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आपको याद होगा, बेंगलुरू में नए साल के स्वागत में जश्न मना रही लड़कियों और महिलाओं के साथ सामूहिक रूप से छेड़छाड़ हुई थी। मनचलों ने जश्न की रात का फायदा उठाकर उनकी आबरू से खिलवाड़ करने का प्रयास किया। देखते ही देखते खुशी और उत्सव का माहौल खौफनाक मंजर में बदल गया। इस शर्मनाक वरदात की शिकार 23 साल की एक लड़की ने आखिरकार इसके विरुद्ध आवाज उठाने का फैसला किया। लेकिन किसी ने उसका साथ नहीं दिया, बल्कि बदनामी का डर दिखाकर उसे चुप रहने की नसीहत देते रहे। उसने वारदात की जो हकीकत बयां की, उसे सुनकर रूह कांप जाती है। बदनामी के डर से हम कब तक दुनिया का सामना करने से बचते रहेंगे? यह सवाल उस आधी आबादी से है जो सबकुछ देख-सुन कर, बर्दाश्त कर क्यों मुंह छिपा लेती है? अहम सवाल यह कि एक लड़की ही क्यों सामने आई, जबकि भीड़ में चल रही हर महिला उस सितम को सह रही थी। हम हर चीज में बराबरी की बात करते हैं, पर अपने लिए न्याय मांगने की बात आते ही घर, परिवार, समाज और लोग क्या कहेंगे, यह सोचकर चुप बैठ जाते हैं। आखिर क्यों?
कुछ समय पहले ऑफिस में एक वरिष्ठ सहयोगी के साथ इस विषय पर चर्चा चल रही थी। उन्होंने जो कहा, वह हैरान करने वाला था। उन्होंने कहा कि ऐसी जगह पर जाना ही क्यों, जहां पहले से ही इस तरह की घटना के इंतजामात हों। वैसे भी लड़कियों और महिलाओं को रात में बाहर निकलने से बचना चाहिए। पार्टी करने का ही मन था तो समूह बनाकर लुत्फ उठातीं। आधी रात को सड़क पर घूूमकर कौन पार्टी करता है? वे एक तरह से बेंगलुरू की सड़क पर हुई शर्मनाक घटना के लिए लड़कियों और महिलाओं को ही दोषी ठहरा रहे थे। हालांकि उनकी कुछ बातों से मैं सहमत थी, पर रात में घूमने व पार्टी करने की मनाही से सहमत नहीं थी। उनके हिसाब से घटनाक्रम को अंजाम देने वाले लड़के मजा कर रहे थे, क्योंकि लड़कियों ने रात में घर से निकलकर उन्हें मौका दिया था।
उनसे बातचीत के बाद मैं सोच रही थी कि घटना की शिकार जो लड़कियां-महिलाएं पुरुष मित्र या परिवार के सदस्य के साथ गई थीं, क्या उन पुरुषों को भी किसी अन्य महिलाओं को छेड़ने की आजादी थी? लेकिन वे तो उन्हें बचाने में लगे हुए थे। ऐसा क्या मजा था कि एक सरेराह महिलाओं को छेड़ रहा था और दूसरा उन्हें बचा रहा था। भीड़ में मौजूद लोग कैसे चुपचाप देख रहे थे? किसी ने विरोध क्यों नहीं किया? ये सवाल व्याकुल करने वाले हैं। किसी के एक पल का मजा एक लड़की के लिए जीवनभर का दर्द बन जाता है। मर्यादा के बोझ तले वह घुट-घुट कर जिंदगी बिताती है। यहां गुनाह करने वाले को नहीं, बल्कि आवाज उठाने वाले को ही दोषी माना जाता है।
आज भी हमारे देश में बलात्कार, छेड़छाड़, घरेलू हिंसा की शिकार कोई महिला जब न्याय के लिए आवाज उठाती है तो पूरा तंत्र उसके साथ इस तरह पेश आता है, जैसे वह कोई अपराधी हो। उसे हर पल यह एहसास कराया जाता है कि उसने न्याय की गुहार लगाकर बड़ी गलती की है। हमेशा की तरह चुप रहने में ही उसकी भलाई मानी जाती है। इसकी शुरुआत सबसे पहले घर से होती है, क्योंकि हमारे अपनों को ही यह लगने लगता है कि लोगों को पता चलेगा तो क्या होगा? समाज क्या कहेगा? हम कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएंगे। आखिर कब तक यह चुप्पी कायम रहेगी? कब तक हम भागते रहेंगे?
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