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मुगल आक्रांताओं के बर्बर अत्याचार से देश की सांस्कृतिक अस्मिता बचाने के लिए दश गुरु परंपरा के नवम गुरु तेग बहादुर ने आत्माहुति दी। उनके प्राणोत्सर्ग से पूरा देश विचलित हो उठा और मुगल सत्ता को चुनौती मिली
डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
मध्यकालीन दश गुरु परंपरा नानक देव से शुरू होकर दशम गुरु गोविन्द सिंह पर समाप्त होती है। भारत में दश गुरु परंपरा व मुगल वंश की शुरुआत साथ-साथ हुई। मुगल वंश के संस्थापक बाबर व दश गुरु परंपरा के संस्थापक गुरु नानक समकालीन थे। 17वीं सदी के मध्य तक भारत का राजनैतिक परिदृश्य बदलने लगा था। 1658 में मुगल वंश की कमान औरंगजेब के पास आ गई थी। उसने अपने बाप शाहजहां को ताजमहल में कैद कर और भाइयों को मारकर सिंहासन पर कब्जा किया व मृत्युपर्यंत देश के अधिकांश हिस्सों पर आधिपत्य के लिए लड़ता-भिड़ता रहा। इधर, सातवें गुरु हर राय को 1644 में गुरु गद्दी प्राप्त हुई। 1661 में आठवें गुरु हरकृष्ण पांच साल की आयु में गुरु गद्दी पर बैठे, लेकिन दो साल पांच माह और 24 दिन बाद अल्पायु में ही उनका देहावसान हो गया। 1664 में नवम गुरु तेग बहादुर को गुरु गद्दी मिली। सभी गुरु औरंगजेब के समकालीन कहे जा सकते हैं।
गुरु तेग बहादुर ने 1665 में बिलासपुर रियासत से माखोवाल गांव में जमीन खरीद कर सतलुज के पास आनंदपुरनगर बसाया, जो विचार-विमर्श, ध्यान साधना व सैनिक गतिविधियों का केंद्र बनने लगा। लेकिन आनंदपुर की स्थापना के कुछ माह बाद ही वे सपरिवार पूर्वी भारत की यात्रा पर निकल गए। इस यात्रा का एक विशिष्ट प्रयोजन था। उस समय औरंगजेब ने दोहरी चाल चली थी। उसने जयपुर के राजा राम सिंह को सेना का मुखिया बना कर असम विजय के लिए भेजा। उसकी सोच यह थी कि अगर राम सिंह युद्ध में मारा गया तो एक विधर्मी कम हो जाएगा और असम पराजित हुआ तो भारतीयों में आपसी लड़ाई तेज हो जाएगी। राम सिंह की गुरुजी में गहरी आस्था थी। गुरुजी इसलिए असम जा रहे थे ताकि युद्ध को रोका जा सके। पटना पहुंचने पर उनकी धर्म पत्नी माता गुजरी के लिए आगे की यात्रा मुश्किल हो गई, क्योंकि वे गर्भवती थीं और प्रसव आसन्न था। लिहाजा उन्होंने पटना में परिवार के ठहरने की व्यवस्था की और असम यात्रा जारी रखी। 5 जनवरी, 1666 को पटना में बालक गोविन्द राय का जन्म हुआ। असम यात्रा पूरी कर गुरुजी पटना लौटे और मार्च 1672 को परिवार सहित आनंदपुर वापस आए। उनके वापस आने के बाद आनंदपुर फिर पश्चिमोत्तर भारत की गतिविधियों का केंद्र बनने लगा। यह वह दौर था जब पेशावर से दिल्ली तक लोग मुगलों के अत्याचार से त्रस्त थे। राजकोप से बचने के लिए अधिकांश लोगों ने इस्लाम कबूल लिया था। कश्मीर घाटी में भी यही आलम था। वैैसे तो कश्मीर घाटी पहले से इस्लाम का प्रकोप झेल रही थी, लेकिन औरंगजेब के शासनकाल में बर्बरता की सारी हदें पार हो गई थीं। मई 1675 में कश्मीर से कई लोग वहां की परिस्थितियों और मुगल अत्याचारों से छुटकारा पाने का रास्ता तलाशने के लिए आनंदपुर में गुरु तेग बहादुर से मिलने आए। उनका नेतृत्व मट्टन के पंडित किरपा राम कर रहे थे। पंजाब भी सल्तनत काल से लेकर मुगलों तक ऐसे जुल्म झेल रहा था। गांव के गांव मुसलमान बनाए जा रहे थे। दश गुरु परंपरा के उदय से पूरे पश्चिमोत्तर भारत में उम्मीद की किरण जगी थी। गुरु नानक के बाद 1660 में गुरु हर राय भी कश्मीर घाटी जा चुके थे। पी.एन के बमजई ने अपनी पुस्तक ‘अ हिस्ट्री आॅफ कश्मीर’ में इसका वर्णन इस प्रकार किया है,‘‘उन दिनों कश्मीर का सूबेदार इफ्तार खान पंडितों को मुसलमान बनाने के लिए जोर-जबरदस्ती कर रहा था। तब पंडितों ने अमरनाथ में भगवान शिव से इन म्लेच्छ अत्याचारियों से मुक्ति के लिए गुहार लगाने का फैसला किया। अमरनाथ में एक व्यक्ति ने स्वप्न में शिव को देखा। स्वप्न में शिव ने इस समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों को पंजाब में गुरु तेग बहादुर के पास जाने को कहा। उसने सभी को अपने स्वप्न के बारे में बताया और सभी ने जाने का निर्णय किया।’’ इस प्रतिनिधिमंडल में करीब 500 लोग थे। इधर, आनंदपुर में सिख पहले से ही एकजुट हो रहे थे। गुरु अर्जुन देव मुगलों के इन्हीं अत्याचारों को झेलते हुए बलिदान हुए थे। गुरु तेग बहादुर ने लंबी मंत्रणा के बाद जो रास्ता निकाला, वह आत्मबलिदान का था। उन्होंने कहा कि विदेशी शासकों से देश की सांस्कृतिक अस्मिता बचाने के लिए किसी महापुरुष को आत्माहुति देनी होगी। गुरुजी जानते थे कि इसके लिए ऐसा पुरुष होना चाहिए जिसका पूरे भारतवर्ष में सम्मान हो और जिसकी शहादत से पूरा देश विचलित हो उठे। तभी मुगल सत्ता को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन देश-धर्म की रक्षा के लिए बलिदान कौन देगा? वे बेचैन थे। उन्होंने आंखें बंद कर लीं। पास ही उनके आठ वर्षीय पुत्र गोविन्द राय बैठे थे। उन्होंने पिता से बेचैनी का कारण पूछा तो उन्होंने बेटे को मुगलों के आक्रमण के पश्चात पूरे देश की स्थिति व किसी महापुरुष के आत्मबलिदान की आवश्यकता के पीछे की पृष्ठभूमि बता दी। गोविन्द राय ने तत्क्षण कहा, ‘‘आपसे बड़ा महापुरुष इस समय देश में दूसरा कौन है, जो आत्मबलिदान दे सके?’’ यह सुनकर गुरुजी की बेचैनी काफूर हो गई।
औरंगजेब ने पूरे भारत को मुगल साम्राज्य के अधीन लाने के लिए व्यापक अभियान छेड़ रखा था। लेकिन उसके विरुद्ध संघर्ष भी तेजी से बढ़ रहा था। 1671 में पूर्वोत्तर में असम की सेना ने औरंगजेब की विशाल सेना को सरायघाट में करारी शिकस्त दी। असम के सेनापति लचित बडफूकन ने ब्रह्मपुत्र की लहरों पर औरंगजेब की सेना को तहस-नहस कर दिया। उधर, औरंगजेब विन्ध्याचल के उस पार उज्बेकों का झंडा गाड़कर पूरे भारत को गुलाम बनाने की कोशिश में जुटा था, जबकि विन्ध्याचल के इस पार एक बहुत बड़े स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी चल रही थी। इसी समय 1674 में शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ और समूचा भारतवर्ष एक नई ऊर्जा से भर गया। शिवाजी के नेतृत्व में पश्चिमी भारत का विशाल भूखंड मुगलों से स्वतंत्र करा लिया गया। पूर्वोत्तर के बाद पश्चिमोत्तर भारत अंगड़ाई ले रहा था। सप्त सिन्धु में दश गुरु परंपरा के उदय से नई चेतना आ गई थी। इसी पृष्ठभूमि में आनंदपुर में पंजाब और कश्मीर के लोग एकत्रित हुए थे।
गुरुजी 1675 में दिल्ली पहुंचे। औरंगजेब ने उनसे इस्लाम कबूलने को कहा, पर उन्होंने इनकार कर दिया। महाराष्ट्र और असम में हार से बौखलाए औरंगजेब ने हिन्द की चादर गुरु तेग बहादुर को दिल्ली के चांदनी चौक में शीश कटवा दिया। साथ ही, मुनादी करवा दी कि कोई भी उनकी पार्थिव देह को नहीं उठाएगा। लेकिन शाही फरमान की परवाह किए बिना भाई लक्खी दास ने उनका विधिवत संस्कार करने के लिए गुरुजी के पार्थिव शरीर को उठाया और अपने घर में रख कर पूरे घर को आग लगा दी ताकि किसी को शक न हो। गुरुजी की उम्मीद के मुताबिक, उनके बलिदान से आम लोगों में विद्रोह का ऐसा ज्वार उमड़ा जिस पर नियंत्रण मुगलों के वश में नहीं रहा। उधर, भाई जेता गुरुजी का शीश लेकर आनंदपुर की ओर चल पड़े ताकि विधिवत संस्कार हो सके। बेटे ने अपने पिता की शहादत को श्रद्धांजलि दी-
ठीकर फोड़ दिल्लीस सिर प्रभु पुर किआ प्यान, तेग बहादुर सी क्रीआ करी न किन्हू आन।
तेग बहादुर के चलत भयो जगत को सोक, है है है सब जग करे जय जय जय सुर लोक।
फिर आगे कहा-
तिलक जंञू राखा प्रभ ताका॥ कीनो बड़ो कलू महि साका॥ साधन हेति इती जिनि करी॥ सीसु दीया परु सी न उचरी॥
धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥ (दशम ग्रंथ)
यह श्रद्धांजलि केवल बेटे की ओर से अपने पिता को नहीं थी, बल्कि उनके माध्यम से सारा हिन्दुस्थान बोल रहा था। नतमस्तक था। ल्ल
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