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जो लोग पद्मावती को मात्र कल्पना मान रहे हैं और हिंदुओं की भावना को कुचल रहे हैं, वे वास्तव में इतिहास को झुठला रहे हैं। ये लोग अलाउद्दीन की लंपटता-कामुकता को नजरअंदाज कर उसे ‘प्रेम-पुजारी’ बता रहे हैं
डॉ़ अवनिजेश अवस्थी
मध्यकालीन भारत के इतिहास के जिस पद्मावती प्रसंग को स्वनामधन्य इतिहासकार मलिक मुहम्मद जायसी की कवि-कल्पना बताने में जरा भी नहीं हिचक रहे उस चित्तौड़ की रानी पद्मावती के जौहर की घटना राजस्थान के गांवों, कस्बों और रेगिस्तान में ठीक वैसे ही रची-बसी है जैसे कभी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संदर्भ में सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा था, ‘‘बुंदेले-हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’’ पद्मावती और चित्तौड़ के स्वत्व और स्वतंत्रता की रक्षा में जान न्योछावर कर देने वाले गोरा-बादल की शूरवीरता के किस्से खेत-खलिहानों में वैसे ही रचे-बसे हैं जैसे बुंदेलखंड में आल्हा-ऊदल के अद्भुत-अपूर्व शौर्य के किस्से। गोरा-बादल और आल्हा-ऊदल जैसे शूरवीरों का उल्लेख इतिहास में यदि नहीं मिलता तो इसमें उन्हीं इतिहासकारों का सीमित-संकुचित और निहायत ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त नजरिया उत्तरदायी है, क्योंकि उन्हें लोक में प्रचलित और रचा-बसा इतिहास, इतिहास से बाहर की चीज दिखाई देता है और दरबारों में बैठकर नवरत्नों द्वारा लिखे गए ‘नामा’ (बाबरनामा, हुमायंूनामा से लेकर औरंगजेबनामा तक) इतिहास में प्रामाणिक स्रोत दिखाई देते हैं।
बहरहाल, मध्यकालीन भारत के एक इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी हैं, जिन्होंने ‘तारीखे फिरोजशाही’ लिखी और जिन्हें वे स्वनामधन्य इतिहासकार भी ‘इतिहास लेखक’ के रूप में स्वीकार करते हैं और उनकी पुस्तक ‘तारीखे फिरोजशाही’ को प्रामाणिक स्रोत के रूप में उद्धृत करते हैं। बरनी ने क्या लिखा है, जरा इस पर भी गौर करें। अलाउद्दीन से पहले जलालुद्दीन खिलजी जिसको मारकर अलाउद्दीन ने सिंहासन हासिल किया था, के विषय में गैर-मुसलमानों को लेकर उसके (जलालुद्दीन) सोच पर बरनी ने लिखा है, उस पर वामपंथी राजनीति में सक्रिय कर्मेन्दु शिशिर (उनके परिचय में यही उल्लेख है) लिखते हैं, ‘‘इसी सुल्तान ने जो अपने राज्य में एक चींटी का दिल भी न दुखाना चाहता था, रणथम्भौर प्रयाण में भक्यन में ऐसी तबाही मचाई कि सारे मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया, मूर्तियां तुड़वा दीं और आग लगवा दी। भक्यन और मालवा को लूटकर धन अपनी सेना में बांट दिया। उसकी सारी ममता, सारी दया सिर्फ मुसलमानों तक सीमित थी।’’ गैर मुसलमानों को लेकर उसके सोच पर बरनी ने लिखा है, ‘‘यह नहीं देखता कि प्रतिदिन हिंदू जो कि खुदा और मुस्तफा के शत्रु हैं बड़े ठाठ-बाट तथा शान से मेरे महल के नीचे से होकर यमुना तट पर जाते हैं, मूर्ति पूजा करते हैं और शिर्क तथा कुफ्र के आदेशों का हमारे सामने प्रचार करते हैं, और हम जैसे निर्लज्ज जो कि अपने आपको मुसलमान बादशाह कहते हैं, कद्र नहीं कर सकते।’’ इतना ही नहीं, उसे यह लगता था कि अगर वह इस्लाम का सच्चा मानने वाला बादशाह होता तो ‘‘हिन्दुओं को, जो मुस्तफा के मजहब के कट्टर शत्रु हैं, निश्चिन्त होकर पान का बीड़ा न खाने देता और न उन्हें श्वेत वस्त्र पहनने देता और न उन्हें मुसलमानों के बीच ठाठ-बाट से जीवन व्यतीत करने देता।’’ उसे अपनी बादशाही, अपने मजहब पर लज्जा आती और वह इस बात पर शर्मिंदा था कि उसके नाम पर खुत्बा पढ़ा जाता है और उसे इस्लाम का रक्षक बताया जाता है। आप कल्पना कर सकते हैं कि सबसे सहृदय मुस्लिम शासक का कैसा सोच था? जाहिर था, ऐसा नहीं कर पाने के पीछे सिर्फ एक ही कारण होगा कि प्रजा बहुसंख्यक हिंदू है, कहीं वह विद्रोह न कर दे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शासक और जनता के बीच किस तरह का सोच रहा होगा और कैसी संस्कृति। ये शब्द किसी ‘दक्षिणपंथी’ ‘हिंदूवादी’ कहे जाने वाले इतिहासकार के नहीं, बल्कि छात्र जीवन से वामपंथी राजनीति में सक्रिय लेखक के हैं, अन्यथा तो इसे भी इतिहास की हिंदूवादी व्याख्या कह कर खारिज कर दिया जाता। उल्लेखनीय बात यह है कि उस जलालुद्दीन खिलजी के बारे में है जिसे ‘दयालु-कृपालु’ कहा जाता है। जलालुद्दीन को जिस तरह से पत्थर से मार कर इसी सुल्तान का भतीजा और दामाद अलाउद्दीन सिंहासनारूढ़ हुआ, वह वर्णन तो रोंगटे खड़े कर देने वाला है। ऐसे बर्बर, लम्पट, हवस और वासना के मारे हुए अलाउद्दीन पर जब फिल्म बनती है तो सवाल उठता है कि ऐसे सुल्तान की ‘कामुकता’ तो केवल एक पहलू भर है, जिसकी जिद यह है कि उसे जो पसंद आ गया, वह उसे हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था। ऐसे सुल्तान के राज्य में स्त्रियों की क्या दशा रही होगी, इतना ही नहीं, मलिक काफूर जैसे पुरुष तक से उसके रिश्ते पर बरनी ने लिखा है, उसे फिल्मकार ने कैसे दिखाया है? अपनी इन कुत्सित वासनाओं को पूरा करने के लिए उसने राज्य की जनता पर क्या-क्या कहर ढाए थे, इसे दिखाने का साहस क्या संजय लीला भंसाली में है? उनका हाल भी तस्लीमा और सलमान रुशदी जैसा ही हो जाएगा—इसमें कोई संदेह नहीं। ‘पद्मावती’ इतिहास का हिस्सा है कि नहीं, इस पर तो हम अभी बात करेंगे ही, लेकिन अलाउद्दीन खिलजी तो इतिहास का हिस्सा है जिसका बरनी जैसे लेखक ने वर्णन किया है, जिससे इरफान हबीब भी नहीं झुठला सकते तो उस ‘ऐतिहासिक चरित्र’ की इन ‘चारित्रिक विशेषताओं’ को छिपा ले जाने को फिल्मकार की स्वतंत्रता कह कर उसकी नीयत को साफ नहीं कह सकते।
फिल्म पर विवाद होने का एक बहुत ही मजेदार पहलू सामने आया है- ‘बडेÞ-बडेÞ इतिहासकार’ अचानक यह साबित करने में लग गए कि फिल्म तो जायसी के ‘पद्मावत’ पर आधारित है और यह कवि की काल्पनिक रचना है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार ही नहीं, सूफी मसनबियों पर काम करने वाले गोपीचंद नारंग भी बिल्कुल साफ-साफ लिखते हैं, ‘‘पद्मावत की कहानी के दो हिस्से हैं। पहला काल्पनिक और दूसरा अर्ध ऐतिहासिक। पहले हिस्से में सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन की सुंदर बेटी पद्मावती जवान होने के बाद उदास रहने लगी।़.़. इसके बाद का हिस्सा अर्ध ऐतिहासिक रंग का है। सुल्तान अलाउद्दीन ने चित्तौड़ से निकाले हुए राघू नामक एक ब्राह्मण से पद्मिनी के सौंदर्य का वर्णन सुना और उसे प्राप्त करने के लिए बेचैन हो गया। चित्तौड़ पर चढ़ाई की गई, लेकिन आठ वर्ष बाद भी किला जीता न जा सका। अन्तत: अलाउद्दीन ने सुलह कर ली। रत्नसेन ने सुल्तान की निरन्तर कई रोज तक दावत की। एक दिन संयोग से महल के करीब एक दर्पण में अलाउद्दीन ने पद्मावती का रूप देख लिया, जिसके बाद सुल्तान की इच्छा और बेचैनी कई गुना बढ़ गई। जब कोई उपाय कारगर होता न दिखा तो अलाउद्दीन ने धोखे से रत्न सेन को गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली में लाकर कैद कर लिया।’’ राजपूत सरदारों ने राजा रत्न सेन को रिहा कराने के लिए चाल चली। कुछ जांबाज सिपाही पालकियों में छिपकर दिल्ली पहुंचे। मशहूर किया गया कि पद्मिनी अलाउद्दीन के हरम में दाखिल होने के लिए आई है, अत: उसे राजा रत्न सेन से आखिरी बार मिलने की इजाजत दी गई। पालकियों में छिपे हुए राजपूत ठीक अवसर पर तलवारें सूत-सूत कर बाहर निकल आए और उन्होंने किले के सिपाहियों को मार गिराया। इस तहर राजा अलाउद्दीन की कैद से निकल पाने में कामयाब हो गया।’’ यद्यपि इतिहासकारों की दलीलों के आधार पर गोपीचंद इसे अलाउद्दीन खिलजी से संबंद्ध मानने के विरुद्ध भी प्रमाण देते हैं, लेकिन इस तथ्य का भी उल्लेख करते हैं कि ‘तारीखे फर्रवता’ में यह कथा अलाउद्दीन से संबंद्ध ही है। हालांकि वे गोरा-बादल की कथा के कारण इसे अलाउद्दीन की बजाय गयासुद्दीन के साथ जोड़कर देखते हैं।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि तमाम बिखरे हुए प्रमाणों को जोड़कर देखने पर पद्मावती जायसी की ‘पद्मावत’ की कल्पना भर नहीं, बल्कि ऐतिहासिक घटना है जिसे राजस्थान के इतिहासकारों ने तो स्वीकार किया ही है—अबुल फजल की ‘आइने अकबरी’, ‘हज्जीउद्दवीर’, और मुहम्मद कासिम फर्रश्ता तक ने इस घटना का इतिहास के रूप में ही वर्णन किया है।
इतिहास के साथ अब जरा समसामयिक संदर्भ फिल्म ‘पद्मावती’ पर भी विचार करें। फिल्म अभी प्रदर्शित नहीं हुई, लेकिन यह केवल फिल्म भर नहीं है-यह भारतवर्ष के उस मध्यकाल का चित्र है जब इस देश पर लगातार उत्तर-पश्चिम से आक्रमण हो रहे थे, मंदिर तोड़े जा रहे थे, हिंदू जनता का रोजमर्रा का जीवन दुश्वार हो गया था, लालच भय और आतंक से कन्वर्जन हो रहा था, सिंहासन तक पहुंचने के लिए कभी बेटा, कभी भतीजा-दामाद या सरदार-सूबेदार सुल्तान की निर्मम हत्या कर रहे थे। चरित्रों और प्रसंगों को लेकर फिल्म को किसी भी हालत में कोरी कल्पना नहीं ठहराया जा सकता, प्रेम कहानी वाली फिल्म कोई भी फिल्मकार बनाए, रोज बनती हैं, हजारों की संख्या में बनती हैं, कहीं कोई विरोध नहीं होता, हंगामा नहीं होता, लेकिन जब आप किसी ऐतिहासिक चरित्र पर बनाते हैं तो केवल इतना भर लिख देने से आपको इतिहास से खिलवाड़ करने की छूट नहीं मिल जाती कि फिल्म में दिखाए गए दृश्य कल्पना भर हैं, इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं हैं। इतिहास की घटनाओं, प्रसंगों, पात्रों, चरित्रों को लेकर फिल्म बनाएंगे तो ऐतिहासिक तथ्यों को भी स्वीकार करना ही पड़ेगा। संजय लीला भंसाली अब यह सफाई देते तो घूम रहे हैं कि उसमें कोई आपत्तिजनक दृश्य नहीं है, लेकिन मैं उनसे बड़ी विनम्रता से पूछना चाहूंगा कि ‘पद्मावती’ का चरित्र पे्रम-कथा का नहीं, बल्कि विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध तत्कालीन समाज का अनवरत संघर्ष है। पद्मावती का किले की तमाम स्त्रियों के साथ जौहर करना प्रेम और शृंगार का कथानक नहीं है, यह भारतीय परंपरा की उस कड़ी का हिस्सा है जिसमें सीता, द्रौपदी और सावित्री जैसी नारियां आती हैं जो भारी-भारी गहने पहन कर झूमर नृत्य नहीं करतीं, बल्कि वन में पंचवटी में रहती हैं, अज्ञातवास में रहती हैं और आवश्यकता पड़ने पर यमराज से भी भिड़ जाती हैं, लेकिन भंसाली की इच्छा इन सब पर सोचने की नहीं है। यूं आप जब चाहें अमीर खुसरो से लेकर जियाउद्दीन बरनी तक के इतिहास-वर्णनों पर बहस हो सकती है, जिसमें अलाउद्दीन की लंपटता-कामुकता के असंख्य उदाहरण हैं जिसे आप ‘प्रेम पुजारी’ बना कर प्रस्तुत करना चाहते हैं।
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