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भगवान राम के वनवास का अधिकतम हिस्सा जहां बीता हो वह स्थान सांस्कृतिक रूप से कितना समृद्ध होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य जहां विरासत को समेटे है वहीं यह राज्य पर्यटन की दृष्टि से बड़ा ही मोहक है।
राजीव रंजन प्रसाद
लाल आतंकवाद की पृष्ठभूमि में छत्तीसगढ़ का जो परिचय सामने आता है उसने रहस्यमयता ही प्रसारित की है। भारत वर्ष के दक्षिणापथ का प्रवेशद्वार अपने जटिल भूगोल, इतिहास और समाजशास्त्र के कारण अल्पज्ञात रहा है। राजधानी रायपुर के पश्चात आगे बढ़ने पर रेल एवं वायुमार्ग की अनुपस्थिति ने हर प्रकार के पर्यटन विकास की संभावनाओं को यहां कम किया है। लेकिन जिस वनांचल में भगवान राम के वनवास का अधिकतम हिस्सा व्यतीत हुआ हो, वहां के प्राचीन मंदिर और पुरातात्विक स्थल कितने समृद्ध होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है। इतिहास के खड़खड़ाते पन्ने बताते हैं कि एक समय शाक्त, शैव, वैष्णव, गाणपत्य आदि अनेक प्रभावशाली सम्प्रदायों की यहां प्रभावी उपस्थिति रही है। सनातन मान्यताओं के अतिरिक्त अन्य मत-पंथों के प्रसिद्ध स्थान जैसे-भोंगापाल, सिदेसर, बोधघाट, जैतगिरि आदि भगवान बुद्ध से जुड़े हैं, जबकि कुरुसपाल, रेटावंड, बनियागांव, गढ़बोदरा, हनुमानगढ़ी, केसरपाल आदि जैन मत के स्थल हैं। इन विवरणों के आलोक में छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित समृद्ध धार्मिक महत्व के पर्यटन स्थलों पर दृष्टि डालनी ही चाहिए।
देवी आराधना से जुड़े स्थान
शाक्त संप्रदाय के लिये बस्तर रुचि का क्षेत्र है। बारसूर, छोटे डोंगर, बड़े डोंगर, भैरमगढ़, समलूर, केशकाल, कोंडागांव, भोपालपट्टनम, कोण्टा, जगदलपुर आदि स्थानों से महिषासुरमर्दिनी, सप्तमातृकाएं, चतुर्भुज पार्वती, गौरी, अष्टभुजी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, वाराही, चामुंडा आदि प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। कहते हैं कि सप्तमातृकाओं के पूजन की प्राचीनकालीन प्रथा आदिम कबीलों के प्रभाव से अवतरित हुई हैं। ये सप्तमातृकाएं—ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही तथा चामुंडा कही जाती हैं। इन सप्तमातृकाओं के स्मारक बस्तर के सातगांव (कोंडागांव), भगदेवा (कोंडागांव) तथा मातला (नारायणपुर) में मिलते हैं। बस्तर के दंतेवाड़ा जिले की पहचान दंतेश्वरी मंदिर से विशेष तौर पर जुड़ी हुई है। मां दंतेश्वरी की महिमा अत्यंत प्राचीन धार्मिक कथा ‘शिव और सती’ से जोड़ कर देखी जाती है। प्रबल मान्यता है कि इसी स्थल पर देवी सती का दंत-खंड गिरा था। दंतेवाड़ा हालांकि 51 शक्ति पीठों में शामिल नहीं है लेकिन वनवासी समाज के लिए यह किसी शक्ति पीठ से कम नहीं है। दंतेवाड़ा में स्थापित षट्भुजी प्रतिमा काले ग्रेनाइट से निर्मित है। दंतेश्वरी माता की इस इस दिव्य प्रतिमा की छह भुजाओं में से दाहिनी ओर के हाथों में शंख, खड्ग, त्रिशूल और बाईं ओर के हांथों में घंटी, पद्म और राक्षस के बाल हैं। यह प्रतिमा नक्काशीयुक्त है तथा इसके ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरूप बना हुआ है।
देवी दंतेश्वरी मंदिर के अतिरिक्त भी अन्य देवी-स्थान सम्पूर्ण बस्तर में दृष्टिगोचर होते हैं, जो एक समय में शाक्त संप्रदाय की प्रधानता होने की ओर इशारा करते हैं। सुकमा नगर के बाहरी छोर पर स्थित रामारामिन माता का मंदिर जिसे चिटमतिन अम्मा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, बहुत अच्छी तरह से संरक्षित है तथा पूरे नगर की आस्था के केन्द्र में है। ऐसी ही मान्यता के साथ भोपालपट्टनम के निकट गोदावरी एवं इंद्रावती नदी का संगमस्थल भद्रकाली देखा जा सकता है। संगम के निकट पहाड़ी टीले को ही देवी भद्रकाली का सांकेतक मान कर प्रार्थना-जात्रा संपन्न की जाती रही है। लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘‘मंदिर के तत्वावधान में प्रतिवर्ष त्रिदिवसीय मेला लगता है। वसंतपंचमी के एक दिन पहले मेला भरता है और दूसरे दिन मेले का समापन बोनालू होता है। बोनालू के अंतर्गत हल्दी-कुमकुम से सजे हुए तीन घड़े रखे जाते हैं। एक के उपर एक। नीचे के घट में खीर होती है। बीच के घड़े में खिचड़ी रखते हैं और ऊपर वाले घड़े में रहती है सब्जी। ऊपर वाले घट पर एक दीपक जलता रहता है। कई महिलायें तीनों घड़ों को सिर पर रख कर मंदिर की परिक्रमा करती हैं। प्रदक्षिणा पूरी हो जाने के बाद हंडियों में रखी खीर, खिचड़ी और सब्जी का प्रसाद दर्शनार्थियों में बांटा जाता है। इसके अतिरिक्त तीन-तीन साल में यहां श्रद्धालु शैव भक्तों द्वारा आयोजित होता रहता है। अग्निकुंडों में अग्निप्रज्वलन समारोह भी अग्नि समयानुसार प्रज्ज्वलित रखी जाती है। मनौतियां मानने वाले लोग उपवास रखते हैं और आस्थापूर्वक अग्निकुंडो में प्रवेश करते हैं और अंगारों पर चलते हैं।’
शिव साधना से जुड़े स्थान
बस्तर में शैव संप्रदाय से जुड़ी विरासतों में बत्तीसा मंदिर, चन्द्रादित्य मंदिर, कुरुसपाल, समलूर शिव मंदिर, देवखूट, बस्तर ग्राम, छिन्दगांव, छोटे डोंगर, सिंहनपुर और जांगला के शिवमंदिर आदि प्रमुख हैं। इस संबंध में विशेष रूप से गढ़धनोरा-गोबरहीन का उल्लेख किया जा सकता है। जगदलपुर मार्ग में रायपुर से लगभग 170 किलोमीटर आगे बढ़ने पर यहां तक पहुंचा जा सकता है। भारत के किसी भी अन्य स्थान से एक साथ इतनी अधिक मात्रा में गुप्तकालीन संरचनायें प्राप्त नहीं हुई। अनेक टीले व गर्भ गृह हैं जिनमें से कुछ में शिवलिंग बहुत अच्छी अवस्था में दृष्टिगोचर होते हैं।
इसी कड़ी में बारसूर के चन्द्रादित्य मंदिर को गिना जा सकता है। यह इतना भव्य मंदिर है कि इतिहास का कोई शोधार्थी चाहे तो केवल इसपर ही अपना शोधग्रंथ पूरा कर सकता है। नौंवी सदी में एक तेलुगु-चोड़ महामंडलेश्वर (सामंत) चन्द्रादित्य ने बारसूर में सरोवर का निर्माण करवाया, साथ ही साथ एक भव्य शिव मंदिर का भी। इस शिवमंदिर को तब चन्द्रादित्येशवास कहा जाता था। मंदिर में अनेक शैव प्रतिमायें (भैरवी, पार्वती, कार्तिकेय, गणेश, भैरव, शिव, आदि), वैष्णव प्रतिमायें (विष्णु, वाराही, नृसिंह, कल्कि) आदि विराजमान हैं। इसके साथ ही अष्टदिकपाल, वसु, मानव प्रतिमाएं (नारी, पुरुष, अप्सरा, नर्तकी, नायिका आदि) मिथुन प्रतिमाएं तथा अन्य अनेक प्रतिमाएं (नाग-नागिन, सूर्य, चामुंडा, अंबिका, हनुमान आदि) बाह्य दीवारों पर अंकित हैं। बारसूर के बत्तीसा मंदिर को अपने बत्तीस खंबों के कारण मुख्य आकर्षणों में गिना जाता है। बत्तीसा मंदिर की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि बस्तर का यह अकेला ऐसा मंदिर है जिसमें दो गर्भगृह हैं किंतु उनका मंडप संयुक्त है। बत्तीसा मंदिर में स्थित दोनों गर्भगृह समान आकार के तथा अलंकरण विहीन हैं। दोनों ही गर्भगृहों के मध्य में अलंकृत प्रस्तर से निर्मित जलहरी विद्यमान है। काले पत्थर से निर्मित दोनों ही जलहरियों का योनिपट्ट उत्तर दिशा की ओर है तथा उसपर भव्य शिवलिंग विद्यमान हैं।
गणेश उपासना से जुडेÞ स्थान
ढोलकल गणपति की प्रतिमा तक पहुंचने के लिये दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से 15 किमी. दूर ग्राम फरसपाल से आगे चल कर पहाड़ियों तक पहुंचा जाता है, जहां तीन सौ मीटर ऊंची चोटी पर दुर्लभ विशालकाय गणपति की प्रतिमा स्थपित है। ढोलकल दो समानांतर पहाड़ियां हैं, जिनका आकार एक खड़े ढोल की तरह है। एक पर्वत शिखर पर नवीं सदी की निर्मित गणेश प्रतिमा अवस्थित है तो दूसरी पहाड़ी पर वर्तमान में भग्नावशेष है जिसका जिक्र सूर्य मंदिर के रूप में किया जाता है। गणेश प्रतिमा के ऊपरी दाएं हाथ में परशु, ऊपरी बाएं हाथ में टूटा हुआ एक दंत, नीचे का दायां हाथ अभय मुद्रा में अक्षमाला धारण किए हुए तथा निचला बायां हाथ मोदक धारण किए हुए हैं। पयंर्कासन मुद्रा में बैठे हुए गणपति की सूंड़ बायीं ओर घूमती हुई शिल्पांकित है। प्रतिमा उदर में सर्प लपेटे हुए तथा जनेऊ किसी सांकल की तरह धारण किये हुए है। गणपति की जनेऊ के रूप में सांकल का चित्रण सामान्य नहीं है। गणेश-परशुराम युद्ध के बाद गणेश जी के एक दांत के कट जाने सम्बन्धी मान्यता यहां से जोड़ी जाती है। इतिहास और जनश्रुतियों को जब भी जोड़ कर देखेंगे तभी महसूस होगा कि वह युग आपके समक्ष सजीव हो उठा है। बारसूर में स्थित विशाल और भव्य युगल गणेश प्रतिमाओं के संबंध में बड़ी ही रोचक कथा का हवाला मिलता है। कहते हैं कि दैत्यराज बाणासुर की पुत्री उषा और उनके मंत्री कुभांड की कन्या चित्रलेखा अंतरंग सखियां थीं। गणेश इन दोनों के आराध्य देव थे। इनकी पूजा के लिये ही बाणासुर ने गणेश की दो विशाल प्रतिमाओं को एक ही स्थान पर स्थापित करवाया था। जो गणेश प्रतिमा अधिक विशाल है उसकी लंबाई, चौड़ाई तथा मोटाई क्रमश: 230 सेमी., 190 सेमी. तथा 130 सेमी. है। इस आधार पर इसे विश्वभर में ज्ञात तीसरी सर्वाधिक विशाल गणेश प्रतिमा होने का गौरव प्राप्त है।
विष्णु तथा उनके अवतारों से जुडेÞ स्थान
बस्तर की वैष्णव सम्प्रदाय से जुड़ी विरासतों में गढ़धनोरा से प्राप्त भगवान विष्णु की प्रतिमा, नारायणपाल मंदिर, देवधनोरा के पास चतुर्भुज मंदिर, बड़ेडोंगर, कुरुसपाल, केसरपाल, मान्धोता का लक्ष्मीनारायण मंदिर आदि हैं। ग्राम नारायणपाल बस्तर जिले के जगदलपुर-रायपुर राष्ट्रीय मार्ग से 35 किमी. की दूरी पर सोनारपाल नामक गांव से बार्इं तरफ इन्द्रावती नदी के तट, पर लगभग 19 किमी. की दूरी पर स्थित है। माना जाता है कि नाग शासक धारावर्ष की रानी विष्णु भक्त। उन्हीं की प्रेरणा से विष्णु मंदिर का निर्माण कर नारायणपुर गांव नाम दिया गया। जो बाद में नारायणपाल हो गया इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की काले पत्थर से निर्मित चतुभुर्जी प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के उपरी दोनों हाथों में शंख तथा चक्र हैं किंतु निचले दोनों हाथ खण्डित हैं। विष्णु प्रतिमा के सिर पर पांच सर्पकणों युक्त मुकुट गढ़ा गया है। नल राजाओं के शासन काल की एक भव्य विष्णु प्रतिमा कांकेर-अमोड़ा मार्ग पर महानदी के किनारे जुनवानी गांव के निकट अवस्थित है। यह एक चतुभुर्जी प्रतिमा है जिसमें दो हांथी अपने सिर मिलाये वंदना की अवस्था में खड़े हैं, जिनके मस्तक पर एक कमलपुष्प रखा हुआ है। इसी कमल के फूल पर भगवान विष्णु की खड़ी हुई मुद्रा में मूर्ति बनायी गयी है। इस चतुभुर्जी मूर्ति ने ऊपर के दो हांथों में शंख तथा चक्र एवं नीचे के एक हांथ में गदा थामी हुई है; एक हाथ की उंगलियां ध्यान मुद्रा में निर्मित है। मुख्य प्रतिमा के चारों ओर दशावतार तथा अनेक अन्य आकृतियां भगवान विष्णु की आराधना में प्रार्थनाबद्ध निर्मित की गयी हैं। विष्णु अवतारों से जुड़ी भी अनेक कहानियां व चिन्ह बस्तर अंचल का परिचायक हैं। भगवान राम के वनवान का अधिकतम हिस्सा इन जंगलों में व्यतीत हुआ है। नारायणपुर से कुतुल की ओर आगे बढ़ते हुए अबूझमाड़ के घने जंगल आरम्भ हो जाते हैं। कुछ आगे सूनसान पहाड़ी मोड़ पर एक खाईं दिखाई पड़ती है, नीचे उतरने पर वह स्थान है जिसे स्थानीय रक्साहाड़ा कहते हैं।
रक्साहाड़ा अर्थात राक्षसों की हड्डियां। रक्साहाड़ा के विषय में स्थानीय मान्यता है कि वनवास काल में खर-दूषण की सेनाओं और राम-लक्ष्मण के मध्य यहां युद्ध हुआ और तब मारे गये राक्षसों का यहां ढेर लग गया। कालांतर में मृतक राक्षसों की हड्डियां इस बड़ी मात्रा में एकत्रित हुईं कि उसने एक पर्वतीय टीले का स्वरूप ग्रहण कर लिया। अपघटन से पर्वतीय टीले ने हड्डियों का रूप तथा गुण ग्रहण कर लिया। प्रथम दृष्टया पुष्टि होती है कि यह पूरा स्थान फॉसिल अथवा जीवाष्म निर्मित हो सकता है। यह कहना आतिश्योक्ति नहीं है कि छत्तीसगढ़ अंचल के अधिकतर क्षेत्र अपने भीतर इतिहास की रहस्यमयता छिपाए हुए हैं। उस इतिहास के अनपढ़े पन्ने अब सामने लाए जाने आवश्यक है। क्योंकि जहां राज्य में धार्मिक पर्यटन की अपार सम्भावनायें वहीं शोधार्थियों के लिए यहां बहुत कुछ है।
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