंपनी ओएनजीसी को दक्षिण चीन सागर में तेल की खुदाई के लिए आमंत्रित किया है।
इन इलाकों में चीन उसे खुदाई से रोकता रहा है।
भारत की इस पहल का उत्तर अमेरिका से आया जब वियतनाम में बोलते हुए ट्रम्प ने मोदी और भारत का जिक्र किया। एक दिन पहले चीन से आवभगत करवाकर निकले ट्रम्प की बोली चीन को बहुत अखरी। ट्रम्प ने कहा,‘‘सौ करोड़ से ज्यादा लोगों के साथ, भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह नयी संभावनाओं की जमीन है, और प्रधानमंत्री मोदी देश के सभी वर्गों को साथ लेकर काम कर रहे हैं, और बहुत सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं।’’ ट्रम्प ने बार-बार चीन की दुखती रग को छुआ। लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा,‘‘एशिया के स्वतंत्र और संप्रभु देशों के नागरिक अपने भाग्य का निर्माण स्वयं कर रहे हैं।
हर देश उभर रहा है। कोई किसी का पिछलग्गू नहीं है। आपका घर आपकी विरासत है, और आपको इसकी रक्षा करनी है।’’ चीन के आर्थिक आक्रमण और आक्रामक व्यापार नीति से घबराए देशों को संबोधित करते हुए ट्रम्प ने कहा,‘‘हम एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ परस्पर सम्मान और लाभ आधारित व्यापारिक-आर्थिक संबंध विकसित करना चाहते हैं। हम क्षेत्र में समृद्धि और सुरक्षा के लिए काम करना चाहते हैं।’’
चाबहार से ताजी हवा का झोंका
चाबहार से ताजी हवा का झोंका हाल ही में अफगानिस्तान पहुंचा, जिससे चीन के साथी पाकिस्तान का दम घुटने लगा और चीन ने भी नवंबर के महीने में गर्मी महसूस की। गुजरात के कांडला बंदरगाह से एक जहाज ढाई लाख टन गेंहू लेकर ईरान के चाबहार पहुंचा। वहां से उसे सड़क मार्ग द्वारा अफगानिस्तान पहुंचाया गया। अफगानिस्तान अब तक गेंहू के लिए पाकिस्तान पर निर्भर रहता आया था। अफगानिस्तान के पास समुद्री सीमा नहीं है। समुद्र तक पहुंचने के लिए उसे पाकिस्तान के कराची बंदरगाह का इस्तेमाल करना पड़ता था। पाकिस्तान उसकी इस मजबूरी का इस्तेमाल उस पर दबाव बनाने के लिए करता आया है। मोदी की चाबहार रणनीति से अफगानिस्तान को नया जीवन मिल गया है। जैसे ही भारत की यह सौगात अफगानिस्तान पहुंची, अफगानिस्तान का बयान आया कि अब से पाकिस्तान का कोई भी ट्रक अफगानिस्तान के अंदर प्रवेश नहीं कर सकेगा। चीन भी इससे परेशान है। पाकिस्तान के साथ मिलकर अफगानिस्तान की खनिज संपदा का दोहन करने के उसके सपने खटाई में पड़ते दिखने लगे हैं।
हर निगाह इस तरफ
नवंबर के तीसरे हफ्ते में भारत आए फ्रÞांस के रक्षा मंत्री ने कहा कि भारत-फ्रÞांस हिंद महासागर में सुरक्षा बढ़ाएंगे और आतंकवाद से मिलकर लड़ेंगे। दोनों ने हिंद महासागर क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग बढ़ाने पर सहमति जाहिर की है। फ्रÞांस के रक्षा मंत्री की यह यात्रा 2018 में होने जा रही फ्रÞांस के राष्ट्रपति की भारत यात्रा की पृष्ठभूमि में है। जर्मनी इस आशय के संकेत पहले ही दे चुका है। फ्रांस और जर्मनी बड़ी सैन्य ताकतें हैं। फ्रÞांस की नौसेना में 180 जहाज और 210 लड़ाकू यान हैं। जबकि उसकी वायुसेना में 547 लड़ाकू जहाज हैं। जर्मन वायु सेना में 467 युद्धक विमान हैं। चीन को लेकर दुनिया के कड़वे अनुभव हैं। वह मौके तलाशता है। 1962 में जब उसने भारत पर हमला किया तब क्यूबा मिसाइल संकट के चलते अमेरिका और रूस युद्ध के कगार पर थे। जब रूस-वियतनाम संबंध शिथिल हुए तो उसने वियतनाम की जॉनसन रीफ पर कब्जा कर लिया। 1995 में फिलिपींस ने अमेरिका को सुबिक खाड़ी से जाने को कहा तो चीन फिलिपींस पर चढ़ आया। अब कोई उसे मौका नहीं देना चाहता। इस लामबंदी से ड्रैगन पर निश्चित रूप से नकेल कस रही है।
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