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गुजरात में जब भी चुनाव होते हैं तो ऐसा लगता है मानो कुछ मीडिया समूह भी चुनाव लड़ रहे हैं। चुनाव में उनकी साख भी दांव पर लगी होती है। यहां 22 साल से बेहतरीन कामकाज के बावजूद भाजपा की सरकारें एक खास तरह के लोगों की आंखों की किरकिरी बनी हुई हैं। विरोध सिर्फ विपक्ष का होता तो सामान्य बात होती, लेकिन विपक्ष से ज्यादा मीडिया का एक बड़ा वर्ग परेशान है। मीडिया कवरेज में यह परेशानी झलक रही है। परंपरागत तौर पर एनडीटीवी इनमें सबसे आगे है। बाकी कई अखबार और चैनल भी पीछे नहीं हैं। वरना राहुल गांधी अपनी रैलियों और ट्विटर पर जैसी विचित्र बातें बोल रहे हैं उन्हें मीडिया इतनी गंभीरता से नहीं लेता। मीडिया के इस तबके ने बहुत सोचे-समझे तरीके से पूरे चुनाव को जातीय समीकरणबाजी के ईद-गिर्द समेट दिया है। कुछ जातीय नेताओं को टीवी पर इतना दिखाया जा रहा है, जितना उन दलों के नेताओं को भी नहीं जो चुनाव लड़ रहे हैं।
जामनगर में जी न्यूज के कार्यक्रम में एंकर और रिपोर्टर पर कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने हमला किया। लेकिन यह खबर उन लोगों तक नहीं पहुंची जो खुद को अभिव्यक्ति की आजादी का पहरेदार बताते हैं।
सूरत की एक सोसाइटी में चार लोग खड़े होकर भाजपा के खिलाफ नारे लगाते हैं तो उसे आजतक चैनल के प्राइम टाइम बुलेटिन में प्रमुखता से जगह मिल जाती है, बिना यह पता किए कि कहीं वह कैमरे के लिए प्रायोजित घटना तो नहीं थी। मीडिया की इस ब्रिगेड के हौसले को भी मानना पड़ेगा, क्योंकि गुजरात के मामले में वे ये काम लगातार तीन चुनावों से कर रहे हैं।
शायद गुजरात चुनाव पर ही असर डालने की नीयत से इंडियन एक्सप्रेस ने पैराडाइज पेपर लीक के खुलासे किए। इस सूची में जिस तरह से तथ्यों को छिपाते हुए केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा का नाम उछाला गया, वह देखने लायक था। जो सूची कांग्रेस के नेताओं से भरी हुई है उसमें उस मंत्री पर सबसे ज्यादा जोर था जो खुद ही बता रहा है कि उसका नाम क्यों और कैसे आया। कांग्रेस प्रायोजित मीडिया को उम्मीद है कि वह ऐसे ही कई झूठ बोलकर लोगों के मन में यह बात बिठा देंगे कि यह सरकार पिछली सरकार जैसी ही है।
बीते हफ्ते देश के 8 राज्यों में हिंंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के आगे यह बड़ा प्रश्न है कि किसी जगह 3 प्रतिशत जनसंख्या बहुसंख्यक और 90 प्रतिशत जनसंख्या अल्पसंख्यक कैसे हो सकती है। टाइम्स नाऊ और इक्का-दुक्का चैनलों ने इस खबर को गंभीरता के साथ दिखाया। बाकी को देखकर ऐसा लगा मानो यह कोई मुद्दा ही नहीं है।
अलवर से खबर आई कि गायों को लेकर जा रहे लोगों पर हमला हुआ। हमले में एक व्यक्ति की मौत हो गई। यह मीडिया का पसंदीदा विषय है। इससे पहले बल्लभगढ़ में ट्रेन की सीट के लिए हुए झगड़े को 'बीफ का झगड़ा' बताने वाले चैनल आजतक ने इस बार भी मुख्य भूमिका निभाई। शुरुआती जानकारी में ही लग गया था कि यह लूटमार का मामला है। यह भी साफ दिख रहा था कि जिन्हें 'गोपालक' बताया जा रहा है, वे दरअसल गोतस्कर थे। अगले ही दिन सचाई सामने आ गई।
उधर फिल्म 'पद्मावती' को लेकर हो रहे विरोध के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वे सिपाही भी जाग गए हैं जो मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदु सरकार' के वक्त शीत निद्रा में चले गए थे। जिन चैनलों ने अलग-अलग शहरों में मधुर भंडारकर की टीम पर हुए हमलों की खबर तक दिखाना जरूरी नहीं माना था, वे 'पद्मावती' को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से विरोध को भी 'गुंडागर्दी' बता रहे हैं। भारतीयता की पहचान मानी जाने वाली साड़ी को लेकर इंडिया टुडे समूह ने इंटरनेट पर कुछ वक्त पहले एक नकारात्मक अभियान शुरू किया था। इसमें साड़ी को दकियानूसी और असुविधाजनक पोशाक बताया गया था। इस अभियान की मशाल अब न्यूयॉर्क टाइम्स ने थाम ली है। बीते हफ्ते न्यूयॉर्क टाइम्स ने लेख छापा कि हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार साड़ी को हथियार बना रही है। ऐसी बकवास खबरें देने वाले रिपोर्टर कोई विदेशी नहीं, बल्कि भारत के ही हैं। समझना मुश्किल नहीं है कि ये कौन लोग हैं और ऐसी हरकतें किस मकसद से कर रहे हैं।
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