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बुंदेलखंड में कला-संस्कृति से जुड़े छोटे-बड़े पर्यटन स्थलों की भरमार है। न केवल यहां की वास्तु-स्थापत्य कला, बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य भी बेजोड़ है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बंटे इस सांस्कृतिक भौगोलिक क्षेत्र में बिखरी धरोहर इसके समृद्ध अतीत को बयां करती है
अयोध्या प्रसाद गुप्त ‘कुमुद’
कला-संस्कृति से जुड़े पर्यटन के लिए बुंदेलखंड स्वर्ग के समान है, जहां आदिमानव द्वारा चित्रित शैलाश्रयों से लेकर सभी युगों की वास्तुकला और अन्य ललित कलाएं आकर्षण का केंद्र हैं। विश्व विरासत के तहत संरक्षित वैश्विक गांव ‘ओरछा’, जीवंत मूर्तियों का कलात्मक खजाना विश्व विरासत खजुराहो, श्रीराम का वनवासी क्षेत्र चित्रकूट, जैन तीर्थंकरों की तपस्थली सोनागिरि, ललितपुर, देवगढ़ व टीकमगढ़ जिले से सटे जैन तीर्थ भी प्रमुख पर्यटन स्थल हैं।
आज जिस पद्मावती के जौहर की चर्चा है, उस जैसे अनेक जौहर बुंदेलखंड की धरती ने देखे हैं। इनमें चंदेरी की जौहर तलैया, गढ़कुंंडार में वीरांगना ‘केशरदे’ का जौहर कुंड तथा कालपी में रानी लोधा का जौहर स्थल ‘सतमठिया’ (प्राचीन सूर्य मंदिर क्षेत्र) चर्चित हैं। रतनगढ़ की बेटी कुंवर मांडूला ने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए पहाड़ की चोटी से कूदकर जान दे दी थी। वहीं, उसके भाई तथा सैकड़ों वीर जवानों की उत्सर्ग स्थली श्रद्धा का केंद्र है। यहां विज्ञान को चुनौती देने वाला ‘सर्पदंश से मुक्ति का मेला’ भी लगता है। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में बंटा बुंदेलखंड का यह क्षेत्र एक सांस्कृतिक भौगोलिक क्षेत्र है। बुंदेलखंड के प्रमुख स्थलों को चार परिपथों में बांटा जा सकता है। पहला, झांसी-खजुराहो मार्ग, दूसरा खजुराहो से कालिंजर व सतना होकर चित्रकूट, तीसरा झांसी से ललितपुर-देवगढ़, एरण-सागर, अजयगढ़ पन्ना चौथा झांसी से दतिया व का हो सकता है। चौथे परिपथ को बढ़ाकर दतिया से लहार, आलमपुर, पंचनदा होकर कालपी तक किया जा सकता है। हालांकि बुंदेलखंड दर्शन का प्रमुख परिपथ झांसी-खजुराहो मार्ग है। सड़क मार्ग से सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल मिलते हैं। पर्यटक बस या ट्रेन से ओरछा से सीधे खजुराहो जा सकते हैं। झांसी से करीब 12 किमी दूर ओरछा तिराहा है, जहां से कुछ आगे वैभवशाली ओरछा नगर है जो बुंदेल राजाओं की तीसरी राजधानी और कला-संस्कृति का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। हालांकि इससे पहले ही सातार पड़ता है। सातार नदी के किनारे क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की गुप्त प्रवास स्थली है, जहां उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों शचींद्रनाथ बख्शी, डॉ. भगवान दास माहौर, शिवराम मल्कापुरकर, रामप्रसाद बिस्मिल आदि के साथ बम निर्माण व परीक्षण केंद्र बनाया था। भुसावल बम कांड तथा काकोरी कांड की योजना भी यहीं बनी थी।
इसके बाद है वैश्विक गांव ‘ओरछा’, जहां से बेतवा नदी गुजरती है। नदी के दूसरे किनारे ऊंचाई पर जहांगीर महल है, जिसे मुगल शासक जहांगीर की याद में यहां के राजा वीरसिंह जूदेव ने बनवाया था। ‘बुंदेली स्थापत्य’ का यह अद्भुत नमूना कभी ओरछा नरेश का महल था और राजा-रानी इसके एक झरोखे से नदी के दूसरी तरफ बने चतुर्भुज मंदिर में विराजमान मूर्ति के दर्शन किया करते थे। मंदिर निर्माण में प्रकाश संयोजन का कौशल दर्शनीय है। यह महल उस समय कला-संस्कृति का केंद्र था, जो ‘ओरछा के अखारा’ नाम से चर्चित हुआ। चतुर्भुज मंदिर के पास आवासीय महलनुमा एक मंदिर है— ‘रामराजा मंदिर’। इसमें रानी गनेशकुंवर ने रामलला को अयोध्या से लाकर स्थापित किया था। हालांकि रामलला के लिए चतुर्भुज मंदिर बनाया जा रहा था, लेकिन रामराजा मंदिर में रामलला के स्थापित होने के कारण यह मूर्ति विहीन रह गया। रानी महल में पूरे राजकीय सम्मान के साथ रामलला का जागरण कराया जाता है और उनके दरबार में बैठने व उठने पर बंदूकों की सलामी दी जाती है। दरबार, भोजन तथा विश्राम का समय राजकीय पद्धति से चलता है। चूंकि ओरछा में राम राजा हैं, इसलिए यहां किसी अन्य को सलामी नहीं दी जाती, चाहे वे राज्यपाल या मुख्यमंत्री ही क्यों न हों।
ओरछा में रामराजा के दो महत्वपूर्ण उत्सव एवं मेले होते हैं— राम जन्मोत्सव (चैत्र शुक्ल नवमी) व राम विवाह उत्सव (अगहन शुक्ल पंचमी)। इसके अलावा यहां शीश महल (जहांगीर महल का होटल वाला हिस्सा), लक्ष्मी मंदिर, हरदौल चबूतरा, छारद्वारी हनुमान मंदिर, पालकी महल, प्रवीणराय महल, केशव कुटीर तथा बेतवा तटीय राजाओं की छतरियां (समाधियां) भी हैं। साथ ही, करीब 44 एकड़ में फैला अभयारण्य, रामकथा संग्रहालय भी है। ओरछा तिराहा से थोड़ा आगे निवाड़ी तिगैला है, जहां से करीब 15 किमी दूर ‘कुंडार’ गांव है। यहां पहाड़ी पर गढ़कुंडार दुर्ग है जो सामरिक, वास्तुशिल्प और भूलभूलैया मार्ग के लिहाज से अहम है। इस किले को खंगार क्षत्रियों ने बनवाया था। उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा ने इसी किले की पृष्ठभूमि पर आधारित ‘गढ़कुडार’ नाम से उपन्यास लिखा। पहाड़ियों से घिरे इस दुर्ग का स्थान इस तरह से तय किया गया है कि यहां पहुंचने वाले भ्रमित हो जाते हैं। इसकी खासियत यह है कि दूर से देखने पर यह भव्य किला दिखता है, पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, किला दृष्टि से ओझल होता जाता है व पहाड़ियां दिखने लगती हैं। पर्यटकों को पहाड़ियों पर छोटी-सी सैन्य गढ़ी दिखती है जिससे वे भ्रम में पड़ जाते हैं, लेकिन आगे बढ़ते रहने पर पुन: भव्य किला दिखाई देता है। इस आठ मंजिला इमारत में रनिवास, बड़े-बड़े आंगन व एक बावड़ी है। बावड़ी के पास जौहर स्थल सतीचैरा व सती स्तंभ है, जो खंडित है। इस गढ़ी का विशाल द्वार ‘ड्योढ़ी दरवाजा’ कहलाता है। इसी मार्ग पर झांसी से 15 किमी दूर ‘जराय मठ’ है। यह चंदेलकालीन मूर्तिकला का अद्भुत चित्रित मंदिर है। इससे 2-3 किमी आगे ‘बरवासागर’ तथा ‘घुघुवा मठ’ है। दोनों स्थानों पर अनेक भग्न अलंकृत शिलाखंड व सरोवर इस क्षेत्र के प्राचीन वैभव के प्रमाण हैं। प्रख्यात पुरातत्ववेत्ता प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी जराय मठ को चंदेलकालीन शिव-पार्वती मंदिर, जबकि राजकीय संग्रहालय के पूर्व निदेशक डॉ. एसडी त्रिवेदी देवी मंदिर मानते हैं। वहीं, गांव के लोग इसे सूर्य मंदिर कहते हैं।
पंचायतन शैली पर बने इस मंदिर में उकेरी गई मूर्तियां पत्थर पर रत्नों जैसी जड़ी दिखती हैं। संभवत: इसलिए यह पहले ‘जड़ाऊ मठ’, ‘जराऊ मठ’ व अब ‘जराय मठ’ कहलाने लगा है। पंचायतन शैली के तहत केंद्रीय मंदिर के बाहर चारों कोनों पर चार मंदिर बनाए जाते हैं। दक्षिण के दो कोनों पर उपमंदिर तो शेष हैं, लेकिन दो नष्ट हो गए हैं। मुख्य मंदिर पूर्वाभिमुखी है, जिसके गर्भगृह के आगे खुला मंदिर था जो नष्ट हो गया। गर्भगृह के ऊपर शिखर शैली के क्षिप्त-वितान का सुंदर संयोजन है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर अलंकृत मूर्तियां उकेरी गई हैं। पूर्व की ओर बना द्वार पूर्णरूपेण अलंकृत है। नीचे की पंक्ति में अष्ट दिग्पाल उत्कीर्ण हैं। द्वार पर दोनों ओर मच्छप व कच्छप पर आरूढ़ गंगा-यमुना की मूर्तियां हैं, जबकि मंदिर के ऊपरी भाग में पद्म के नीचे कलश तथा पार्श्व में मिथुन मूर्तियां अंकित हैं। अधिकांश मूर्तियां खंडित हैं।
जराय मठ से 5 किमी आगे बरवासागर है। आस्था की दृष्टि से कैलाश पर्वत पहाड़ी पर शिव मंदिर, किले के निकट लक्ष्मी मंदिर, बाजार में चतुर्भुज मंदिर, रघुनाथ मंदिर, भाऊ मंदिर हैं, किन्तु सबसे आकर्षक राजमार्ग पर ही बना ‘स्वर्गाश्रम’ तथा प्रपात है। प्रपात के ऊपरी हिस्से में लगभग 300 वर्ष पूर्व बुंदेली शासकों द्वारा निर्मित सैकड़ों एकड़ में फैला तालाब है, जो कलात्मक पक्के सीढ़ीदार घाटों के कारण दर्शनीय है। इसी से निकला प्रपात वर्ष भर अपनी प्राकृतिक छटा बिखेरता है। यहां का दुर्ग ब्रिटिश काल में अधिकारियों का विश्राम गृह था, जिसे वे बुंदेलखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी कहते थे और इसकी तुलना कश्मीर से किया करते थे।
इसी परिपथ पर विश्व विरासत का दर्जा प्राप्त खजुराहो है। माना जाता है कि इस क्षेत्र में कभी 80 मंदिर थे, लेकिन अब 25 ही बचे हैं। इनका निर्माण 9वीं से 12वीं सदी के बीच हुआ था। मंदिरों पर उकेरी गई प्रतिमाओं में कामसूत्रों की व्याख्या से लेकर आध्यात्मिकता का संदेश निहित है। 1998-99 में खजुराहो के निकट जटकरी गांव में एक टीले की खुदाई से बीजामंडल के शिव मंदिर का पता चला जो काफी ऊंची जगाती पर बना है। सुविधा की दृष्टि से यहां के मंदिरों को तीन समूहों में बांटा जा सकता है। पश्चिमी समूह में कंदरिया महादेव, लक्ष्मण मंदिर, विश्वनाथ मंदिर, जगदंबा और चित्रगुप्त मंदिर विशाल हैं, जबकि चौंसठ योगिनी, लालगुआं महादेव, मातंगेश्वर, नंदी, पार्वती, वराह व महादेव छोटे मंदिर हैं। ये सभी स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। सभी मंदिर वैष्णव, शाक्त, शैव व सौर संप्रदाय के हिंदू मंदिर हैं। पूर्वी समूह में हिंदू मंदिरों में ब्रह्मा, वामन व जवारी हैं, जबकि जैन मंदिरों में घंटाई आदिनाथ व पार्श्वनाथ हैं। दक्षिण समूह में दूलादेव व चतुर्भुज हिंदू मंदिर हैं। इनमें हिन्दू मंदिर हैं। इन मंदिरों में सबसे प्राचीन लक्ष्मण मंदिर है, जिसमें मूलत: विष्णु की मूर्ति प्रतिष्ठित थी।
पर्यटक खजुराहो से महोबा व चरखारी भी जा सकते हैं, जहां के विशाल चंदेलकालीन तालाब जल प्रणाली की दृष्टि से आज भी प्रासंगिक हैं। यहां गुरु गोरखनाथ का साधना स्थल ‘गोरखगिरि’ है। यहां तांडव करते शिव की गजांतक प्रतिमा है जो एक पहाड़ को काटकर बनाई गई थी। महोबा से ‘सिंहनाद अवलोकितेश्वर’ की भव्य प्रतिमा मिली थी जिसे भारत की विश्वविख्यात कला विरासत माना जाता है। खजुराहो से बांदा होकर कालिंजर पहुंचते हैं जो भगवान शिव का स्थान है। इसे संसार का सबसे प्राचीन स्थल माना जाता है। यहां मानव सभ्यता व कला संस्कृति का क्रमिक विकास दर्शनीय तो है ही, पुरापाषाण काल, गुप्त काल, चंदेल काल के पुरावशेष भी बहुतायत में हैं। यहां की वास्तुकला शास्त्र आधारित है जो भवन, निवास स्थल, देवालय, राजप्रासाद, दुर्ग, जलाशय और मूर्तियों में देखी जा सकती है। प्रसिद्ध नीलकंठ मंदिर के अंदर का भाग तथा मूर्तियां गुप्तकालीन वास्तु पर आधारित हैं। मुख मंडप, महामंडप, कक्षासन तथा वातावन गुर्जर प्रतिहार शैली, जबकि गर्भगृह, मंडप व अर्द्धमंडप चंदेल शैली पर आधारित हैं।
कालिंजर दुर्ग का उल्लेख वेद-पुराणों में भी मिलता है। कनिंघम के अनुसार, इसका निर्माण ईसा की प्रथम शताब्दी में हुआ। यह दुर्ग अत्यंत विस्तृत तथा अभेद्य माना जाता है। इसकी लंबाई पूर्व से पश्चिम करीब डेढ़ किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण एक किलोमीटर है। संपूर्ण कालिंजर नगर परकोटे से घिरा हुआ था तथा इसमें प्रवेश के लिए उत्तर-दक्षिण में दो द्वार थे। दूर जाने के लिए सात दरवाजे थे जो आलमगीरी दरवाजा, चंडी या चैबुर्जी दरवाजा, बुधभद्र दरवाजा, लाल दरवाजा तथा बड़ा दरवाजा के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये सात दरवाजे सूर्य उपासना के प्रतीक माने जाते हैं। इसके अंदर प्रसिद्ध नीलकंठ मंदिर गुफा के अंदर बनाया गया है। यह गुफा पर्वत काटकर बनाई गई है। इसके मंडप में कभी महानर्तकी की नृत्यशाला भी थी। इस मंदिर से सम्बंधित अधिकांश मूर्तियां शैव संप्रदाय की हैं। अधिकांश मूर्तियां चंदेलकालीन प्रतीत होती हैं। कालिंजर में दर्जनों प्रसिद्ध जलाशय हैं। चंदेल शासकों द्वारा निर्मित ये जलाशय दो प्रकार के हैं— नैसर्गिक व मानव निर्मित। नैसर्गिक तालाबों में दुर्ग के नीचे सुरसरि गंगा, दुर्ग के ऊपर सरावाह गंगा, पाताल गंगा, पांडु कुंड, मृगधारा, मकाल ताल व खंभौर ताल हैं। दूसरी कोटि में दुर्ग के ऊपर कोटि तीर्थ, बुड्ढ़ा-बुढ़िया ताल, रामकटोरा ताल, शनिचरी तलैया तथा अनेक प्रकार के कुएं हैं। नीचे बेलाताल, गोपाल ताल, कई बीहड़ तथा सरोवर हैं। ये प्राचीन काल में नगर की जलापूर्ति के साधन थे। कालिंजर से चित्रकूट के मार्ग में सतना में मां शारदा देवी सिद्ध पीठ है, जहां कई मुस्लिम संगीतकारों ने सिद्धियां हासिल की हैं। मान्यता है कि आल्हा आज भी यहां प्रतिदिन रात्रि में पूजा करने तथा पुष्प चढ़ाने आते हैं। यहां से रीवा मार्ग पर करीब 15 कि.मी. आगे सज्जनपुर गांव से एक किमी दक्षिण में ‘तुलसी तीर्थ रामवन’ है। इसके विशाल प्रवेश द्वार पर सरस्वती (वाणी) तथा गणेश (विनायक) की अद्भुत मूर्तियां हैं जो रामचरितमानस के मंगलाचरण ‘वणार्नामर्थ संघानां रसानां छन्नदसामपि, मंगलानाम च कर्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ’ का स्मरण दिलाती हैं। तीर्थ के अंदर रामकथा तथा कृष्णकथा से जुड़ी सुंदर मूर्तियां हैं। यहां संग्रहालय में अनेक पुरावशेष तथा पांडुलिपियां संरक्षित हैं।
सतना से चित्रकूट पहुंच उस सुरम्य पर्वतीय क्षेत्र का आनंद लिया जा सकता है जहां श्रीराम ने वनवास के साढ़े बारह वर्ष बिताए। उन्हें मनाने भरत यहीं आए थे। कामदगिरि की परिक्रमा को मनोकामना पूर्ण करने वाला माना जाता है। इसी के पूर्व में रामघाट है, जहां गोस्वामी तुलसीदास की कुटिया है। मान्यता है कि गोस्वामी जी को इसी घाट पर श्रीराम के दर्शन हुए थे। यहां प्रतिदिन शाम को मंदाकिनी आरती भी होती है। पास ही एक ऊंचे टीले पर ब्रह्मा द्वारा नियुक्त क्षेत्रपाल श्री मत्गयेंद्रनाथ का मंदिर है। वे शिवावतार हैं तथा नाथ संप्रदाय के आदि पुरुषों में से एक माने जाते हैं। श्रीराम ने चित्रकूट में रहने के लिए पंचकुटी बनाने से पहले उनसे अनुमति मांगने के लिए पूजा-अर्चना की थी। इसके अलावा श्रीराम से जुड़े स्थलों में अत्रि-अनुसूया आश्रम, स्फटिक शिला, जानकी कुंड, प्रमोद वन, भरत मिलाप स्थल, सीता रसोई, भरत कूप आदि हैं। प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से ‘गुप्त गोदावरी’ संसार के दुर्लभ पर्यटन स्थलों में है। यहां दो गुफाएं हैं। ऊपर की गुफा में देवी तथा ऋषियों की मूर्तियां हैं तथा नीचे की गुफा में अज्ञात स्रोत से जलधारा प्रवाहित होती है। जनश्रुति के अनुसार श्रीराम की सेवार्थ गोदावरी यहीं गुप्त रूप से प्रकट हुई थीं, तब से अब तक निरंतर जल प्रवाहित हो रहा है। इस जल में घुटनों तक पानी का स्पर्श करते हुए कुछ दूर तक जाना, ऊबड़-खाबड़ पत्थरों पर चलना विशेष रोमांचकारी है। पहले गुफा में अंधेरा रहता था, अब शासन ने विद्युत व्यवस्था कर दी है। अन्य दर्शनीय स्थलों में हनुमान धारा, देवांगना, कोटितीर्थ, कुलदेवी (वनदेवी) मंदिर चर्चित हैं। मंदिर-मूर्तियों का भंजन करने वाले बादशाह औरंगजेब ने यहां बालाजी मंदिर का निर्माण कराकर अपने कुत्यों का प्रायश्चित किया था। चित्रकूट से कुछ दूरी पर मांडव आश्रम (मड़फा) है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस कुंड में स्नान करने से कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल जाती है।
अगला परिपथ झांसी और इसके आसपास का हो सकता है। इनमें झांसी का किला, लक्ष्मीबाई पार्क, महाराज गंगाधर राव की छतरी, काली मंदिर एवं मुरलीमनोहर मंदिर हैं जहां रानी लक्ष्मीबाई प्रतिदिन दर्शनार्थ जाती थीं। ‘बड़ा गणेश मंदिर’ में राजा गंगाधर राव के साथ मनु का विवाह हुआ था और यहीं वे रानी लक्ष्मीबाई घोषित की गई थीं। जैन धर्म के तीर्थ करगुवां जी में सांवलिया पार्श्वनाथ मंदिर भी दर्शनीय है, जिसका भव्य प्रवेश द्वार राजमार्ग पर ही है। झांसी के पास ही चिरगांव राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जन्मस्थली है। झांसी से करीब 28 किमी दूर दतिया-ग्वालियर राजमार्ग पर प्राचीनतम सूर्य मंदिरों में एक ‘उन्नाव बालाजी का सूर्य मंदिर’ है। इसके लिए झांसी-उन्नाव मार्ग से जाना होगा। यह मंदिर उस समय का है, जब मूर्तिकला का विकास नहीं हुआ था। यहां सूर्य एक चक्र के रूप में शिला पर स्थित है। पहूज नदी विशाल मंदिर के पैर पखारती है। मंदिर के अंदर पहुंचने के लिए अनेक परकोटे हैं। मान्यता है कि यहां स्नान करने से कुष्ठ रोग दूर हो जाता है। यहां रंगपंचमी व रथयात्रा के मेले चर्चित हैं। झांसी-दतिया मार्ग पर ‘गुर्जरा’ गांव में विशाल पत्थर पर सम्राट अशोक का शिलालेख है। विशाल परकोटे में घिरी दतिया नगरी, पीतांबरा देवी की नगरी है जिसे बगुला देवी की सिद्ध ‘पीतांबरा-पीठ’ की मान्यता प्राप्त है। स्थानीय जन इसे ‘वनखंडी देवी’ कहते हैं, क्योंकि कभी यह मंदिर नगर के बाहर निर्जन वन में था। अब यह शहर के बीच में आ गया है। यहां का ‘सतखंडा महल’ बुंदेली स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
अन्य दर्शनीय स्थानों में पुराना महल, मुड़िया महल, बैसन की हवेली है। दतिया-ग्वालियर राजमार्ग पर प्रसिद्ध जैन तीर्थ श्रमण-गिरि (सोनागिरि) है। इसी मार्ग पर डबरा से 20 किमी दूर प्राचीन ‘पद्मावती’ नगरी है, जो सिंध और पार्वती नदी के संगम पर स्थित है। यह नाग एवं भारशिव राजाओं की तीन राजधानियों में से एक बताई जाती है। अब उनके दुर्ग के मात्र भग्नावशेष ही बचे हैं। विष्णु मंदिर एवं धूमेश्वर मंदिर प्राचीन हैं जिनका पुरातात्विक तथा स्थापत्य की दृष्टि से विशेष महत्व है। पद्मावती को अब पवायां नाम से जाना जाता है। यहां से करीब 3-4 किमी दूर सिंध और महुवा नदी के संगम पर एक विशाल चबूतरे पर शिवलिंग है। महाकवि भवभूति ने ‘मालती माधव’ में इसे ‘सुवर्ण बिन्दु शिवलिंग’ कहा है।
बुंदेलखंड को बारीकी से देखने के इच्छुक लोग पद्मावती से रावतपुरा सरकार भी जा सकते हैं, जो नए आध्यात्मिक केंद्र के तौर पर विकसित हुआ है। रास्ते में लहार के पास आलमपुर नामक कस्बा है, जहां एक युद्ध में मालवा नरेश मल्हार राव होल्कर की मृत्यु हुई थी। उनकी छतरी को मिनी ताजमहल कहा जाता है। इसकी मेहराबें, नक्काशी युक्त जालियां, फव्वारों की कतारें आश्चर्यजनक हैं। दतिया से सेवढ़ा के पास सिंध नदी के किनारे रतनगढ़ में ‘सर्प-विष के शमन’ का चर्चित मेला लगता है। इस क्षेत्र में शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास तथा स्वामी प्राणनाथ ने तपस्या की थी। यहां से पंचनदा पहुंचा जा सकता है, जहां पांच नदियों सिंध, चंबल, क्वांरी, पहुज और यमुना का संगम होता है। एक यात्रा परिपथ खासकर जैन तीर्थों के लिए झांसी से ललितपुर-देवगढ़-टीकमगढ़ से सटे क्षेत्रों का बनाया जा सकता है। इस परिपथ को सागर तथा एरण देखकर अजयगढ़ पन्ना तक बढ़ाया जा सकता है। एरण में ताम्रयुगीन सभ्यता का केन्द्र है तथा सागर देश में निष्पादन कथाओं का, जहां छोटे शहर में सौ से अधिक बुंदेली लोकथाओं के प्रदर्शनी को संस्थाओं ने कलादर्शन के क्षेत्र में आगे बढ़ाया है। अजयगढ़ का दुर्ग-स्थापत्य चर्चित है। अजयगढ़-पन्ना के बीच की सुरभ्य घाटियों का पर्यटकीय आनंद है तो पन्ना को बुंदेलखंड में ‘मंदिरों का नगर’ कहा जाता है, सौ से अधिक मंदिर विभिन्न धर्म संप्रदाय के हैं। यदि इसे विदिशा तक बढ़ा दिया जाए तो विश्व प्रसिद्ध सांची स्तूप को भी देखा जा सकता है चांदपुर तथा दुधई में भी जैन स्थापत्य की भरमार है। बुंदेलखंड सिर्फ पर्यटन ही नहीं, मेला-उत्सवों, ऐतिहासिक रामलीलाओं के लिए भी जाना जाता है। कोंच की रामलीला को यूनेस्को ने संरक्षित विश्व विरासत में शामिल किया है। इसके अलावा, बुंदेलखंड का हस्तशिल्प, स्मृति मॉडल, मिठाइयां तथा प्रदर्शनकारी कलाएं भी कम नहीं हैं।
(लेखक संस्कार भारती में अखिल भारतीय
लोक कला संयोजक हैं)
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