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''अंगदान का बड़ा ही महत्व है और यह पुरातन काल से चला रहा है। यानी प्राचीन सभ्यता-संस्कृति से इसका जुड़ाव है। अगर जीवनकाल या मृत्यु के बाद हमारा शरीर किसी के काम आ-जाए तो इससे बड़ा और पुण्य क्या हो सकता है।'' उक्त बातें राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने कहीं। वे गत 10 नवंबर को राष्ट्रपति भवन में दधीचि देहदान समिति द्वारा आयोजित 'देहदानियों का उत्सव' कार्यक्रम में बोल रहे थे। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि महर्षि दधीचि के बारे में हम सभी ने सुना और पढ़ा है। महर्षि ने देवताओं की प्रार्थना पर अपने शरीर को, जो तप से अद्भुत शक्ति अर्जित कर चुका था, दान कर दिया। देवताओं ने उनके शरीर से प्राप्त हड्डियों से वज्र का निर्माण किया और आसुरी शक्तियों का नाश किया। इसी तरह अगर आज के समय हम सभी इस कार्य को बढ़ाएं और समाज की सहायता करके मानवीय उदाहरण प्रस्तुत करें, तो यह बड़ा ही पुण्य का कार्य होगा। उन्होंने कहा कि आज अंगों की अनुपलब्धता के चलते हमारे देश में अनुमानित 5 लाख लोग हर वर्ष कालकवलित हो जाते हैं। साथ ही लाखों-लाख लोग यकृत और ह्दय रोग से पीडि़त हैं। इसके अलावा 1.5 लाख लोग गुर्दा प्रत्यारोपण कराने की प्रतीक्षा में हैं। इन सब आंकड़ों को देखने के बाद समाज को अंग दान करने के लिए जागरूक होना होगा। चिकित्सक, संस्थान, शिक्षक, धार्मिक गुरु इस पुण्य कार्य में आगे आएं और समाज को इसके बारे में जागरूक करें। – प्रतिनिधि
सेवा में आनंद प्राप्त करने का भाव जागृत करें
गत 5 नवंबर को राष्ट्रीय सेवा भारती के सहयोग से संत ईश्वर फाउंडेशन द्वारा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सेवारत संस्थाओं व महानुभावों को नई दिल्ली में सम्मानित किया गया। इस मौके पर केंद्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री सुश्री उमा भारती, केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री श्री अश्वनी चौबे ने विभिन्न श्रेणियों में संत, महानुभावों एवं संस्थाओं को सम्मानित किया। इस अवसर पर सुश्री उमा भारती ने कहा कि संसार से कम से कम लेना और ज्यादा से ज्यादा देना चाहिए। अपनी जिम्मेदारी से पलायन कर जाने वाला मनुष्य मिथ्याचारी होता है। निरंतर दूसरे के उपयोग में आना यही सेवा का मूल मन्त्र है। जो ऐसा नहीं करते हैं या अपनी जिम्मेदारी से पलायन करते हैं, वे मिथ्याचारी होते हैं।
आज के समय में हमारी जो जिम्मेदारियां हैं, सेवाभाव से उनको पूर्ण करना ही सबसे बड़ी तपस्या और साधना है। उन्होंने कहा कि सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में भगवान भक्तों की बहुत परीक्षाएं लेते थे, ईश्वर की प्राप्ति के लिए अनेक वषोंर् तक कड़ी तपस्या करनी पड़ती थी, तब भी भगवान् के दर्शन दुर्लभ होते थे। लेकिन कलियुग में यह बहुत आसान है। आपने किसी गरीब आदमी के आंसू पोंछ दिए तो समझ लो, भगवान आपके पास चल कर आ गए। सेवा में आनंद प्राप्त करने का जो भाव इस संत ईश्वर सम्मान समिति ने स्थापित किया है, समाज अगर यह तय कर ले तो देखना कि इस देश में बहुत सारी समस्याएं अपने आप ठीक हो जाएंगी। -प्रतिनिधि
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