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सैयद अहमद खान को कुछ लोग उदारवादी बताते हैं। पर इतिहास साक्षी है कि उन्होंने द्विराष्टÑवाद के सिद्धांत को गढ़ा था, जिसके आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ। इसलिए पाकिस्तान में उन्हें रहनुमा मानने वालों की कमी नहीं है
सतीश पेडणेकर
यह वर्ष अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सैयद अहमद की दूसरी जन्मशताब्दी के तौर पर मनाया जा रहा है। इस अवसर पर सेकुलर प्रेस सैयद की शान में कसीदे गढ़ रहा है। उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रणेता, मुस्लिम उदारवाद के मसीहा, मुस्लिम नव जागरण के अग्रदूत आदि बता रहा है। मगर लगता है उन्होंने सैयद के जीवन के केवल एक हिस्से को ही पढ़ा है। मुहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान का जनक कहा जाता है। पर जब पाकिस्तान के आंदोलन की पड़ताल की जाती है तो इस आंदोलन के तार सैयद के साथ जुड़े पाए जाते हैं इसलिए उन्हें पाकिस्तान का पितामह मानने वाले भी बहुत हैं। दरअसल, पाकिस्तान जिस द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर बना, उसके प्रणेता सैयद ही थे। इसलिए उन्हें द्विराष्ट्रवाद का जनक भी कहा जाता है। उनके इस सिद्धांत को ही आगे चलकर इकबाल और जिन्ना ने विकसित किया जो पाकिस्तान के निर्माण का सैद्धांतिक आधार बना। इतिहासकार डॉ. रमेशचंद्र मजूमदार कहते हैं, ‘‘सैयद ने द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रचार किया, जो बाद में अलीगढ़ आंदोलन की नींव बना। इसके बाद मुस्लिम अलग राष्ट्र है, इस सिद्धांत को गति मिलती रही। इससे पैदा हुई समस्या को पाकिस्तान निर्माण के जरिए हल किया गया।’’
वे भारत के पहले मुसलमान थे, जिन्होंने विभाजन के बारे बोलने का साहस किया और यह पहचाना कि हिंदू-मुस्लिम एकता असंभव है, उन्हें अलग होना चाहिए। बाद में जिन्ना की इच्छा के मुताबिक जो हुआ, उसका पितृत्व सर
सैयद का है।
-हेक्टर बोलियो, जिन्ना के जीवनीकार
सैयद मुस्लिम राष्ट्र स्थापित करने वाले संस्थापकों में से एक थे। उनके द्वारा डाली गई नींव कायदे आजम ने इमारत बना कर पूरी की।
-मोइनुल हक, पाकिस्तानी लेखक
मुस्लिम लीग के नेता और जिन्ना के सहयोगी खलीखुज्जमां सैयद अहमद का उल्लेख मुस्लिम भारत के ‘पिता’ के तौर पर करते थे। जिन्ना के जीवनीकार हेक्टर बोलियो लिखते हैं, ‘‘वे भारत के पहले मुसलमान थे, जिन्होंने विभाजन के बारे में बोलने का साहस किया और यह पहचाना कि हिंदू-मुस्लिम एकता ‘असंभव’ है, उन्हें अलग होना चाहिए। बाद में जिन्ना की इच्छा के मुताबिक जो हुआ, उसका पितृत्व सर सैयद का है।’’ पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रकाशित ‘आजादी के आंदोलन का इतिहास’ में मोइनुल हक कहते हैं, ‘‘सैयद मुस्लिम राष्ट्र स्थापित करने वाले संस्थापकों में से एक थे। उनके द्वारा डाली गई नींव कायदे-आजम ने इमारत बना कर पूरी की।’’ सैयद ने मुस्लिम हितों पर स्वतंत्र और अलग तरीके से विचार करना शुरू किया था। इस तरह हिंदुओं और मुस्लिमों में एक भेद निर्माण किया। इसलिए उन्हें ‘अलगाववाद का पिता’ भी कहा जाता है। इस अलगाववाद और द्विराष्ट्रवाद की परिणति अगले कालखंड में विभाजन में हुई। इसलिए उनके बिना इन मुद्दों पर विचार किया ही नहीं जा सकता।
1857 की क्रांति ने भारत पर ब्रिटेन की सैनिक विजय को अंतिम रूप दे दिया और मुस्लिम राज्य की पुनर्स्थापना के वहाबी स्वप्न को धूल-धूसरित कर दिया। ब्रिटिश शासकों ने मुसलमानों को अपना मुख्य शत्रु मानकर उन पर दमनचक्र चलाया। इससे मुस्लिम नेतृत्व को भय हुआ कि ब्रिटिश सत्ता के सहयोग एवं अंग्रेजी शिक्षा में बहुत आगे बढ़े हिंदू अब बहुत अधिक शक्तिशाली हो जाएंगे। इस भावी खतरे को सबसे पहले सैयद ने पहचाना। मुसलमानों के प्रति ब्रिटिश आक्रोश को कम करने और ब्रिटिश सरकार और मुसलमानों के बीच सहयोग का पुल बनाने के लिए उन्होंने योजनाबद्ध प्रयास आरंभ किया। उन्होंने यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि इस क्रांति के लिए मुसलमान-हिंदू जिम्मेदार थे।
सैयद भले ही मुस्लिमों में अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे मगर मुस्लिम मजहब, इतिहास, परंपरा, राज्य और उसके प्रतीकों और भाषा पर उन्हें बहुत अभिमान था। उनकी राय थी कि अंग्रेजी पढ़े मुसलमानों को भी उर्दू सीखनी चाहिए। मुगल काल से ही सरकारी कामकाज में फारसी का इस्तेमाल होता था। 1867 में अंग्रेज सरकार ने हिंदी और देवनागरी के इस्तेमाल का आदेश जारी किया। उत्तर प्रदेश की बहुसंख्य जनता हिंदू थी। उसके लिए उर्दू लिपि बहुत कठिन थी। इसलिए यह आदेश उचित ही था। मगर इसमें मुस्लिमों की अस्मिता आडेÞ आ गई। वे इस बात से बहुत बेचैन थे कि अब राज्य के बाद हमारी भाषा भी गई। तब सैयद ने उर्दू के पक्ष में जोरदार प्रचार शुरू किया। उन्होंने ‘डिफेंस आॅफ उर्दू सोसाइटी’ की स्थापना की। उर्दू के इस्लामी संस्कृति की वाहक होने के कारण इस विवाद को हिंदू-मुस्लिम का स्वरूप प्राप्त हुआ। ऊपर से यह भले ही भाषा का मुद्दा था मगर उसकी जड़ें बहुत गहरी थीं। डॉ. इकराम ने कहा है, ‘‘आधुनिक मुस्लिम अलगाव की शुरुआत सैयद द्वारा हिंदी बनाम उर्दू का मुद्दा हाथ में लेने से हुई।’’ कुछ पाकिस्तानी इतिहासकार कहते हैं कि तब ही उन्होंने घोषणा की थी हिंदू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं, भविष्य में उनमें विभाजन होगा।
सैयद अहमद को अक्सर उदारवादी और हिंदू मुस्लिम एकता के पक्षधर के रूप में पेश किया जाता है। 1867 से 1887 तक के बीच सैयद गोलमोल तरीके से ही सही, हिंदू-मुस्लिम मेलजोल की बात करते थे। उनके इस वाक्य का अक्सर हवाला दिया जाता है कि हिंदू और मुस्लिम एक वधू की दो आंखों की तरह हैं। यह उनका शुरुआती दौर था। तब उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए हिंदू राजाओं और जमींदारों से चंदा भी लेना होता था। दूसरा वे अंग्रेजों और हिंदुओं दोनों की एक साथ दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे। पहले वे हिंदू और मुस्लिमों को दो कौमें बताते थे तो उसका मतलब होता था दो समाज। मगर 1887 से वे कौम शब्द का उपयोग राष्ट्र के संदर्भ में करने
लगे और खुलकर द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में बोलने लगे।
कालांतर में सैयद के विचारों में परिवर्तन आ गया। वे रूढ़िवादी और सांप्रदायिक बनते चले गए। उन्हें प्रजातंत्र की स्थापना पर आपत्ति थी, क्योंकि उस समय उनके अनुसार देश के सभी वर्ग समान रूप से शिक्षित और प्रगतिशील नहीं थे। उनके अंदर यह डर समाने लगा था कि प्रजातंत्र की स्थापना के बाद भारत दो दलों—हिंदू और मुसलमान में बंट जाएगा जिससे अल्पसंख्यक मुसलमान कभी सत्ता में नहीं आ सकेंगे। इसलिए उनका झुकाव अंग्रेजी राज और उनके द्वारा मनोनीत प्रशासकों के प्रति हो गया। जब कांग्रेस की स्थापना हुई तो वे इसके कट्टर विरोधी के रूप में प्रकट हुए। सैयद ने जब उर्दू के पक्ष में मामला उठाया था तब यह मुद्दा हिंदू बनाम मुस्लिम का नहीं बना था, क्योंकि हिंदू राजनीतिक तौर पर संगठित नहीं थे। मगर 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो दो साल में ही सैयद के ध्यान में आया कि कांग्रेस हिंदू और मुसलमानों और सभी के लिए सेकुलर होने के बावजूद वह बहुसंख्यक हिंदुओं की ही संस्था रहने वाली है। इस संस्था के जरिए हिंदू राजनीतिक तौर पर संगठित होंगे। भविष्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था आने पर बहुसंख्यक हिंदुओं को ही लाभ होगा। इसके बाद उन्हें हिंदुओं का खुला विरोध करने की जरूरत महसूस होने लगी।
14 मार्च, 1888 को मेरठ में दिया गया उनका भाषण बेहद भड़काऊ था। इसमें वे हिंदुओं और मुसलमानों को दो ‘राष्ट्र’ मानने लगे थे। उन्होंने यह बहस छेड़ दी थी कि अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता किसके हाथ में आएगी। और उनका दृढ़ विश्वास था कि हिंदू-मुस्लिम मिलकर इस देश पर शासन नहीं कर सकते। उन्हें लगता था कि केवल गृहयुद्ध से ही इसका फैसला हो सकता है। अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘‘सबसे पहला सवाल यह है कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में आने वाली है? मान लीजिए, अंग्रेज अपनी सेना, तोपें, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोड़कर चले गए तो इस देश का शासक कौन होगा? क्या उस स्थिति में यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक ही सिंहासन पर बैठें? निश्चित ही नहीं। उसके लिए जरूरी होगा कि दोनों एक- दूसरे को जीतें, एक-दूसरे को हराएं। दोनों सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह सिद्धांत समझ में नहीं आने वाला है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘इसी समय आपको यह बात ध्यान में लेनी चाहिए कि मुसलमान हिंदुओं से कम हों मगर वे दुर्बल हैं, ऐसा मत समझिए। उनमें अपने स्थान को टिकाए रखने का सामर्थ्य है। हमारे पठान बंधु पर्वतों और पहाड़ों से निकल कर सरहद से लेकर बंगाल तक खून की नदियां बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद यहां कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारक नहीं बनाएगा तब तक इस देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती।’’ यहां सैयद ने आने वाले समय में हिंदुओं के खिलाफ सशस्त्र जिहाद की घोषणा की थी। उन्होंने कहा कि भारत में प्रतिनिधिक सरकार नहीं आ सकती, क्योंकि प्रतिनिधिक शासन के लिए शासक और शासित लोग एक ही समाज के होने चाहिए। फिर मुसलमानों को उत्तेजित करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘जैसे अंग्रेजों ने यह देश जीता वैसे हमने भी इस देश को अपने अधीन और गुलाम बनाया हुआ था। वैसा ही अंग्रेजों ने हमारे बारे में किया हुआ है।…अल्लाह ने अंग्रेजों को हमारे शासक के रूप में नियुक्त किया हुआ है।…उनके राज्य को मजबूत बनाने के लिए जो करना आवश्यक है, उसे ईमानदारी से कीजिए। …आप यह समझ सकते हैं मगर जिन्होंने इस देश पर कभी शासन किया ही नहीं, जिन्होंने कोई विजय हासिल ही नहीं की, उन्हें (हिंदुओं को) यह बात समझ में नहीं आएगी। मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि आपने बहुत से देशों पर राज किया है। आपको पता है राज कैसे किया जाता है। आपने 700 साल भारत पर राज किया है। अनेक सदियों तक कई देशों को अपने अधीन रखा है।’’ अंत में उन्होंने कहा, ‘‘सरकार की आप पर बारीक नजर है। हिंदुओं से भी लड़ना हो तो सरकार को यह संकेत दे दिया गया है। हमारे साथ रहें तो ठीक है। नहीं तो…।’’
इसके कुछ समय बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उन्होंने कहा, ‘‘यह सही है कि अनेक वर्षों तक इस देश पर हमारी मिल्कियत रही है और यह भी सही है कि हम पूर्वजों के वैभव को कभी भुला नहीं सकते। हमारे पूर्वजों के पास जो मिल्कियत थी वह अब अंग्रेजों के पास चली गई है मगर उससे हमें ईर्ष्या नहीं होती।’’ 2 दिसंबर, 1887 को लखनऊ में मुस्लिम समाज को संबोधित करते हुए उन्होंने बताया था कि वर्तमान राजनीतिक स्थिति में मुसलमानों की क्या भूमिका होनी चाहिए। वे स्पष्ट करते हैं कि किस तरह लोकतंत्र निरर्थक है। उन्होंने कहा था, ‘‘कांग्रेस की दूसरी मांग वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्यों को चुनने की है। समझो ऐसा हुआ कि सारे मुस्लिमों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट दिए तो हरेक को कितने वोट पड़ेंगे। यह तो तय है कि हिंदुओं की संख्या चार गुना ज्यादा होने के कारण उनके चार गुना ज्यादा सदस्य आएंगे, मगर तब मुस्लिमों के हित कैसे सुरक्षित रहेंगे। …अब यह सोचिए कि कुल सदस्यों में आधे सदस्य हिंदू और आधे मुसलमान होंगे और वे स्वतंत्र रूप से अपने-अपने सदस्य चुनेंगे। मगर आज हिंदुओं से बराबरी करने वाला एक भी मुस्लिम नहीं है।’’
यानी सैयद आनुपातिक प्रतिनिधित्व तो छोड़ दीजिए समान प्रतिनिधित्व से भी संतुष्ट नहीं थे। उन्हें युद्ध ही एकमात्र विकल्प लगता था। उनकी नजर में मुसलमान फिर भारत के शासक बनें, यही समस्या का हल था। उन्होंने कहा, ‘‘पलभर सोचें कि आप कौन हैं? आपका राष्ट्र कौन-सा है? हम वे लोग हैं, जिन्होंने भारत पर छह-सात सदियों तक राज किया है। हमारे हाथ से ही सत्ता अंग्रेजों के पास गई।…हमारा राष्ट्र वह है जिसने तलवार से एक धर्म मानने वाले भारत को जीता है। मुसलमान अगर सरकार के खिलाफ आंदोलन करें तो वह हिंदुओं के आंदोलन की तरह नरम नहीं होगा। तब आंदोलन के खिलाफ सरकार को सेना बुलानी पड़ेगी, बंदूकें इस्तेमाल करनी पड़ेेंगी। जेल भरने के लिए नए कानून बनाने होंगे।’’
बदरुद्दीन तैयब 1887 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। उनसे कुछ मुद्दों पर सैयद के मतभेद थे। उन्हें लिखे एक पत्र में सैयद कहते हैं, असल में कांग्रेस नि:शस्त्र गृहयुद्ध खेल रही है। इस गृहयुद्ध का मकसद है कि देश का राज किसके (हिंदुओं या मुसलमानों) के हाथों में आएगा। हम भी गृहयुद्ध चाहते हैं मगर वह नि:शस्त्र नहीं होगा। यदि अंग्रेज सरकार इस देश के आंतरिक शासन को इस देश के लोगों के हाथों में सौंपना चाहती है तो राज्य सौंपने से पहले ऐसी परीक्षा होनी चाहिए। जो इसमें विजयी होगा उसी के हाथों में सत्ता सौंपी जानी चाहिए। लेकिन इस परीक्षा में हमें हमारे पूर्वजों की कलम (तलवार) इस्तेमाल करने देने चाहिए।’’
अलीगढ़ इंस्टीट्यूट के 1अप्रैल, 1890 के गजट में उन्होंने भविष्यवाणी की थी, ‘‘यदि सरकार ने इस देश में जनतांत्रिक सरकार स्थापित की तो इस देश के विभिन्न मतों के अनुयायियों में गृहयुद्ध हुए बिना नहीं रहेगा।’’ 1893 में एक लेख में उन्होंने धमकी दी थी, ‘‘जब बहुसंख्यक उन्हें (मुसलमानों को) दबाने की कोशिश करते हैं तो वे हाथों में तलवारें ले लेते हैं। यदि ऐसा हुआ तो 1857 से भी भयानक स्थिति हो सकती है।’’ 1887 के बाद वे वर्षों तक बिना लागलपेट इस तरह के विचार प्रगट करते रहे। 1868 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के समय सैयद ने कहा था, ‘‘यह मुसलमानों को अपनी अस्मिता, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए शिक्षा देने का स्थान है। इसलिए इसका नाम ‘एंग्लो-मोहम्मडन ओरियंटल कॉलेज’ रखा गया। 1885 में जब कांग्रेस की स्थापना की बात चली तो बदरुद्दीन तैयब ने सैयद को उसमें शामिल होने के लिए कहा। तब उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया था कि ‘हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग कौमें हैं, उनकी अलग-अलग पहचान है और दोनों को एक करने की बात मैं कभी सोच भी नहीं सकता।’ इन सबके बावजूद आज का सेकुलर मीडिया और वामपंथी बुद्धिजीवी उन्हें बड़ा ‘उदारवादी’ बता रहे हैं। इन सबको बेनकाब करना ही चाहिए।
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