|
मेरे लिए ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भाव का मतलब क्या है? जन्म के शुरुआती कुछ महीनों तक बच्चा केवल जन्मदात्री मां को पहचानता है। कुछ समय बाद घर के लोगों तथा कुछ बड़े होने पर नाते-रिश्तेदारों को भी जानने लगता है। यानी एक अवधि तक बच्चे के एकात्मता बोध का दायरा सीमित रहता है। इसके लिए उसे दोष नहीं दे सकते कि वह अपनत्व व कुटुंब का दायरा क्यों नहीं बढ़ाता? जब बच्चा स्कूल या गुरुकुल जाने लगता है तो उसके अपनत्व का दायरा बढ़ जाता है जिसमें उसके संगी-साथी व गुरुजन आते हैं। शनै: शनै: इस दायरे में समाज, प्रांत, राष्ट्र व पूरी दुनिया आ जाती है, पर हर कोई इस आदर्श स्थिति तक नहीं पहुंच पाता। कोई घर-परिवार के दायरे से बाहर ही नहीं सोच पाता, किसी की संवेदना समाज तक सीमित रहती है तो कोई इसे प्रांत तक ले जाता है। चंद लोग ही इस दायरे को राष्ट्र तक ले जाते हैं, पर हिंदू धर्म के अनुसार आदर्श स्थिति यहीं तक नहीं है।
अगर मैं हिंदू हूं और मैंने अपनी एकात्मता के दायरे को राष्ट्र तक विस्तृत कर लिया है तो भी यह मेरे लिए आदर्श व अंतिम स्थिति नहीं है, क्योंकि हमारे यहां कहा गया है, ‘स्वदेशो भुवनत्रय’। यानी त्रिभुवन को अपना मान लो व विश्व नागरिक बन जाओ। इसी आदर्श स्थिति को सूक्ति में पिरोते हुए ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ कहा गया। विश्व एक परिवार और जगत के साथ एकाकार होने का विचार बड़ा सुंदर है। हिंदू अपने जीवन में इसी विचार को जीते हैं। सत्यनारायण की पूजा समेत हर धार्मिक कार्य पूर्ण होने के बाद जयकारे में पुरोहित ‘विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो’ जैसे सद्वाक्य दोहराने को कहता है। हमारा शांतिपाठ मंत्र भी ऐसा ही है-
सर्वे भवन्तु सुखिन:। सर्वे सन्तु निरामया:।। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चिन दु:ख भाग्भवेत्।। ऊं शांति: शांति: शांति:।।
अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और कोई दुखी नहीं हो। सवाल है कि आज जब विश्व में संघर्ष चरम पर है और उन्मादी व विस्तारवादी शक्तियां हिंदुत्व को निगलने पर आमादा हैं तो ऐसे में ‘वसुधैव कुटुंबम्’ का आदर्श भाव, सबके कल्याण व मंगल की कामना का दर्शन आत्मघातक व मूर्खतापूर्ण नहीं होगा? इसका सहज उत्तर है- नहीं। ऐसा इसलिए नहीं होगा, क्योंकि हिंदू एक साथ अलग-अलग स्तर पर चिह्नित हैं। हमारा संस्कार कहता है कि जागृति के विकास क्रम में पहले परिवार, समाज, प्रांत और राष्ट्र के साथ एकाकार हो जाओ। उसे अपना कुटुंब मानो और जब इस स्थिति को प्राप्त कर लो तो सारे जगत को इस दायरे में ले आओ, पर यह स्थिति क्रमबद्ध होनी चाहिए।
हिंदू जीवन-दर्शन इसी सिद्धांत व विकास-क्रम पर आगे बढ़ा है। इस अभिनव प्रयोग को हमारे पूर्वजों ने अपनाया, जो लक्ष्मी, सरस्वती व शक्ति से संपन्न थे। वे वीर, उदार, संस्कारित, शिक्षित, लक्ष्मीवंत, त्यागी व दानी थे। समाज में जाति भेद नहीं था, लैंगिक असमानताएं नहीं थीं। समाज के निचले पायदान पर बैठी शबरी माता के जूठे बेर खाने वाले श्रीराम के सखाओं में वानर राज सुग्रीव, निषादराज केवट भी थे। वेद मंत्रों की संकलनकर्ताओं में माताएं थीं तो रानियों ने देवासुर संग्राम में सेना का कुशल संचालन भी किया। क्रमबद्ध विकास के चरण में हमने पहले अपना घर ठीक किया, फिर समाज व राष्ट्र। देश व देशवासियों के उत्थान व उनके साथ एकात्म होने के पश्चात भी हम रुके नहीं, अपितु ‘कृण्वन्तो विश्वार्यम्’ व ‘सारा विश्व मेरा परिवार है’ की उदार भावना के साथ विश्व एवं पूरी मानव जाति को शिक्षित एवं संस्कारित करने निकल गए। पर ‘कृण्वन्तो विश्वार्यम्’ और सारा विश्व एक परिवार के आदेश के साथ ऋषियों का एक आदेश और भी था-इंद्रम्वर्धन्तो अप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। अपघ्नन्तो अराव्ण:॥ यानी क्रियाशील बनो, प्रभु महिमा का प्रचार करो, ऐश्वर्य बढ़ाओ, विश्व को आर्य बनाओ, राक्षसों का संहार करो।
हम समाज या राष्ट्र के साथ एकात्म हैं, पर इस एकात्मता का यह अर्थ नहीं है कि समाज के अराजक, हिंसक एवं दुष्ट तत्वों को कुटुंब का अंग मानकर उसकी शठता पर आंखें मूंद लें। ‘अपघ्नन्तो अराव्ण:’ का आदेश भी इसीलिए था। जब तक विस्तारवाद की आकांक्षा वाले मजहबों का उदय नहीं हुआ था तब तक आदर्श स्थिति थी, पर ऐसे मजहब व विचार वजूद में आ गए जो ईश्वर के प्रति आस्था को लेकर भी संकीर्णता रखते हैं। हमारे पास बाद वाले आदेश को मानने का विकल्प भी है।
‘विश्व परिवार’ की रक्षा आसुरी शक्तियों से करना भी तो कुटुंब भाव में ही आता है। अत: इस विचार में कोई शंका नहीं है। ‘विश्व एक परिवार है, जहां सबको जीने का अधिकार है’ और सबके मंगल की कामना का विचार हमें पूर्वजों से मिली सबसे दिव्य व उद्दात थाती है, क्योंकि इसी में ‘अपघ्नन्तो अराव्ण’ का आदेश भी अंतर्निहित है। (अभिजीत सिंह की फेसबुक वॉल से)
टिप्पणियाँ