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सात वर्ष के जोरावर सिंह और पांच वर्ष के फतेह सिंह की शहादत को याद करने के लिए फतेहगढ़ साहिब में जोड़ मेला आयोजित होता है। इस मेले से पता चलता है कि पंजाब सांस्कृतिक रूप से कितना समृद्ध है
हर पंजाबी फतेहगढ़ साहिब को अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहचान के रूप में गर्व और श्रद्धा के साथ देखता है। इसी धरती से उठी बलिदानी आवाज आज भी देश के बच्चों और युवाओं को अपने धर्म और राज्य की रक्षा के लिए प्रेरित करती है। दसवीं पातशाही गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे दो साहिबजादों ने अनुपम बलिदान देकर इस भूमि को सदा-सदा के लिए अमर कर दिया। 26 दिसंबर, 1705 को सरहिंद के वजीर ने धर्म न बदलने पर साहिबजादों को जिंदा ही दीवार में चिनवा दिया था। उन्हीं की याद में हर वर्ष इस दिन जोड़ मेले का आयोजन होता है।
इस मेले में पंजाब की संस्कृति को निकटता से देखा जा सकता है। मेले में देश से ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका इत्यादि देशों में रहने वाले भारतीय लाखों की संख्या में आते हैं। यह मेला तीन दिन तक चलता है।
मुगलों से संघर्ष के चलते गुरु गोबिंद सिंह जी को अपनी राजधानी श्री आनंदपुर साहिब छोड़कर जाना पड़ा। बीच रास्ते में नदी पार करते हुए गुरु जी के चार पुत्रों में से दो छोटे पुत्र और माता गुजरी परिवार से बिछड़ गए थे। बिना किसी सुरक्षा के जंगलों से गुजरते हुए तीनों एक गद्दार सेवक की मुखबरी के चलते सरहिंद नवाब की कैद में पहुंच गए। नवाब ने तीनों को पौष मास की सर्दी में ठंडे बुर्ज नामक ऊंचे स्थान पर बंदी अवस्था में रखा। दरबार लगने पर नवाब ने साहिबजादों के सामने धर्म बदलने की शर्त रखी, परंतु सात वर्ष के जोरावर सिंह और पांच वर्ष के फतेह सिंह ने नवाब की शर्त ठुकरा दी। अपने परिवार के बलिदानी इतिहास को कायम रखते हुए दोनों ने शहादत पाई। जालिम नवाब ने दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवार में चिनवाने का हुकुम दिया। ऐसी सजा सुनकर हर कोई थर्रा उठा परंतु दोनों वीरों के माथे पर शिकन तक न आई। साहिबजादों की शहादत सुनते माता गुजरी ने भी अपने प्राण त्याग दिए। जब तीनों के अंतिम संस्कार के लिए लोगों ने जगह मांगी तो नवाब ने फिर शर्त रख दी। संस्कार के लिए जितनी भूमि चाहिए थी, उतनी भूमि पर सोने की मोहरें बिछाने पर जितना सोना लगेगा, वही उस जगह की कीमत होगी। गुरु जी के अनुयायी दीवान टोडरमल ने अपनी सारी पूंजी बेच कर सोने की मोहरें बिछा कर नवाब से संस्कार के लिए जगह खरीदी। परंतु गुरु पुत्रों से स्नेह दिखाने पर नवाब ने टोडरमल को भी परिवार सहित खत्म कर दिया।
जिस स्थान पर दीवार में चिनवा कर साहिबजादों को शहीद किया गया था वहां आज गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब सुशोभित है। उस दीवार का कुछ भाग आज भी सुरक्षित है जहां श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश किया हुआ है। इसके निकट ही ठंडा बुर्ज है जहां साहिबजादों और माता गुजरी को बंदी बनाया गया था। यहां भी गुरुद्वारा विराजमान है। कुछ दूरी पर गुरुद्वारा ज्योति स्वरूप जी है जहां दीवान टोडरमल ने दुनिया की सबसे महंगी जमीन खरीदकर कर तीनों का अंतिम संस्कार करवाया था।
सरहिंद नगर जीटी रोड पर दिल्ली से लुधियाना जाते हुए लगभग 265 किलोमीटर की दूरी पर है। गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब यहां से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर है। पंजाब के राजनीतिक दलों ने भी फतेहगढ़ साहिब के जोड़ मेले को अपनी अस्मिता से जोड़ा हुआ है। मेले के अवसर पर सारे राजनीतिक दल यहां सभाओं का आयोजन करते हैं। तीन दिन तक राज्य के सभी जिलों से आए लोग यहां निवास करते हैं। राजनीतिक दल इसका लाभ उठाते हैं और अपनी विचारधारा से लोगों को अवगत कराते हैं। पूरे वर्ष यहां पर्यटकों और श्रद्धालुओं का आवागमन रहता है। इसके अतिरिक्त यहां पर आम खास बाग, हवेली दीवान टोडरमल, प्रसिद्ध जैन तीर्थ माता चक्रेश्वरी मंदिर भी दर्शनीय है। हड़प्पा संस्कृति से जुड़ा संघोल उत्खनन स्थल तथा संग्रहालय भी यहां आकर्षण का केंद्र है।
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