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म्यांमार से भगाए जा रहे रोहिंग्या इन दिनों सारी दुनिया में चर्चा का विषय बने हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठन उन्हें ऐसे अल्पसंख्य समूह के तौर पर चित्रित कर रहे हैं, जिन्हें म्यांमार के बौद्ध बहुसंख्यक बताकर देश छोड़ने को मजबूर कर रहे हैं। लेकिन कई जानकारों का कहना है कि यह दक्षिण एशिया में चल रहे बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष का नतीजा है। अमेरिकी लेखक सेमुअल हंटिंग्टन ने कहा था— 'भविष्य में राजनीतिक विचारधाराओं के बीच नहीं, सभ्यताओं या पंथों के बीच संघर्ष होगा।' दक्षिण एशिया में यही हो रहा है। रोहिंग्या समस्या म्यांमार के बौद्धों पर रोहिंग्या मुसलमानों के अत्याचारों के प्रतिकार से उपजी है। आज यह संघर्ष केवल म्यांमार तक ही सीमित नहीं है बल्कि श्रीलंका और थाइलैंड में भी बौद्ध अपने धर्म को बचाने के लिए कट्टरपंथी मुसलमानों के खिलाफ संघर्षरत हंै।
इन सभी देशों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं मगर विडम्बना यह है कि बौद्ध बहुसंख्यकों को उनसे खतरा महसूस होता है। रोहिंग्या अत्याचारों के विरुद्ध अभियान की बागडोर शांतिप्रिय और ध्यान में निमग्न रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं के हाथों में है। म्यांमार के बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु, श्रीलंका के बौद्ध भिक्षु गनसारा और विथानागे मजहबी कट्टरपंथियों के मंसूबों को भरपूर ताकत से कुचलने में विश्वास रखते हैं। हालात की ज्यादा जानकारी न रखने वाले लोग हैरान हैं कि सहिष्णु और अहिंसक बौद्ध भिक्षु इतना गुस्से में क्यों हैं।
यह सब हो रहा है म्यांमार और श्रीलंका में, जो एक-दूसरे से करीब एक हजार मील दूर हैं। कारण यह है कि वहां के बौद्ध और बौद्ध भिक्षु बौद्ध देशों में बढ़ते इस्लामी विस्तारवाद के खिलाफ हैं। उनके मन में यह बात पैठी हुई है कि ''एक समय संपूर्ण एशिया में बौद्ध धर्म सत्ता के शिखर पर था। लेकिन इस्लाम के उदय के बाद बौद्ध धर्म ने दक्षिण एशिया के बहुत से राष्ट्र खो दिए।'' विराथु कहते हैं कि उनका धर्म खतरे में है। उनका कहना है, ''इस्लाम पहले ही इंडोनेशिया, मलेशिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को जीत चुका है। ये सब बौद्ध धर्म की उपासक भूमि के अंतर्गत थे। इसी तरह इस्लाम दूसरे बौद्ध देशों को भी जीत सकता है।'' वे नहीं चाहते कि यह इतिहास उनके देश में दोहराया जाए। इसलिए वे कट्टर मजहबियों के विरुद्ध अभियान छेडे़ हुए हैं। जिन तीन देशों में बौद्धों और मुसलमानों के बीच तनाव और संघर्ष चल रहा है, उसमें इतिहास का भी योगदान है। इन सभी देशों में कट्टर तत्वों को एक खतरा माना जाता है। इन देशों के बौद्धों का मानना है कि बौद्ध देशों में इस्लाम एक विस्तारवादी शक्ति है। इसमें उन्हें बारहवीं सदी के इतिहास की गूंज सुनाई देती है। बौद्धों की सामूहिक चेतना में यह बात पैठी हुई है कि 1193 में तुर्की सेनाओं ने नालंदा और अन्य बौद्ध विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था। उन्हें लगता है कि आज के मुस्लिम भी उसी तरह का खतरा बनकर आए हैं।
बौद्ध राष्ट्रों में कट्टर उन्मादियों के प्रति आक्रमक रुख वहां की सरकारों के लिए मुसीबतें पैदा कर रहा है। पहले बौद्ध भिक्षु इस्लाम को खतरा नहीं मानते थे, लेकिन अफगानिस्तान में बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमाओं पर तालिबानी हमलों ने बौद्ध समुदायों को आक्रोशित किया और मुसलमानों के प्रति उनकी दृष्टि बदल गई। इसके चलते ही म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड में हालात बदल गए हैं। बौद्ध देशों की जनता ने एक बात और महसूस की कि मुस्लिम बहुल देशों में जहां बौद्ध थे, वहां बौद्धों पर काफी अत्याचार हुए। जैसे बांग्लादेश में चकमा बौद्धों पर चटगांव हिल ट्रैक्ट में इतने हमले और अत्याचार हुए कि उन्हें विस्थापित होकर भारत आना पड़ा। ताजा इतिहास की ये स्मृतियां आज भी बौद्ध देशों की जनता के दिलोदिमाग में ताजी हैं। इसके अलावा गया के महाबोधि मंदिर पर इस्लामी आतंकी हमले से भी बौद्ध दुखी हैं। इसीलिए भारत में घुसपैठ करने वाले रोहिंग्याओं के विरूद्ध सरकार ने सख्त रूख अपनाया है।
दुनियाभर के बौद्ध राष्ट्रों के बौद्धों का आरोप है कि ईरान और सऊदी अरब वहां के मुसलमानों की मदद करके उन्हें अपने देश के खिलाफ भड़काने का काम करते हैं। ईरान और सऊदी अरब से धन आता है और उस धन का उपयोग मस्जिदें बनाने और व्यापार खड़ा करने में किया जाता है। ऐसा आरोप है कि वर्तमान में थाईलैंड में सऊदी अरब की मदद से आतंक बढ़ा है। म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड में बौद्धों का नेतृत्व राजनीतिक नहीं, शांतिप्रिय और ध्यानमग्न रहने वाले बौद्ध भिक्षु कर रहे हैं। म्यांमार के बौद्ध भिक्षु विराथु को पश्चिमी मीडिया 'आग उगलता बौद्ध भिक्षु' कहता है। स्वभाव से शांतिप्रिय विराथु को देश और धर्म की रक्षा के लिए यह नया अवतार लेना पड़ा है। म्यांमार में जब रोहिंग्या अलगाववाद ने उग्र रूप ले लिया तो पूरे देश में बौद्धों पर हमले होने लगे। मगर वहां की आम जनता अपनी सुरक्षा के प्रति उदासीन रही। ऐसे में सामने आए मांडले के बौद्ध भिक्षु विराथु जिन्होंने अपने प्रभावशाली भाषणों से जनता को यह एहसास कराया कि यदि अब भी नहीं जागे तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसी दौरान कुछ हिंसक झड़पें हुईं, कई बौद्ध मारे गये। आखिरकार लोग सड़कों पर उतर आए और हिंसक रोहिंग्याओं के खिलाफ बौद्ध भिक्षुओं ने भी कमर कस ली।
विराथु चर्चा में तब आए जब वे 2001 में राष्ट्रवादी और मजहबी उन्मादी विरोधी संगठन '969' के साथ जुड़े। यह संगठन बौद्ध समुदाय के लोगों से अपने ही समुदाय के लोगों से खरीदारी करने, उन्हें ही संपत्ति बेचने और अपने ही धर्म में शादी करने की बात करता है। जागरूक बौद्धों के संगठन बुद्धिस्ट डिफेंस लीग के फेसबुक पेज पर कहा गया है— 'यदि आप मुसलमानों की दुकानों से कुछ खरीदते हैं तो आपका पैसा वहीं नहीं रुकता, वह आखिर में आपके धर्म और जाति को नष्ट करने के काम में लाया जाता है।'
'969' के समर्थकों का कहना है कि यह पूरी तरह से आत्मरक्षा के लिए बनाया गया संगठन है, मगर वे हिंसक मुसलमानों के खिलाफ इसलिए हंै क्योंकि उनका कहना है, ''हम बौद्ध उन्हें आजादी के साथ उनके मजहब का पालन करने देते हैं। जब मुसलमानों के पास ताकत आती है, वे हमें हमारे धर्म का पालन नहीं करने देते। सावधान रहिए। मुस्लिम हमसे नफरत करते हैं।'' कुछ साल पहले म्यांमार सरकार ने हिंसक झड़पों एवं उनके भड़काऊ भाषणों के खिलाफ विराथु को 25 साल की सजा सुनाई थी मगर जनता के विरोध के सामने झुकते हुए उन्हें केवल सात साल बाद 2011 में ही जेल से रिहा करना पड़ा। विराथु के भाषणों में रोहिंग्या मुसलमान निशाने पर रहते हैं। अशीन विराथु के नाम की गूंज 1 जुलाई, 2013 को 'टाइम' पत्रिका तक पहुंच गई। पत्रिका के मुख पृष्ठ पर उनकी तस्वीर छपी। विराथु ने बौद्धों से साफ कहा कि ''यदि हमें अपना अस्तित्व बचाना है तो अब शांत रहने का समय नहीं रहा। नहीं जागे तो देश से बौद्धों का सफाया हो जाएगा और बर्मा मुस्लिम देश हो जायेगा..।''
कट्टर उन्मादियों के खिलाफ आग उगलने वाले विराथु का कहना है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक बौद्ध लड़कियों को फंसाकर शादियां कर रहे हैं एवं बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करके पूरे देश के जनसंख्या-संतुलन को बिगाड़ने में लगे हुए हैं, जिससे बर्मा की आंतरिक सुरक्षा को भारी खतरा उत्पन्न हो गया है। उनका कहना है कि मुसलमान एक दिन पूरे देश में फैल जाएंगे और बर्मा में बौद्धों का नरसंहार शुरू हो जाएगा।
बौद्ध भिक्षुओं को शांति का दूत माना जाता है, किंतु म्यांमार के अधिकांश बौद्ध आत्मरक्षा के लिए रौद्र रूप अपनाने में कोई परहेज नहीं कर रहे हैं। म्यांमार में हुए कई सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि जनता एवं बौद्ध भिक्षु विराथु के साथ हैं। विराथु एक ऐसा नाम है जिसे सुनने मात्र से रोहिंग्याओं के अंदर कंपन पैदा हो जाता है। विराथु वह संत हैं जिन्होंने म्यांमार में आतंक की जड़ कहे जाने वाले उन रोहिंग्याओं को बाहर खदेड़ दिया है।
विराथु जितना बुद्ध को मानते हैं उतना ही गीता को भी मानते हैं। उन्होंने गीता के एक सबक को अपने जीवन में उतारा है और वह है-'शांति स्थापित करने के लिए हथियार उठाना होगा, शांति के लिए युद्ध जरूरी है।' उनके आह्वान पर इस्लामी आतंक झेल रहे म्यांमार के लोग एकजुट होने के साथ विराथु के लिए जान लेने-देने को तैयार हो गए। पूरे म्यांमार से घुसपैठिए कट्टरपंथियों को खदेड़ा जाने लगा। विराथु ने श्रीलंका के समान विचार वाले बौद्ध धर्मगुरु दिलांथा विथानागे को अपना मित्र बनाया है। विथानागे ने कट्टर इस्लाम को हराने और बौद्ध धर्म के उत्थान के लिए बोडू बल सेना (बीबीएस) का गठन किया जिसे सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी संगठन माना जाता है। 'टाइम' पत्रिका ने इस संस्था को 'श्रीलंका का सबसे शक्तिशाली बौद्ध संगठन' कहा है। संगठन के अधिवेशन में 100 बौद्ध भिक्षु झंडे लेकर जुलूस का नेतृत्व करते थे, लोगों को धर्म रक्षा की शपथ दिलाते थे। संगठन का कहना है कि ''श्रीलंका दुनिया का सबसे पुराना बौद्ध राष्ट्र है। हमें उसकी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करना चाहिए।'' यह संगठन पिछले कुछ वषार्ें में श्रीलंका में कट्टर तत्वों पर लगाम कसने वाला माना गाया है। हालांकि विथानागे ने इस बात से इनकार किया कि उनका संगठन यह सब कुछ करता है। संगठन का कहना है कि बौद्ध धर्म की रक्षा के लिए इसका गठन हुआ। विथानागे मानते हैं कि श्रीलंका में भी बौद्धों पर कन्वर्जन का खतरा मंडरा रहा है। कट्टर इस्लामवादी बौद्ध महिलाओं से विवाह करते हैं, उनसे बलात्कार करते हैं और बौद्धों की भूमि भी हड़पते हैं। सिंहली परिवारों में एक या दो बच्चे हैं, जबकि अल्पसंख्यक आधा दर्जन या इससे ज्यादा बच्चे पैदा करके आबादी का संतुलन बिगाड़ रहे हैं। इसके पीछे विदेशी पैसा है। सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर रही है। यह संगठन अल्पसंख्यक वोट बैंक की सियासत पर सवाल उठाता आया है। इस संगठन का मानना है कि श्रीलंका में मुसलमान तेजी से मस्जिदें बनाने और अपनी जनसंख्या बढ़ाने में लगे हैं। श्रीलंका के बौद्ध संगठन बोडू बल सेना को रक्षा मंत्री गोताबाया राजपक्षे का समर्थन हासिल है। राजपक्षे महिंदा राजपक्षे के भाई हैं। बौद्धों के संगठन बोडू बल सेना ने श्रीलंका में पशुओं को हलाल करने का मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया। थाईलैंड भी मुस्लिम आतंकवाद और अलगावाद से परेशान है। थाईलैंड के तीन मुस्लिम बहुल राज्य कई वर्षों से अलगाववाद के कारण सिरदर्द बने हुए हंै। ये 3 दक्षिणी प्रांत हैं-पट्टानी, याला और नरभीवाट। वहां अल्पसंख्यक बौद्धों की हत्या और भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ना, सुरक्षा बलों से मुठभेड़, बौद्ध भिक्षुओं पर हमले, थाई सत्ता के प्रतीकों, स्कूलों, थानों, सरकारी संस्थानों पर हमले और तोड़-फोड़, निहत्थे दुकानदारों और बाग मजदूरों की हत्या आम बात हो गई थी। थाईलैंड में आतंकवाद का मूल हथियार बनी 'जेमाह जमात इस्लामियाह', जिसके गुट अलग-अलग नामों से प्राय: सभी 'आसियान' देशों में फैले हुए हैं। इनका एक ही उद्देश्य है-गैर-मुसलमानों का सफाया और गैर-मुस्लिम सत्ता से सशस्त्र संघर्ष।
बौद्ध बहुल थाईलैंड में भी सेना को तीन प्रांतों में मुस्लिम अलगाववादियों से भिड़ना पड़ा है। बताया जाता है कि सेना ने इनके खिलाफ सख्त रवैया अख्तियार किया और बौद्धों ने बौद्ध मंदिरों में हथियार जमा किए हैं। दूसरी तरफ इस्लामी अलगावादी बौद्ध भिक्षुओं को निशाना बनाते रहते हैं। नतीजतन भिक्षुओं को भिक्षा मांगने की धार्मिक रस्म पुलिस संरक्षण में करनी पड़ती है।
वैश्वीकरण के इस दौर में श्रीलंका, म्यांकार और थाईलैंड के बौद्ध अपने धर्म की रक्षा के लिए एक बैनर तले आ गए हैं। इन तीनों देशों के बौद्ध यह महसूस कर रहे हैं कि उनकी जनसंख्या घट रही है। वे बखूबी जानते हैं कि मुसलमानों के परिवार उनके परिवारों से बड़े हैं। अंतरपंथीय विवाह भी उनके सामने एक समस्या है। जब दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशियाई देश में अंतरपंथीय विवाह होता है, उसमें बौद्ध को ही इस्लाम कबूल करना पड़ता है। ऐसा मजहबी दबाव के कारण होता है। इसे 969 और बोडु बल सेना के लोग महसूस करते हैं। वे इस प्रवृत्ति पर रोक लगाना चाहते हैं।
विराथु और अन्य बौद्ध भिक्षु मानते हैं कि सऊदी अरब से इंडोनेशिया तक एक आर्थिक नेटवर्क फैला हुआ है जो बौद्ध देशों से बौद्ध प्रभुत्व को खत्म करना चाहता है। उनके इन विचारों से श्रीलंका की बोडु बल सेना भी सहमत है। सेना ने विराथु को श्रीलंका की राजधानी कोलंबो बुलाया, जहां उन्होंने हजारों सिंहली बौद्धों को संबोधित किया। अंतरराष्ट्रीय गलियारों में विराथु को दिए गए इस आमंत्रण पर काफी बवाल हुआ था। बहरहाल, थाईलैंड के बौद्धों ने भी 969 की आर्थिक मदद करके अपना समर्थन प्रकट किया। वहां के बौद्धों ने सरकार से अपील की कि वह रोहिंग्याओं को अपने देश में न आने दे। उन्हें सागरतटों से ही वापस धकेला जाए। – सतीश पेडणेकर
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