इतिहास-दृष्टि -कामुक खिलजी और झूठे सेकुलर
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इतिहास-दृष्टि -कामुक खिलजी और झूठे सेकुलर

by
Dec 4, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Dec 2017 11:11:11


कुछ सेकुलर इतिहासकार अलाउद्दीन खिलजी को बहुत ही ‘उदार’ बताते हैं, लेकिन ऐसे इतिहासकारों की भी कमी नहीं है, जिन्होंने तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर उसे दुष्ट, घमंडी और कामुक कहा है

कपिल कुमार

भारत पर सिकंदर के समय से ही विदेशी आक्रमण होते रहे, परंतु यहां की संस्कृति की अभूतपूर्व सहनशीलता के कारण अंतिम जीत भारतीय संस्कृति की ही हुई। मिम्नाडर और डैम्मीटीरियस जैसे यूनानी राजाओं ने भी भारतीय मूल्यों को स्वीकार किया, लेकिन आठवीं शताब्दी में पश्चिमी एशिया से जिस मजहब का उद्भव हुआ, उस पर आधारित राजनीति का उद्देश्य कुछ और ही था। यह उद्देश्य केवल राजनीतिक प्रसार या लूटपाट तक ही सीमित नहीं था, वरन् तलवार के बल पर उस मजहब का प्रसार कर विश्वभर में अपना शासन स्थापित करना था। एक ऐसा शासन, जिसका आधार-बिन्दु इस्लाम था।

वह संपन्नता के नशे में चूर था। महत्वाकांक्षाएं और बड़े-बड़े उद्देश्य, जो उसकी पहुंच से दूर थे, एक कीड़े के तौर पर उसके दिमाग में जम गए थे और वह इस प्रकार की परिकल्पनाएं करता था जैसी कि पहले किसी भी राजा ने नहीं की थीं। अपनी इन बेवकूफियों के कारण वह अपना दिमागी संतुलन खो चुका था…वह गुस्सैल, अड़ियल और कठोर हृदय वाला था, दुनिया उस पर मुस्कुराती थी। क्योंकि वह अपनी योजनाओं में सफल हो जाता था, इसलिए वह दुष्ट और घमंडी हो गया था।
—जियाउद्दीन बर्नी, ‘तारीखे-फिरोजशाही’ के लेखक  

 
अफसोस की बात है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास का विश्लेषण करते हुए इस मानसिकता को दरकिनार कर दिया और तथाकथित सेकुलरवाद के पाश्चात्यवादी सिद्धांत को मानते हुए मध्यकाल में हुए इस्लामिक आक्रमणों को केवल लूटपाट या उस काल की राजनीति कहकर वास्तविक इतिहास को निरंतर दबाने का प्रयास किया। यहां तक कि 1989 में पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार ने ऐसे आदेश तक जारी कर दिए थे कि मुस्लिम शासकोें द्वारा किए गए अत्याचारों और मंदिरों के तोड़े जाने के इतिहास का न जिक्र किया जाए और न ही उसे पढ़ाया जाए। और तो और, अपने आपको प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकार बताने वालीं रोमिला थापर ने यहां तक लिख दिया कि ‘महमूद गजनवी ने तो कभी सोमनाथ पर आक्रमण ही नहीं किया था’, जबकि उसके काल का इतिहास स्वयं उन आक्रमणों की चर्चा करता है।
वर्तमान युवा पीढ़ी के सम्मुख इतिहास को तोड़-मरोड़ कर और वास्तविकताओं को दबाकर जो प्रस्तुति की गई, वह केवल एक राजनीतिक विचारधारा पर आधारित तुष्टीकरण की ऐसी नीति रही है जो राज्य में अपना आधिपत्य जमाने के लिए ‘फूट डालो- राज करो’ की नीति थी और वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर ‘पद्मावती’ फिल्म के समर्थक इसी मानसिकता से ग्रस्त हैं।
अब अलाउद्दीन खिलजी (1296-1306) की मानसिकता की बात। अपने को प्रगतिशील कहने वाले इतिहासकारों ने स्कूल और कॉलेज की पुस्तकों में खिलजी को एक ‘योग्य शासक और प्रबंधक’ के रूप में प्रस्तुत किया है जिसने साम्राज्य की सीमाओं का निरंतर विस्तार किया। यही नहीं, उसका गुणगान करते हुए ये इतिहासकार यहां तक लिखते हैं, ‘‘गुप्त काल के पश्चात अलाउद्दीन ने पहली बार भारत को एक ऐसी प्रशासनिक एकता प्रदान की जैसी मध्ययुगीन यातायात और परिवहन के उपलब्ध साधनों के अंतर्गत हो सकती थी।’’ (मोहम्मद हबीब और खलिक अहमद निजामी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहासकार, पुस्तक ‘दिल्ली सल्तनत’ (1206-1526), भाग-एक, मैकलिन इंडिया लि. 1978)
परंतु अलाउद्दीन की क्या मानसिकता थी, उसका चरित्र क्या था, और उसके हथकंडे क्या थे, इनकी चर्चाओं को बड़ी सफाई के साथ इतिहास के पठन-पाठन से दूर कर दिया गया। वास्तव में यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अलाउद्दीन का अवलोकन किया जाए तो वह एक मानसिक रोगी था और सत्ता हासिल करने का नशा उसके सिर पर सवार था। जियाउद्दीन बर्नी ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे फिरोजशाही’ में उसकी मानसिक दशा का जिक्र इस प्रकार किया है, ‘‘वह संपन्नता के नशे में चूर था। महत्वाकांक्षाएं और बड़े-बड़े उद्देश्य, जो उसकी पहुंच से भी दूर थे, एक कीड़े के तौर पर उसके दिमाग में जम गए थे और वह इस प्रकार की परिकल्पनाएं करता था जैसी कि पहले किसी भी राजा ने नहीं की थीं। अपनी इन बेवकूफियों के कारण वह अपना दिमाग खो चुका था…वह गुस्सैल, अड़ियल और कठोर हृदय वाला था, फिर भी दुनिया उस पर मुस्कुराती थी, क्योंकि वह अपनी योजनाओं में सफल हो जाता था इसलिए वह दुष्ट और घमंडी हो गया था।’’
अली गुरशास्प नाम का यह युवक दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी का भतीजा था और उसका निकाह जलालुद्दीन ने अपनी पुत्री के साथ किया था। यही नहीं, उसने उसे कड़ा सूबे का सूबेदार भी बना दिया था और यहीं से उसने मालवा के हिंदू राजाओं पर आक्रमण कर उनके नगरों को नष्ट करना तथा मंदिरों को तोड़ना और लूटना आरंभ किया। यहां यह बताना आवश्यक है कि उसका उद्देश्य केवल इन नगरों और मंदिरों की संपदा को लूटना ही नहीं था, जैसा कि अक्सर कुछ सेकुलर इतिहासकार मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में कहते हैं। वे इस बात को जान-बूझकर भुला देते हैं कि अगर उद्देश्य केवल लूटपाट होता तो फिर मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ा क्यों गया और मूर्तियों को पांवों तले रौंदने के लिए सीढ़ियों में क्यों चिनवाया गया या फिर ऐसे मंदिरों को भी क्यों नष्ट किया गया जहां कोई संपदा ही नहीं थी? वास्तव में मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने, हिंदुओं का कत्लेआम करने और उनको लूटने के कार्य उस मानसिकता से प्रेरित थे जिससे अलाउद्दीन खिलजी का मस्तिष्क ग्रस्त था। सुल्तान जलालुद्दीन ने उसके हर आलोचक का मुंह बंद करते हुए अलाउद्दीन को निरंतर पुरस्कृत किया और उसे अवध का भी सूबेदार बनाया गया। देवगिरी पर आक्रमण कर वहां के लूट-पाट और मंदिरों को नष्ट किया जाना उसका एक और कारनामा था। और नैतिकता के हर पहलू से दूर, अलाउद्दीन ने अपने चाचा और ससुर सुल्तान जलालुद्दीन तक की धोखे से हत्या कर सत्ता हासिल कर ली। अलाउद्दीन की क्रूरतम मानसिकता का इससे बड़ा और क्या उदाहरण दिया जा सकता है कि उसने ग्यासुद्दीन के सिर को धड़ से अलग कर भाले की नोक पर टंगवा दिया था। इस घटना पर मोहम्मद हबीब और खलिक अहमद निजÞामी (दिल्ली सल्तनत (1206-1526)  भाग-1, पृ़ 283) लिखते हैं, ‘‘यद्यपि, जलालुद्दीन की जघन्य हत्या की गई थी किंतु मुस्लिम राजतंत्र के विद्यार्थी को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ऐसे अपराध शताब्दियों पुरानी परंपराओं के नितांत अनुकूल थे और महत्वपूर्ण बात यह है कि उनसे यह सिद्ध नहीं होता कि षड्यंत्रकारी निश्चित रूप से किसी नैतिक चरित्रहीनता के अपराधी थे। अमीर खुसरो, जिसने अलाउद्दीन के समय में लिखा और इसामी, जिसने उस समय लिखा जब अलाउद्दीन का वंश नष्ट हो चुका था, अलाउद्दीन को एक ‘भाग्यशाली व्यक्ति’ कहते हैं। ऐसे दावे अतिसरलीकरण के दोष से युक्त होते हैं। आगामी वर्षों में अलाउद्दीन को यह गर्व था कि यद्यपि उसे किताबी ज्ञान नहीं था किंतु उसने एक ऐसे विद्यालय में शिक्षा पाई थी जिसका वास्तविक महत्व है अर्थात अनुभव की पाठशाला। वास्तव में नवीन और अप्रत्याशित स्थितियों से टकराकर उसमें शीघ्र ही वे योग्यताएं विकसित हो गर्इं जो मनुष्यों पर शासन करने के लिए आवश्यक होती हैं। अपना मस्तिष्क और संकल्पशक्ति दृढ़ करने के लिए (ऐसा हम विश्वसनीय स्रोतों में दी गई सूचना के आधार पर कहते हैं) उसे ‘खुदा पर अटल विश्वास था’ और वह निश्चित रूप से जानता था कि उसके सभी कार्य माफ कर दिए जाएंगे क्योंकि उसका वास्तविक ध्येय ईश्वर की जनता की सेवा करना था।’’
एक तरफ ये इतिहासकार कहते हैं कि उसका मस्तिष्क कट्टरताओं से मुक्त था और दूसरी तरफ यह भी कहते हैं कि ‘‘वह दावा करता था कि वह मुसलमान है और एक जन्मजात मुसलमान है।’’ यहां सवाल उठता है कि अगर वह कट्टरता से मुक्त था तो फिर मंदिर क्यों तोड़े? 1297 में अलाउद्दीन ने उल्लख खान और नुसरत खान से गुजरात पर हमला करवाया। इन दोनों ने सोमनाथ के मंदिर को भी तहस-नहस किया एवं वहां की मूर्ति को जीत के चिह्न के रूप में दिल्ली भेज दिया गया। न जाने कितनों को कत्ल किया गया। क्या यह केवल लूट थी? राजा कर्ण बुंदेला की पत्नी कमला देवी और उसकी पुत्री देवल देवी को दिल्ली भेज दिया गया, जहां अलाउद्दीन ने कमला देवी से जबरन शादी की और अपने पुत्र की शादी देवल देवी से की। लेकिन मोहम्मद हबीब और खलिक अहमद निजामी लिखते हैं, ‘‘उन्हें सम्मानपूर्वक दिल्ली ले जाया गया और अलाउद्दीन ने उसे अपने रनिवास में सम्मिलित कर लिया।’’ पूरे गुजरात को इन्होंने ध्वस्त कर दिया और यह आसानी समझा जा सकता है कि जब रानियों के साथ यह जबरन व्यवहार किया गया तो गुजरात की आम महिलाओं के साथ इन आक्रांताओं ने क्या व्यवहार किया होगा। गुजरात के शासकों की हार को ये इतिहासकार यह कहकर टाल देते हैं कि वहां का शासक जनता में अप्रिय हो गया था परंतु ये इसका कोई सबूत नहीं दे पाते। यदि ऐसा होता तो देवगिरी के शासक रामदेव की सहायता से राजा कर्ण बुंदेला दोबारा प्रतिष्ठित नहीं होता। मलिक गफूर को एक गुलाम के तौर पर गुजरात अभियान में ही खरीदा गया था और इस किन्नर के अलाउद्दीन से शारीरिक संबंध थे। यह बताते हुए इन इतिहासकारों को शर्म आती है।
गुजरात के इस अभियान के दौरान नव परिवर्तित मुसलमानों के विद्रोह पर बर्नी ने लिखा है, ‘‘इस दौरान विद्रोहियों की पत्नियों के साथ जिस तरीके का अपमानजनक व्यवहार किया गया, वह एक साधारण व्यक्ति में कंपकंपी पैदा कर देता है। बच्चों तक के टुकड़े करके उनकी माताओं के सिरों पर डाल दिए गए थे।’’ बर्नी आगे लिखते हैं कि इस प्रकार की सजाएं अलाउद्दीन के समय से ही प्रारंभ हुर्इं। वास्तव में सत्ता ने उसके दिमाग को इतना भ्रष्ट कर दिया था कि वह स्वयं को सिकंदर मानने लगा था और विश्व विजय के सपने देखने लगा था। यही नहीं, अत्यधिक शराब पीना और दावतें देना उसके लिए एक आम बात थी। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि चित्तौड़ पर आक्रमण से पहले जालौर और जैसलमेर पर भी खिलजी की सेना ने आक्रमण किए थे और दोनों ही जगहों पर वीरांगनों ने जौहर किया था। इस प्रकार ये वास्तविकताएं कथाओं के रूप में समस्त उत्तरी भारत में फैल चुकी थीं। इसी प्रकार रणथंभौर पर उसका आक्रमण और वहां हुआ कत्लेआम कौन नहीं जानता। जहां तक चित्तौड़ का सवाल है, बर्नी स्वयं लिखते हैं, ‘‘सुल्तान ने 30,000 हिंदुओं का कत्लेआम करवाया था और वहां का शासन अपने बेटे रिवज खान को दे दिया था परंतु सात साल उपरांत 1311 में राणा हमीर ने पुन: चित्तौड़ जीत लिया था।’’
रानी पद्मावती को लेकर चित्तौड़ के जौहर को जो लोग इतिहास से परे की घटना बताते हैं, उनके लिए मुझे बस इतना ही कहना है कि ऐतिहासिक कल्पना नाम की कोई चीज नहीं होती। या तो इतिहास होता है या कल्पना। अत: पैसा कमाने की खातिर स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के नाम पर काल्पनिक इतिहास बताकर जो फिल्में बनाई जाती हैं और खास तौर से जब वे स्त्री के मान, मर्यादा और एक धर्म के प्रति भावनाओं को आहत करती हैं तो यह चीज भी फिल्म बनाने वालों की विकृत मानसिकता को दर्शाती है।
यहां यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि मध्यकालीन इतिहास केवल उस समय के सरकारी इतिहासकारों के वृत्तांतों पर ही नहीं लिखा जा सकता। मौखिक इतिहास को आज विश्वभर में इतिहास लिखने का एक प्रबल स्रोत माना जाता है और भारत का इतिहास, विशेष तौर से राजस्थान के इतिहास लेखन में इस प्रकार के मौखिक स्रोतों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिनकी अवहेलना कोई भी निष्पक्ष इतिहासकार नहीं कर सकता। मुझे इस बात पर हंसी आती है कि जब इतिहासकार कहते हैं कि ‘मेवाड़ रासो’ तो बहुत बाद में लिखा गया या ‘नैनसी ख़ात’ इतने साल बाद लिखा गया। ऐसे इतिहासकारों के लिए मैं कहना चाहता हूं कि वे भी तो आज इतने साल बाद इतिहास लिख रहे हैं और उनकी निष्पक्षता इतिहास लेखन को लेकर कितनी है, यह इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि जब समुद्र के नीचे द्वारका की खुदाई प्रारंभ हुई तब ये तथाकथित इतिहासकार यह कहकर उसका विरोध कर रहे थे कि द्वारका मिथक है और यह खुदाई सरकारी पैसे की बर्बादी है। आज खुदाई के बाद इनके मुंह बंद हैं। जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बाबा के सपने के आधार पर खजाना ढूंढने को खुदाई करवाते हैं तब इनके मुंह से आवाज नहीं निकलती। ये इतिहास के नाम पर छेड़छाड़ करते हैं और अलाउद्दीन खिलजी के मलिक गफूर किन्नर से प्रेम प्रसंग की चर्चा तक नहीं करते। यह नहीं भूलना चाहिए कि खिलजी वंश का अंत भी एक किन्नर ने ही अपने प्रेमी खिलजी सुल्तान की हत्या कर खुद सुल्तान बनकर किया था। केवल अपनी राजनीतिक विचारधारा के आधार पर इतिहास लिखकर वर्तमान युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट करना अपराध है। ऐसे इतिहासकारों को आगामी पीढ़ियां कभी क्षमा नहीं करेंगी।  
(लेखक इग्नू में सेंटर फॉर फ्रीडम स्ट्रगल एंड डायस्पोरा स्टडीज के निदेशक हैं)

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