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चित्तौड़गढ़ का किला भारत का एक मात्र ऐसा दुर्ग है जो शौर्य, समर्पण, बलिदान, भक्ति और देशप्रेम की सारी भावनाओं को अपनी गाथाओं के माध्यम से साक्षात् प्रस्तुत करता है। भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्रों में चित्तौड़ का नाम अमिट रहेगा
बलिदान का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करने में मेवाड़ के चित्तौड़गढ़ का नाम सबसे ऊपर आता है। इस किले की एक-एक दीवार, महल, परकोटे और रास्ते आज भी वीरता के वे किस्से सुनाते प्रतीत होते हैं जिन्होंने मेवाड़ का नाम सदा-सदा के लिए इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया। यह किला वास्तव में भारत मां के उस सांस्कृतिक तीर्थ की तरह है जो सदियों तक अपने शौर्य के किस्से सुनाता रहेगा। चित्तौड़ और उसकी बलिदानी शृंखला में सर्वप्रथम नाम लिया जाता है रानी पद्मावती और राणा रतन सिंह का। वह 1303 का वर्ष था जब दिल्ली की गद्दी पर खिलजियों का राज था। अपनों का रक्त बहा कर तख्त हथियाने वाला अत्याचारी अलाउदीन खिलजी घोर साम्राज्यवादी था। उसने मेवाड़ की रानी पद्मावती की सुंदरता की प्रशंसा सुनी तो दुष्ट के मन में उन्हें प्राप्त करने की लालसा जाग गई। बस फिर क्या था? मेवाड़ पर चढ़ आया वह दुष्ट और चित्तौड़गढ़ ने देखी वह केसरिया बाना बांधे रणभूमि में जाते बलिदानी रणबांकुरों की कतारें। इस किले में है वह जौहर कुण्ड, जहां अपना सतीत्व बचाने के लिए रानी पद्मावती 16,000 वीरांगनाओं के साथ अग्नि में समा गई थीं। दुर्ग में पद्मावती के उन महलों और जौहर के स्थल को देखने दुनिया से आज भी लोग भारी संख्या में आते हैं।
दिल्ली से लगभग 575 किलोमीटर की दूरी पर बसा चित्तौड़ का अतीत इस प्रकार के अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। इसी किले ने देखी है वह अमर क्षत्राणी रानी दुर्गावती जिसने गुजरात के बहादुरशाह की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया और एक बार फिर से चित्तौड़ किले में जौहर की ज्वालाएं प्रज्ज्वलित हुर्इं। भारत मां की हजारों पुत्रियां बिना हिचकिचाए उनमें कूद गर्इं। 1567 का वह महासंग्राम भी इस दुर्ग को याद है जब मेवाड़ के गौरव महाराणा प्रताप ने मुगल बादशाह अकबर को हल्दीघाटी में नाकों चने चबवा दिए थे। चित्तौड़ के परकोटों ने सुनी हैं चेतक की टापों की आवाजें जिन्हें सुन कर दुश्मन के सैनिक तो क्या, हाथी भी घबरा जाते थे। वीर बादल और गोरा ने जिस प्रकार अलाउद्दीन की सेना को गाजर-मूली की तरह काटा था, उसी प्रकार अपने शौर्य के कारनामों से चित्तौड़ में अकबर को भी जयमल और फत्ता ने छठी का दूध याद करवा दिया था। यही कारण था कि अकबर ने भी बलिदान के बाद इन सेनानियों की वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
ऊंचे पहाड़ पर बसे इस दुर्ग के बारे में कहते हैं कि यहां की हवाओं में ही स्वाभिमान और देशप्रेम हिलोरें लेता है। जो भी इसके संपर्क में आता है, उसको समाज और देश के समक्ष अपना जीवन शून्य दिखाई पड़ता है। इस बात की अनुपम मिसाल इसी दुर्ग में एक मां ने अपने पुत्र का बलिदान देकर साबित की। इतिहास उस मां को पन्नाधाय के नाम से जानता है। अपने बालक राजा राणा उदय सिंह को बचाने के लिए पन्ना ने दुष्ट बनवीर की तलवार के आगे अपने पुत्र को लिटा दिया और मेवाड़ के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा की। ऐसी अमिट गाथाओं से जिस दुर्ग का इतिहास भरा हो, उसे अपने जीवन काल में हर भारतीय को अवश्य देखना चाहिए। सात द्वारों से होकर ही इस किले में आया जा सकता है। यही सात द्वार इस दुर्ग को अभेद्य बनाते थे। राजपूतों के शौर्य को दर्शाता विजय स्तंभ आज भी शान के साथ इस किले में खड़ा है और इस किले में सबसे आकर्षण का केंद्र है। कई तालों और मंदिरों से सजे चित्तौड़ के निर्माण का श्रेय सातवीं सदी में मौर्य शासक चित्रांगद को जाता है। परंतु पौराणिक मान्यता है कि पांडवों ने इस किले का निर्माण किया और यहां बना भीम ताल और कुकडेश्वर महादेव मंदिर इसी बात की पुष्टि करता है। मौर्य वंश के उपरांत गुहिल वंश, मालवा के परमार, गुजरात के सोलंकी शासकों से होता हुआ यह दुर्ग पुन: राजपूतों के आधिपत्य में आया। इस दुर्ग ने इस प्रकार अनेक उतार-चढ़ाव देखे। हिंदू सनातन परंपरा के मंदिरों के साथ ही यहां बना कीर्ति स्तम्भ दिगंबर जैन परंपरा और तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। कुछ प्राचीन बौद्ध स्तूप भी इस स्थान पर बने हैं। भारतीय वास्तुकला को इस दुर्ग में अपने पूर्ण शिखर पर यहां बने स्मारकों और मंदिरों के माध्यम से निहारा जा सकता है।
चित्तौड़ के किले को ही अपनी मधुर वाणी और चरण धूलि से पवित्र किया है भक्त शिरोमणि कही जाने वाली मीरा बाई ने। यही दुर्ग साक्षी है उन सारे कृत्यों का जो मीरा को उसके मोहन से अलग करने के लिए रचे गए। परंतु उनकी सच्ची भक्ति और समर्पण के समक्ष सभी हार गए और मीरा का नाम सदा के लिए अमर हो गया। चित्तौड़ किले में वह सुंदर मंदिर और कान्हा की मूरत आज भी सुशोभित है जिनकी अनन्य सेवा में मीरा ने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।
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